Yearly Archives: 2014

सत्य कभी पराजित नहीं होता


संत महापुरुषों का हमेशा ही समाज को संगठित करके राष्ट्र को समृद्ध व शक्तिशाली बनाने का उद्देश्य रहा है। परंतु तुच्छ स्वार्थपूर्ति के लिए दिग्भ्रमित हुए लोग अपने पदों का दुरुपयोग कर संतों-महापुरुषों व उनकी संस्थाओं पर अमानुषिक अत्याचार करते आये हैं।

समाजसेवा के क्षेत्र में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का अपना एक आदर्श स्थान है। एक समय था जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक माधवराव सदाशिवराव गोलवलकरजी थे। उनका जन्म 19 फरवरी 1906 को नागपुर में हुआ था। उनका जीवन पिता श्री सदाशिवराव और माता श्रीमती लक्ष्मीबाई से प्राप्त सदगुणों से सुसम्पन्न था। उन्होंने एक संत से भगवन्नाम की दीक्षा लेकर आध्यात्मिक जीवन की शुरुआत की। साधनामय जीवन से उनके मन में वैराग्य का सागर उमड़ने लगा इसलिए उऩ्हें आज्ञा दी कि “समाजसेवा में हिमालय का दर्शन करो”।  गुरु आज्ञा शिरोधार्य करके वे संघ से जुड़ कर समाजसेवा में तत्परता से लग गये। वे सदैव स्वयंसेवकों में धैर्य, उत्साह, साहस का संचार करते थे। गुरुनिष्ठा, गुरुआज्ञा-पालन, देशप्रेम जैसे सदगुणों के कारण विपरीत परिस्थितियों में भी वे कभी विचलित नहीं हुए।

गुरु गोलवलकरजी की गिरफ्तारी

सदियों से यह परम्परा चली आयी है कि राष्ट्रहित में कार्य करने वालों को अग्निपरीक्षा तो देनी ही पड़ती है। रा.स्व.संघ को भी इस कसौटी से गुजरना पड़ा। 30 जनवरी 1948 को गांधी जी की हत्या हुई। स्वार्थी तत्तवों को अपनी स्वार्थपूर्ति का एक अच्छा अवसर मिल गया। वे संघ का कुप्रचार और गांधी जी की हत्या का संबंध संघ से जोड़कर स्वयंसेवकों पर अत्याचार करने लगे।

1 फरवरी 1948 को वारंट जारी कर रात्रि 12 बजे गोलवलकरजी को गिरफ्तार किया गया। गिरफ्तारी के समय उन्होंने स्वयं सेवकों से कहाः “घबराने की कोई बात नहीं है। हम लोग निष्कलंक बाहर आयेंगे। तब तक हम पर अनेकों अत्याचार होंगे पर हमें उन्हें धैर्य और शांति के साथ सहना है।”

अत्याचार का ताँता यहाँ खत्म नहीं हुआ। 4 फरवरी 1948 को सरकार ने संघ को अवैध घोषित कर दिया। लगभग 20000 स्वयंसेवकों को बिना किसी जाँच-पड़ताल के जेल में डाल दिया गया। कुछ दिनों बाद ही सरकार को गोलवलकरजी पर से गांधी जी की हत्या का अभियोग वापस लेना पड़ा।

जब सरकार और संघ के बीच विचार-विनिमय के सभी प्रयास असफल हो गये तो गोलवलकरजी को पुनः नागपुर जेल में डाल दिया गया। धर्म और अधर्म के इस युद्ध में धर्म के पलड़े को हलका होते देख गोलवलकरजी से सहा न गया और उन्होंने सत्याग्रह आंदोलन का राष्ट्रव्यापी आह्वान कर दिया। इस आह्वान पर देशप्रेमी स्वयंसेवकों तथा आम जनता ने संघ प लगा प्रतिबंध हटाने के लिए शांतिपूर्ण आंदोलन किया। परंतु अत्याचारियों ने अत्याचार की सीमा पार कर सत्याग्रहियों की एकता और उत्साह को तोड़ने के लिए लगभग 80 हजार स्वयं सेवकों को गिरफ्तार कर लिया और उन्हें तरह-तरह की यातनाएँ दीं।

