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महान कार्य करते हैं महान त्याग की माँग


संत रंग अवधूत जी महाराज पुण्यतिथिः 22 दिसम्बर 2014

पांडुरंग नामक एक बालक गुजरात में रहता था। एक बार वह बीमार हो गया। दिनों दिन बुखार बढ़ने लगा। दवाएँ लीं, नजर उतरवायी, सब किया किंतु सुधार नहीं हुआ। बीमारी इतनी बढ़ी कि डाक्टर वैद्यों ने आशा छोड़ दी।

एक दिन पांडुरंग को लगा कि उसका आखिरी समय आ गया है। उसने माँ व छोटे भाई को बाहर भेजकर दरवाजा बाहर से बंद करवा दिया और अंतर्मुख होकर मनोमंथन करने लगा कि ‘मेरा जन्म निरर्थक चला गया। यह मानव-शरीर मलिन, क्षणभंगुर होने के बावजूद भी मोक्षप्राप्ति का साधन है। गुरुदेव ! मैं आपका अपराधी हूँ, मुझे क्षमा करें। कृपा करके मुझे बचा लीजिये। अब एक पल भी नहीं बिगाड़ूँगा।’

प्रार्थना करते-करते पांडुरंग शांत हो गया। अवधूत जी दत्तात्रेयी प्रकट हुए और आशीर्वाद देकर अदृश्य हो गये। गुरुकृपा से पांडुरंग को नया जीवन मिला। देखते-देखते पांडुरंग का स्वास्थ्य सुधरने लगा। गुरुदेव को दिये वचन के अनुसार अब वह समय बिगाड़ना नहीं चाहता था। प्रभु-मिलन की उत्कंठा वेग पकड़ रही थी। पांडुरंग एक दिन ध्यान में  बैठा था तब गुरुदेव ने आज्ञा दीः “पांडु ! अब तेरा नया जन्म हुआ है। समय व्यर्थ नहीं जाने देना। जल्दी घर छोड़ दे।”

पांडुरंग ध्यान से उठा और माँ के पास गया। रूकमा सब्जी काट रही थीं। पांडुरंग हिम्मत करके बोलाः “माँ ! मैं तुमसे आज्ञा लेने आया हूँ।”

“आज्ञा ?”

“हाँ माँ ! आज गुरुदेव ने ध्यान में आ के मुझे स्पष्ट कहा कि पांडु ! उठ, संसार छोड़ के अलख की आराधना में लग जा !”

माँ की आँखों से अश्रुधाराएँ बहने लगीं।

“बेटे ! साधना करने की कौन मना करता है ? घर में रह के जितनी करनी हो, कर लेना।”

“माँ ! घर में रह के साधना नहीं हो सकती। आसक्ति हो जायेगी। अनजाने में ही संसार में प्रवेश हो जाता है।”

रूकमा फूट-फूट कर रोने लगीं और बोलीं- “मेरा भाग्य ही फूटा है। हे भगवान ! अब मैं क्या करूँ ?” माँ ने जोर-जोर से सिर पटका, जिससे सिर से खून बहने लगा और वे मूर्च्छित हो गयीं। माँ की दयनीय स्थिति देख पांडुरंग गुरुदेव से प्रार्थना करने लगाः “गुरुदेव ! अब और परीक्षा न लीजिये, मार्गदर्शन दीजिये।”

कुछ क्षण बाद माँ की मूर्च्छा खुली। पांडुरंग ने कहाः “माँ ! ममता छोड़ो, जाये बिना मेरा छुटकारा नहीं है। इतिहास साक्षी है कि जगत के कल्याण के लिए माताओं का त्याग हमेशा महान रहा है। माँ कौसल्या ने रामचन्द्रजी को वन में न जाने दिया होता तो जगत को त्रास देने वाले रावण का संहार कौन करता ? विश्व को रामायण की भेंट कैसे मिलती  ? श्रीकृष्ण जन्म के बाद माँ देवकी ने महान त्याग नहीं किया होता तो जगत को गीता-ज्ञान कौन सुनाता ? महान कार्य महान त्याग की माँग करते हैं। माँ ! मुझे आज्ञा दो।”

