गीता जयन्ती – 2 दिसम्बर 2014
हरि सम जग कछु वस्तु नहीं, प्रेम पंथ सम पंथ।
सदगुरु सम सज्जन नहीं, गीता सम नहिं ग्रंथ।।
सम्पूर्ण विश्व में ऐसा कोई ग्रन्थ नहीं जिसकी ‘श्रीमद् भगवदगीता’ के समान जयंती मनायी जाती हो। मार्गशीर्ष के शुक्ल पक्ष की एकादशी को कुरुक्षेत्र के मैदान में रणभेरियों के बीच योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को निमित्त बनाकर मनुष्यमात्र को गीता के द्वारा परम सुख, परम शान्ति प्राप्त करने का मार्ग दिखाया। गीता का ज्ञान जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति देने वाला है। गीता जयंती मोक्षदा एकादशी के दिन मनायी जाती है।
इस छोटे से ग्रंथ में जीवन की गहराइयों में छिपे हुए रत्नों को पाने की ऐसी कला है जिसे प्राप्त कर मनुष्य की हताशा-निराशा एवं दुःख-चिंताएँ मिट जाती है। गीता का अदभुत ज्ञान मानव को मुसीबतों के सिर पर पैर रख के उसके अपने परम वैभव को, परम साक्षी स्वभाव को, आत्मवैभव को प्राप्त कराने की ताकत रखता है। यह बीते हुए का शोक मिटा देता है। भविष्य का भय और वर्तमान की आसक्ति ज्ञान प्रकाश से छू हो जाती है। आत्मरस, आत्मसुख सहज प्राप्त हो जाता है। हम हैं अपने आप, हर परिस्थिति के बाप ! यह दिव्य अनुभव, अपने दिव्य स्वभाव को जगाने वाली गीता है। ॐॐ… पा लो इस प्रसाद को, हो जाओ भय, चिंता, दुःख से पार !
गीता भगवान के अनुभव की पोथी है। वह भगवान का हृदय है। गीता के ज्ञान से विमुख होने के कारण ही आज का मानव दुःखी एवं अशांत है। दुःख एवं शोक से व्याकुल व्यक्ति भी गीता के दिव्य ज्ञान का अमृत पी के शांतिमय, आनंदमय जीवन जीकर मुक्तात्मा, महानात्मा स्वभाव को जान लेता है, जो वह वास्तव में है ही, गीता केवल जता देती है।
ज्ञान प्राप्ति की परम्परा तो यह है कि जिज्ञासु किसी शांत-एकांत व धार्मिक स्थान में जाकर रहे परंतु गीता ने तो गजब कर दिया ! युद्ध के मैदान में अर्जुन को ज्ञान की प्राप्ति करा दी। अरण्य की गुफा में धारणा, ध्यान, समाधि करने पर एकांत में ध्यानयोग प्रकट होता है परंतु गीता ने युद्ध के मैदान में ज्ञानयोग प्रकट कर दिया ! भगवान श्रीकृष्ण ने गीता के माध्यम से अरण्य की विद्या को रणभूमि में प्रकट कर दिया, उनकी कितनी करूणा है !
आज के चिंताग्रस्त, अशांत मानव को गीता के ज्ञान की अत्यंत आवश्यकता है। भोग-विलास के आकर्षण व कूड़-कपट से प्रभावित होकर पतन की खाई में गिर रहे समाज को गीता ज्ञान सही दिशा में दिखाता है। उसे मनुष्य जन्म के परम लक्ष्य ईश्वरप्राप्ति, जीते जी ईश्वरीय शांति एवं अलौकिक आनंद की प्राप्ति तक सहजता से पहुँचा सकता है। अतः मानवता का कल्याण चाहने वाले पवित्रात्माओं को गीता-ज्ञान घर-घर तक पहुँचाने में लगना चाहिए।
वेदों की दुर्लभ एवं अथाह ज्ञानराशि को सर्वसुलभ बनाकर अपने में सँजोने वाला गीता ग्रंथ बड़ा अदभुत है ! मनुष्य के पास 3 ईश्वरीय शक्तियाँ मुख्य रूप से होती हैं। पहली करने की शक्ति, दूसरी मानने की शक्ति तथा तीसरी जानने की शक्ति। अलग-अलग मनुष्यों में इन शक्तियों का प्रभाव भी अलग-अलग होता है। किसी के पास कर्म करने का उत्साह है, किसी के हृदय में भावों की प्रधानता है तो किसी को कुछ जानने की जिज्ञासा अधिक है। जब ऐसे तीनों प्रकार के व्यक्ति मनुष्य जन्म के वास्तविक लक्ष्य ईश्वरप्राप्ति के लिए प्रयत्न करते हैं तो उन्हें उनकी योग्यता के अनुकूल साधना की आवश्यकता पड़ती है। श्रीमद भगवदगीता एक ऐसा अदभुत ग्रंथ है जिसमें कर्मयोग, भक्तियोग और ज्ञानयोग तीनों की साधनाओं का समावेश है।
लोकमान्य तिलक एवं गाँधीजी ने गीता से कर्मयोग को लिया, रामानुजाचार्य एवं मध्वाचार्य आदि ने इसमें भक्तिरस को देखा तथा श्री उड़िया बाबा जैसे श्रोत्रिय ब्रह्मवेत्ताओं ने इसके ज्ञान का प्रकाश फैलाया। संत ज्ञानेश्वर महाराज, साँईं श्री लीलाशाह जी महाराज एवं अन्य कुछ महापुरुषों ने गीता में सभी मार्गों की पूर्णता को देखा।
गीता किसी मत मजहब को चलाने वाले के द्वारा नहीं कही गयी है अपितु जहाँ से सारे मत मजहब उपजते हैं और जिसमें लीन हो जाते हैं उस आदि सत्ता ने मानवमात्र के कल्याण के लिए गीता सुनायी है। गीता के किसी भी श्लोक में किसी भी मत मजहब की निंदा-स्तुति नहीं है।
गीता के ज्ञानामृत के पान से मनुष्य के जीवन में साहस, समता, सरलता, स्नेह, शांति, धर्म आदि दैवी गुण सहज ही विकसित हो उठते हैं। अधर्म, अन्याय एवं शोषकों का मुकाबला करने का सामर्थ्य आ जाता है। निर्भयता आदि दैवी गुणों को विकसित करने वाला, भोग एवं मोक्ष दोनों ही प्रदान करने वाला यह गीता ग्रंथ पूरे विश्व में अद्वितिय है। अर्जुन को जितनी गीता की जरूरत थी उतनी, शायद उससे भी ज्यादा आज के मानव को उसकी जरूरत है। यह मानवमात्र का मंगलकर्ता ग्रंथ है।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2014, पृष्ठ संख्या 14,15 अंक 263
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