जनता की माँग व सत्याग्रह में सत्य का पक्ष लेने वालों की लाखों की संख्या को देखकर और लगाये गये इल्जामों का कोई ठोस सबूत नहीं मिलने के कारण सरकार ने संघ पर से प्रतिबंध हटा दिया और गोलवलकरजी को जेल से बाइज्जत रिहा कर दिया । दो वर्ष भ्रामक दुष्प्रचार के बावजूद संघ और गोलवलकरजी जनता के शिरोभूषण बन गये। उनके लिए स्वागत सभाओं का आयोजन किया गया, जिनमें लाखों लोग आये।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और गोलवलकरजी की सच्चाई जनमानस तक पहुँची। जिनके हृदय में परहित की भावना है और जो सत्य के रास्ते चलते हैं, उनके आगे कितनी भी दुःख-मुसीबतों की आँधियाँ आयें फिर भी वे उन्हें डिगा नहीं सकतीं। सत्यमेव जयते। जीत देर-सवेर सत्य की ही होती है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2014, पृष्ठ संख्या 16-17, अंक 263

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

वास्तविक भोजन


एक बार देवर्षि नारद जी विचरण करते हुए सूर्यलोक में पहुँचे। भगवान सूर्य ने उनका अर्घ्य पाद्य से पूजन किया।

सूर्यदेव ने पूछाः “नारदजी ! अभी आप कहाँ से आ रहे हैं ?”

नारदजीः “महीसागर संगम तीर्थ पर जो महीनगर बसा है, वहाँ के ब्राह्मणों के बीच सत्संग करके आ रहा हूँ।”

सूर्यनारायणः “वहाँ के लोग कैसे हैं ?”

नारदजीः “जो अपने मित्र हैं, परिजन हैं, मिलने वाले हैं उनकी प्रशंसा बड़ों के आगे नहीं करनी चाहिए। वे तो सत्संगी हैं, भगवान की भक्ति करने वाले हैं तो उनमें दोष तो हैं नहीं, निंदा के पात्र भी नहीं हैं तो मैं उनके लिए क्या बोलूँ ? आप स्वयं उनको दर्शन दीजिए अथवा उनकी परीक्षा लीजये।”

इस प्रकार की चर्चा करके नारदजी तो विदा हो गये। भगवान सूर्य के चित्त में महीसागरसंगम तट निवासी उन संयमी साधकों को देखने की इच्छा हुई।

भगवान सूर्य ने एक तेजस्वी ब्राह्मण का रूप बना लिया और उस नगर के ब्राह्मणों की कसौटी करने धरती पर आये। उन ब्राह्मणों ने देखा कि ‘कोई वृद्ध पुरुष आ रहा है।’ अतिथि-सत्कार के नियम के अनुसार उनको बहुमान देते हुए “पधारो-पधारो” कह के यज्ञ मंडप में, अपनी साधना की जगह में उचित जगह पर आसन दिया व अर्घ्य-पाद्य आदि से उनका पूजन किया।

ब्राह्मणों ने पूछाः “आप भोजन में क्या लेंगे ? आप फलाहारी हैं कि दुग्धाहारी, स्वयंपाकी हैं कि हमारे हाथ का भोजन स्वीकार कर लेंगे ?”