माँ कुछ ही क्षणों में स्वस्थ हो गयीं। उनका कमजोर हृदय वज्र समान हो गया। वे पांडुरंग के सिर पर हाथ घुमाते हुए बोलीं- “बेटा ! तू स्वयं जाग व दूसरों को जगा। जा, मेरा आशीष है।”

“माँ ! तुम्हारी जैसी माताओं के त्याग के आगे पूरे विश्व के वैभव का त्याग भी नन्हा होगा।”

माँ को प्रणाम करके वह घर से निकल पड़ा। संसार को छोड़ ‘सार’ (परमात्मा) की प्राप्ति के लिए पांडुरंग लग गया। आगे चलकर यही पांडुरंग श्री रंग अवधूत महाराज के नाम से प्रसिद्ध हुए।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2014, पृष्ठ संख्या 23, अंक 263

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भारतीय संस्कृति की महानता का राज


आपको यह खबर होनी चाहिए कि भारत विश्वभर में पूजने लायक कैसे हुआ ?

यहाँ बड़े-बड़े चक्रवर्ती राजा हो गये, पवित्र नदियाँ हैं इसलिए भारत  विश्व का गुरु है, ऐसी बात नहीं है। यहाँ बड़े-बड़े महाँपुरुष प्रकट हुए हैं इसलिए भारत विश्व का गुरु है।

एक बार राष्ट्रपति डॉ. राधाकृष्णन् विदेश गये। वे एक दार्शनिक थे। वहाँ लोगों ने उन्हें वहाँ के सभी आविष्कार दिखाये और कहाः “देखिये, हम लोगों ने कितना विकास किया है ! कम्पयूटर में प्रोग्राम बना दिया है तो वह रोबोट काम कर रहा है। पनडुब्बी बनायी जो पानी के अन्दर चलती है।”

राधाकृष्णन ने कहाः “ठीक है, लेकिन अभी तुमको बहुत कुछ जानना बाकी है। तुमने मछली की नाईं पनडुब्बी में घूमना सीख लिया, जहाज आदि में पक्षी की नाईं उड़ना भी सीख लिया है और गधे की नाईं रोबोट काम कर रहे वह भी कर लिया लेकिन इनके पीछे जिसकी सत्ता है, उस ईश्वर को जानने के लिए अभी तुम्हें भारत के आत्मवेत्ताओं से ज्ञान लेना पड़ेगा।

तुम तो भीतर से बाहर आने की विद्या में आगे बढ़ते दिखते हो लेकिन बाहर से भीतर आना पड़ेगा। उसके बिना शाश्वत सुख-चैन नहीं है।”

विषयों से इन्द्रियों में जाओ, इन्द्रियों से मन में आओ, मन से बुद्धि में आओ, बुद्धि से स्व में आओ तब विश्रांति मिलेगी। झख मार के रात को स्व में आते हो। वहाँ तो तमोगुण होता है, जरा आराम मिलता है, विश्रांति मिलती है तभी दूसरे दिन काम करने लायक होते हैं। अगर स्व में नहीं आये तो जीने में नालायक हो जायें। नींद नहीं आये तो फिर देखो क्या हाल होता है ! नींद आती है तो पुष्टि कौन देता है ? वही सच्चिदानंद चिद्घन चैतन्य परमात्मा !

यहाँ महापुरुष परमात्म प्रेम का दरिया छलकाते हैं। उस प्रेम के दरिया में बच्चा भी नाचे तो बाप भी नाचे, सेठ भी नाचे तो नौकर भी नाचे, अमीर भी नाचे तो गरीब भी नाचे। उनका प्रेम सागर छलकता है तो दुःखी लोग अपने दुःख भूलकर आनंदित, आह्लादित और शांत हो जाते हैं। यही कारण है कि सत्संग में बहुत दूर दूर से लोग आते हैं। यह सारा का सारा साम्राज्य प्रेम देवता का है। किसी व्यक्ति में, मंत्र-तंत्र में, टोने-टोटके वाले, धागेवाले में वह ताकत नहीं होती कि ऐसे समझदार, दिमागवाले लोगों, भक्तों, सेठों को भी बाँध सके।