व्यवहार में जो स्नेह है, अहोभाव है वह चित्त को पावन करता है क्योंकि सभी व्यक्तियों में वही ईश्वर छुपा हुआ है। व्यवहार में जो खिन्नता है, उद्विग्नता है, अपमानितता है वह लौटकर अपने पास ही आती है। धन दान, स्वर्ण दान, गौदान से भी बड़ा है मान का दान। दूसरे का अपमान करने वाला पापियों के लोक में जाता है। इसलिए कहा गया है – अतिथिदेवो भव। मान से, स्नेह से, अहोभावपूर्वक मिलने जुलने से चित्त तुरंत ही पवित्र होता है और अभद्र  व्यवहार करने से चित्त उद्विग्न होता है।

ब्राह्मण वेशधारी भगवान सूर्य ने कहाः “एक होता है प्राकृत भोजन और दूसरा होता है परम भोजन (वास्तविक भोजन)। प्राकृत भोजन की मुझे आवश्यकता नहीं है, मुझे तो वास्तविक भोजन करा दो।” ब्राह्मणों ने एक दूसरे की तरफ देखा, तब उन ब्राह्मणों के अग्रणी हारीत मुनि ने अपने 8 वर्ष के पुत्र कमठ से कहाः

“बेटा ! प्राकृत भोजन तो जिस शरीर को जला दिया जाता है उसको पोषण देता है। इस प्राकृत भोजन की इनको आवश्यकता नहीं है, इनको वास्तविक भोजन की आवश्यकता है। मृत्यु जिसकी तरफ झाँक भी नहीं सकती, ये ऐसा भोजन करना चाहते हैं। सत्संग देकर, अलौकिक आत्मज्ञान का भोजन देकर क्या तुम इनकी भूख मिटा सकते हो ?”

“पिता जी ! आप लोगों की कृपा होगी तो ब्राह्मणदेव जरूर तृप्त हो जायेंगे। आप अपना नित्यकर्म कीजिये। ब्राह्मण तृप्त होंगे, मुझे भरोसा है।”

कमठ ने नम्रतापूर्वक कहाः “प्रकृति आदि 24 तत्वों से बने इस शरीर को जो तृप्त करता है वह प्राकृत भोजन कहलाता है। प्राकृत भोजन मीठा, खट्टा, खारा, कड़वा, कषाय तथा तीखा – इन छः प्रकार के रसों वाला पाँच भेदों वाला होता है – भक्ष्य (जो खाया जा सके), भोज्य, पेय (पीने योग्य तरल वस्तु जैसे पानी दूध), लेह्य (जो पदार्थ चाटकर खाया जा सके) तथा चोष्य (चूसने योग्य)। दूसरा भोजन वह है जो आत्मा को तृप्त करे। आत्मा ही परम है अतः उसे तृप्त करने वाला भोजन वास्तविक (परम) भोजन है।”

8 वर्ष के छोटे बालक के मुख से ऐसी महत्वपूर्ण बात सुनकर ब्राह्मण वेशधारी भगवान सूर्यदेव मन ही मन बड़े प्रसन्न हुए और पूछाः “जीव कैसे उत्पन्न होता है ?”

कमठ ने कहाः “ब्रह्मण ! जीव के जन्म लेने में तीन प्रकार के कर्म कारण होते हैं – सात्विक, राजस और तामस। जो सात्विक कर्म करते हैं उनका स्वभाव सात्विक होने लगता है और सात्विक स्वभाव वाले स्वर्ग आदि ऊँचे लोकों में जाते हैं। वहाँ सुख भोगते हैं, फिर बाद में अच्छे कुल में मनुष्यरूप में आ जाते हैं। उनमें मैत्री, करूणा, मुदिता, उदारता और सत्य की खोज की थोड़ी बहुत जिज्ञासा रहती है।

राजसी कर्म करने वाले का स्वभाव राजसी हो जाता है। उनमें काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मात्सर्य के अंश होते हैं। वे रजस में तो प्रायः रहते ही हैं पर कभी उनका सत्व की तरफ झुकाव होता है तो कभी तमस की तरफ झुकाव होता है। वे सुख-दुःख की खिचड़ी खाते भी रहते हैं और पकाते भी रहते हैं। वे जब मरते हैं तो फिर इस लोक में साधारण घऱ में जन्म लेते हैं और फिर जैसा संग मिलता है, वैसा उनका स्वभाव और समझ बन जाती है, वैसा ही उनको जगत दिखने लगता है।

जो मन को छूट दे देते हैं, नीचे के केन्द्रों में अधिक जीते हैं वे तामसी स्वभाव के लोग जीवन के दिन ऐसे ही बरबाद कर देते हैं। तमोगुणी (पापी) लोग पहले नरक में जाकर नाना प्रकार के कष्ट भोगते हैं फिर वृक्ष आदि अधम योनियों को प्राप्त होते हैं। कई  वर्षों तक वे दुःख भोगते हैं, आँधी-तूफान सहते हैं। इसके बाद ऐसे अभागे लोग कीड़े-मकोड़े, पशु-पक्षी आदि होते हुए अंत में फिर मनुष्य योनि में आते हैं लेकन वे दुर्बुद्धि होते हैं।

मनुष्य अपने-आपका मित्र भी है और शत्रु भी। अगर तमस व रजस को दबाकर सत्वगुण में नहीं जाता और सत्व से परे गुणातीत नहीं होता तो उसको कोई बचा नहीं सकता। अगर गुणातीत हो जाय तो उसको कोई गिरा नहीं सकता, कोई मार नहीं सकता। वहाँ तो मौत की भी मौत हो जाती है। वह अकाल पुरुष हो जाता है।”

कमठ ने इस प्रकार का तत्व निरूपण किया तो ब्राह्मण वेशधारी भगवान सूर्यनारायण चित्त में बड़े प्रसन्न हुए कि ‘नारदजी के सत्संग कोयहाँ के लोगों ने पचाया है।’ सूर्यनारायण ने अपना परिचय देकर उनसे वरदान माँगने को कहा। यह जानकर ब्राह्मणों को अत्यन्त आनंद हुआ कि साक्षात् भुवनभास्कर अपने यहाँ पधारे हैं। उन्होंने अर्घ्य देकर उनका पूजन किया और  वरदान माँगा कि “हे प्रभु ! आप हमारे इस स्थान का कभी त्याग न करें।”

भगवान सूर्य ने कहाः “तथास्तु ! मैं यहाँ ‘जयादित्य’ नाम से सदा निवास करूँगा।”

कमठ ने सूर्य भगवान की स्तुति की तो सूर्य भगवान प्रसन्न होकर बोलेः “वत्स ! तुमने मुझे पूर्ण संतुष्ट किया है, अतः तुम्हें वर देता हूँ कि इस पृथ्वी पर तुम सर्वज्ञ होकर मोक्ष को प्राप्त कर लोगे।”

आठ वर्ष का बालक पवित्र माहौल में जन्मता है, रहता है तो आत्मसाक्षात्कार को उपलब्ध हो जाता है। उसकी वाणी सुनकर भुवनभास्कर भी तृप्त हो जाते हैं। बच्चे-बच्चियाँ बुरे चलचित्र देखकर बुराई की तरफ चल पड़ते हैं। अमेरिका में एक किशोर ने 7 सहपाठियों को गोली से उड़ा दिया। कहीं 3 को उड़ा दिया। पूछने पर पता चला कि चलचित्रों का असर, फिल्मों का असर ! अतः बच्चे-बच्चियों को गंदे दृश्यों और गलत संग से, किस्से कहानियों से बचाकर ऊँचे साधन हेतु प्रोत्साहित करके ऊँचे आदमी बनाओ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2014, पृष्ठ संख्या 8, अंक 263

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

यदि सजग नहीं हुए तो…..