मैं एक बार अजमेर (राजस्थान) गया था। वहाँ ऋषि दयानन्द उद्यान में मेरा निवास था। बगीचे में टहलने गया तो वहाँ एक सेवानिवृत्त डीएसपी मुझे देखकर खुश हो गये। बोलेः “बाबा जी ! कहाँ से आये ?” वे प्रेमवश थोड़े भावावेश में आ गये। मेरे साथ जो साधक था, उसने कहाः “साँईं ! आपके पास कोई जादू है ? देखो बगीचे में कोई भी आदमी देखता है तो वह आपके पीछे पागल हो जाता है !” फिर मैं जितने दिन वहाँ रहा, वे सत्संग में आते रहे। एक बार अहमदाबाद आकर गये। फिर 20 दिन भी उनसे रहा न गया और 20 दिन बाद दुबारा आये।

उन पर कोई निर्देश जारी करे कि ‘जो संत बगीचे में मिले थे उनके आश्रम में तुमको जाना पड़ेगा, नहीं तो तुम्हारी पेंशन बंद कर देंगे।’ तो वे उसको अदालत में ले जायेंगे। पुलिस कमिश्नर कहे कि ‘आप (सेवानिवृत्त डीएसपी) राजस्थान से अहमदाबाद के पुलिस कमिश्नर के पास महीने में दो बार सलाम करने जाया करो, नहीं तो आपकी पेंशन बंद करेंगे।’ तो वे कमिश्नर को घऱ बैठाने का रास्ता खोजेंगे।

खैर, वे एक डीएसपी ही नहीं, ब्रह्माँण्ड का कोई भी सात्विक हृदयवाला होगा, जिसके पास श्रद्धा-प्रेम की केवल एक बूँद भी होगी, उसको कुछ न कुछ मिल जायेगा और वह भूलेगा नहीं। भले ही शरीर से यहाँ न आ सके कभी, पर मन से तो छटपटायेगा कि ‘पता नहीं कब जा पाऊँगा !’

टोने-टोटके के बल से रिद्धि-सिद्धि के बल से आदमी वश नहीं होता। आदमी को वश करना हो तो मैं आपको वशीकरण मंत्र बता देता हूँ। तुलसीदास जी ने कहा है, ‘वशीकरण मंत्र प्रेम को’। पूरा प्रेम तो आत्मा में है। तुम जितने गहरे जाओगे, जितने अपने अहंकार को, अपने अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय कोष को भूलते जाओगे उतने आनंदस्वरूप में एक हो जाओगे। जब तुम आनंदस्वरूप में एक होओगे तो ये कोष भी पवित्र हो जायेंगे। इन शरीरों के भीतर जो द्रष्टा है वह जब आँखों से निहारेगा तो तुम्हारी आँखों से न जाने कैसा जादू टपकेगा ! बोलोगे तो तुम्हारी वाणी में न जाने कितना माधुर्य होगा !! जो थियेटर में या इधर-उधर प्रेम दिखाया जाता है, वह केवल धोखा है। सिनेमावालों के पास प्रेम नहीं, वे तो प्रेम का नाम लेकर मोह का जगत उत्पन्न करते हैं।

जो लोग संत कबीर जी पर प्रबंध (थीसिस) लिखते हैं, वे डॉक्टर हो जाते हैं, पीएचडी. हो जाते हैं। उनको बढ़िया नौकरी मिल जाती है। वेतन मिल जाता है, पदोन्नति मिल जाती है लेकिन कबीर जी स्कूल में आ जायें तो उनको क्लर्क की नौकरी नहीं मिलेगी क्योंकि क्लर्क की नौकरी के लिए जितनी पढ़ाई चाहिए उतनी कबीर जी ने नहीं की थी। लेकिन वे प्रेम का एक ऐसा अमृत पढ़े थे कि आज कबीर जी प्रोफेसरों के दिलो-दिमाग में राज्य कर रहे हैं।