तीन दशक पूर्व राष्ट्र विरोधी ताकतों ने कूटनीतिपूर्वक देशवासियों को भ्रमित करके ऐसी स्थिति उत्पन्न की जिससे दहेज कानून को सख्त करके 498 ए को लागू किया जा सके। नतीजा यह आया कि इसका अंधाधुंध दुरुपयोग होने लगा और 12 साल के बच्चे से लेकर वृद्धों तक लाखों निर्दोष सलाखों के पीछे पहुँच गये। आखिर सर्वोच्च न्यायालय को आदेश जारी करना पड़ा कि ‘दहेज मामले में गिरफ्तारी जाँच के बाद ही हो।’

इसी प्रकार दामिनी प्रकरण के बाद बने नये रेप कानूनों का भी दुरुपयोग हो रहा है। इस बात को देश के गणमान्य व्यक्तियों तथा न्यायालय ने भी स्वीकारा है। एक मामले की सुनवाई करते हुए अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश कामिनी लाउ ने कहाः “महिलाओं के प्रति अपराध से संबंधित कानूनों के दुरुपयोग पर अंकुश लगाने की आवश्यकता है।”

पूर्व केन्द्रीय मंत्री कपिल सिब्बल ने कहाः “आईपीसी की धारा 376 (रेप कानून) का दहेज उत्पीड़न से संबंधित धारा 498 ए की तरह ही गलत इस्तेमाल हो रहा है।”

एक पूर्व मुख्यमंत्री भी इस सत्य को स्वीकारते हुए बोलेः “देश में बलात्कार रोधी कानून का दुरुपयोग हो रहा है।”

निर्दोष आम नागरिकों से लेकर राष्ट्रहितैषी संत, वरिष्ठतम न्यायाधीश, मंत्री, आला अधिकारी आदि सभी इस कानून के शिकार हो रहे हैं। इसके अनेक उदाहरण ‘ऋषि प्रसाद’ पत्रिका के पिछले कई अंकों में प्रकाशित हुए हैं। कुछ अन्य उदाहरण-

नाबालिग ने लगवायी पड़ोसी पर पाक्सो की धारा

जोधपुर में एक पड़ोसी युवक ने 8वीं कक्षा की एक छात्रा को एक लड़के के साथ भागते हुए देखा था। परिजनों से इस बात को छुपाने के लिए छात्रा ने पड़ोसी युवक पर दुष्कर्म का आरोप लगाया। पुलिस ने युवक के खिलाफ पॉक्सो एक्ट की धारा भी लगा दी। लड़की ने बाद में सच्चाई स्वीकार की, युवक निर्दोष साबित हुआ।

एक केन्द्रीय मंत्री पर भी एक महिला ने बलात्कार का आरोप लगाया था। कड़ी छानबीन के बाद पता चला कि यह षडयन्त्र माफियाओं ने रचा था।

देश व संस्कृति की सेवा में अपना सारा जीवन लगाने वाले तथा करोड़ों लोगों के जीवन में संयम-सदाचार का संचार करने वाले संत पूज्य बापू जी को भी इसी प्रकार कानून का दुरुपयोग कर बिना किसी तथ्य व सबूत के सुनियोजित षडयंत्र के तहत जेल भेजा गया है।

इसके पहले भी समलैंगिकता, अंधश्रद्धा उन्मूलन कानून, लक्षित हिंसा बिल आदि ऐसे कानून बनाने का प्रयत्न किया गया, जिनके माध्यम से भारतीय संस्कृति को तहस-नहस किया  जा सके।

भारतीय संस्कृति को बचाने के लिए आवश्यकता है सजग होकर इन देश विरोधी ताकतों के मंसूबों को नाकामयाब करने की। देश की जागरूक जनता किसी के बहकावे में न आकर सच्चाई को समझे और ऐसे कानूनों में जल्द से जल्द सुधार की माँग करे। यदि अब भी सजग नहीं हुए तो कल आप भी इसके शिकार हो सकते हैं !

श्री आर.सी. मिश्र

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2014, पृष्ठ संख्या 6, अंक 263

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