उस समय कबीर जी की कद्र नहीं हुई थी। बुद्धिशाली लोगों को कद्र नहीं हुई पर पागलों के पास तो तब भी कद्र थी। कबीर जी के लिए भी कुछ लोग पागल थे तभी तो समाज में उनके विचार फैल गये। गुरु नानक जी की, संत कबीर जी की टूटी-फूटी भाषा है, व्याकरण की कोई व्यवस्था नहीं लेकिन विश्व पर राज्य कर रही है। मेरे पूज्यपाद भगवान लीलाशाह जी महाराज की टूटी फूटी भाषा मेरे पर राज्य कर रही है और मेरे द्वारा न जाने कितनों पर राज्य कर रही है ! न उनके पास सत्ता थी, न डंडा था, न नोटें थीं। उनको हस्ताक्षर करने में कुछ मिनट लगते थे। फिर भी बड़े-बड़े विद्वानों का हृदय उनके आगे झुक जाता है, सिर झुक जाता है। हम उनकी याद करके अपना हृदय पवित्र करते हैं। उनका शरीर नहीं है फिर भी उनकी याद में अपना हृदय पवित्र करने के सौभाग्य की एक घड़ी मिल जाती है। वाह मेरे साँईं लीलाशाहजी ! देखो, हृदय कैसा शीतल होता है। वाह ! वाह !! हृदय में पवित्र भाव उठेगा। वाह गुरू वाह ! वाह साँईं वाह !!

भारत में ऐसे अगणित महापुरुष हुए हैं तथा आज भी हैं जो दिखते तो साधारण हैं परंतु जब अपनी मौज में आते हैं तो प्रकृति में भी उथल-पुथल हो जाती है। आत्मसामर्थ्य के धनी ऐसे महापुरुषों के कारण ही चारों ओर से शत्रुओं से घिरी होने पर भी हमारी सनातन संस्कृति आज भी अपनी चमक बिखेर रही है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2014, पृष्ठ संख्या 4,5 अंक 263

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ब्रह्मज्ञानियों को जहाँ सताया जाता हो वहाँ…..


अथर्ववेद (5.19.6) में आता हैः

उग्रो राजा मन्यमानो ब्राह्मणं यो जिघत्सति।

परा तत् सिच्यते राष्ट्र ब्राह्मणो यत्र जीयते।।

अर्थात जिस राष्ट्र में ब्रह्मज्ञानियों को, वेदवेत्ताओं को सताया जाता हो, वह राज्य ज्ञानहीन होकर नष्ट हो जाता है।

महापुरुष, ज्ञानवान दूरदर्शी होते हैं और समाज के दोष-दुर्गुओं को दूर करने के लिए सदैव प्रयासरत रहते हैं। वे देश के नागरिकों को चरित्रवान, संस्कारवान व ज्ञानवान बनाने के लिए सतत संघर्ष करते रहते हैं। समाज को ऐसे योग्य व्यक्तियों का सम्मान करना चाहिए।

अपूज्या यत्र पूज्यन्ते पूजनीयो न पूज्यते।

त्रीणि तत्र प्रवर्तन्ते दुर्भिक्षं मरणं भयम्।।

(स्कन्द पुराण, मा.के. 3.45)

जहाँ पूजनीय लोगों का सम्मान नहीं होता और असम्माननीय लोग सम्मानित होते हैं, वहाँ भय, मृत्यु, अकाल, दरिद्रता, शोक तांडव करते हैं। जैसे सद्दाम व लादेन का सम्मान और महात्मा बुद्ध की मूर्तियों का अपमान हुआ तो उन देशों में भय, शोक, बमबारी, लड़ाई, झगड़े, नरसंहार रुकने का नाम नहीं लेते। श्रेष्ठ जनों का अपमान, अवहेलना आबादी को बरबादी में बदलते हैं।

विदेशी शक्तियाँ हमारी संस्कृति को नष्ट करना चाहती हैं। अभी भी समय है क हम चेत जायें और ब्रह्मनिष्ठ महापुरुषों द्वारा दिखाये गये मार्ग का अनुसरण करते हुए राष्ट्र के एवं स्वयं अपने भी स्वाभिमान की रक्षा करें तथा देश को नष्ट होने से बचायें, भारतीय संस्कृति को, ऋषि संस्कारों को बचायें।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2014, पृष्ठ संख्या 21, अंक 263

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