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आत्मसूर्य की ओर………..


(मकर सक्रान्तिः 14 व 15 जनवरी 2015)

मकर सक्रान्ति अर्थात् उत्तरायण महापर्व के दिन से अंधकारमयी रात्रि छोटी होती जायेगी और प्रकाशमय दिवस लम्बे होते जायेंगे। हम भी इस दिन दृढ़ निश्चय करें कि अपने जीवन में से अंधकारमयी वासना की वृत्ति को कम करते जायेंगे और सेवा तथा प्रभुप्राप्ति की सद् वृत्ति को बढ़ाते जायेंगे।

सम्यक् क्रांति का संदेश

मकर सक्रान्ति – ‘सम्यक् क्रान्ति’। वैसे समाज में क्रांति तो बहुत है, एक दूसरे को नीचे गिराओ और ऊपर उठो, मार-काट…. परंतु मकर सक्रान्ति बोलती है मार-काट नहीं, सम्यक् क्रान्ति। सबकी उन्नति में अपनी उन्नति, सबकी ज्ञानवृद्धि में अपनी ज्ञानवृद्धि, सबके स्वास्थ्य में अपना स्वास्थ्य, सबकी प्रसन्नता में अपनी प्रसन्नता। दूसरों को निचोड़कर आप प्रसन्न हो जाओगे तो हिटलर और सिकंदर का रास्ता है, कंस और रावण का रास्ता है। श्री कृष्ण की नाईं गाय चराने वालों को भी अपने साथ उन्नत करते हुए संगच्छध्वं संवदध्वं…. कदम से कदम मिलाकर चलो, दिल से दिल मिलाकर चलो। दिल से दिल मिलाओ माने विचार से विचार ऐसे मिलाओ कि सभी ईश्वरप्राप्ति के रास्ते चलें देर-सवेर और एक दूसरे को सहयोग करें।

उत्तरायण पर्व कैसे मनायें ?

इस दिन स्नान, दान, जप, तप का प्रभाव ज्यादा होता है। उत्तरायण के एक दिन पूर्व रात को भोजन थोड़ा कम लेना। दूसरी बात, उत्तरायण के दिन पंचगव्य का पान पापनाशक एवं विशेष पुण्यदायी माना गया है। त्वचा से लेकर अस्थि तक की बीमारियों की जड़ें पंचगव्य उखाड़ के फेंक देता है। पंचगव्य आदि न बना सको तो कम-से-कम गाय का गोबर, गोझरण, थोड़े तिल, थोड़ी हल्दी और आँवले का चूर्ण इनका उबटन बनाकर उसे लगा के स्नान करो अथवा सप्तधान्य उबटन से स्नान करो (पिसे हुए गेहूँ, चावल, जौ, तिल, चना, मूँग और उड़द से बना मिश्रण)। इस पर्व पर जो प्रातः स्नान नहीं करते हैं वे सात जन्मों तक रोगी और निर्धन रहते हैं। मकर सक्रान्ति के दिन सूर्योदय से पहले स्नान करने से दस हजार गौदान करने का फल शास्त्र में लिखा है और इस दिन सूर्यनारायण का मानसिक रूप से ध्यान करके मन ही मन उनसे आयु आरोग्य के लिए की गयी प्रार्थना विशेष प्रभावशाली होती है।

इस दिन किये गये सत्कर्म विशेष फलदायी होते हैं। इस दिन भगवान शिव को तिल, चावल अर्पण करने अथवा तिल, चावल मिश्रित जल से अर्घ्य देने का भी विधान है। उत्तरायण के दिन रात्रि का भोजन न करें तो अच्छा है लेकिन जिनको संतान है उनको उपवास करना मना किया गया है। इस दिन जो 6 प्रकार से तिलों का उपयोग करता है वह इस लोक और परलोक में वांछित फल को पाता हैः

पानी में तिल डाल के स्नान करना।

तिलों का उबटन लगाना।

तिल डालकर पितरों का तपर्ण करना, जल देना।

अग्नि में तिल डालकर यज्ञादि करना।

तिलों का दान करना।

तिल खाना।

तिलों की महिमा तो है लेकिन तिल की महिमा सुनकर अति तिल भी न खायें और रात्रि को तिल और तिलमिश्रित वस्तु खाना वर्जित है।

सूर्य उपासना करें

ॐ आदित्याय विद्महे भास्कराय धीमहि। तन्नो भानुः प्रचोदयात्। इस सूर्यगायत्री के द्वारा सूर्यनारायण को अर्घ्य देना विशेष लाभकारी माना गया है अथवा तो ॐ सूर्याय नमः। ॐ रवये नमः।…. करके भी अर्घ्य दे सकते हैं।

आदित्य देव की उपासना करते समय अगर सूर्यगायत्री का जप करके ताँबे के लोटे से जल चढ़ाते हैं और चढ़ा हुआ जल जिस धरती पर गिरा, वहाँ की मिट्टी का तिलक लगाते हैं तथा लोटे में 6 घूँट बचाकर रखा हुआ जल महामृत्युञ्जय मंत्र का जप करके पीते हैं तो आरोग्य की खूब रक्षा होती है। आचमन लेने से पहले उच्चारण करना होता हैः

अकालमृत्युहरणं सर्वव्याधिविनाशनम्।

सूर्यपादोदकं तीर्थं जठरे धारयाम्यहम्।।

अकाल मृत्यु को हरने वाले सूर्यनारायण के चरणों का जल मैं अपने जठर में धारण करता हूँ। जठर भीतर के सभी रोगों को और सूर्य की कृपा से बाहर के शत्रुओं, विघ्नों, अकाल मृत्यु आदि को हरे।

भीष्म पर्व

भीष्म पितामह संकल्प करके 58 दिनों तक शरशय्या पर पड़े रहे और उत्तरायण काल का इंतजार किया था। बाणों की पीड़ा सहते हुए भी प्राण न त्यागे और पीड़ा के साक्षी बने रहे।

भीष्म पितामह से राजा युधिष्ठिर प्रश्न करते हैं और भीष्म पितामह शर-शय्या पर लेटे-लेटे उत्तर देते हैं। कैसी समता है इस भारत के वीर की ! कैसी बहादुरी है तन की, मन की और परिस्थितियों के सिर पर पैर रखने की ! कैसी हमारी संस्कृति है ! क्या विश्व में कोई ऐसा दृष्टांत सुना है ?

उत्तरायण उस महापुरुष के सुमिरन का दिवस भी है और अपने जीवन में परिस्थितिरूपी बाणों की शय्या पर सोते हुए भी समता, ज्ञान और आत्मवैभव को पाने की प्रेरणा देने वाला दिवस भी है। दुनिया की कोई परिस्थिति तुम्हारे वास्तविक स्वरूप – आत्मस्वरूप को मिटा नहीं सकती। मौत भी जब तुम्हारे को मिटा नहीं सकती तो ये परिस्थितियाँ क्या तुम्हें मिटायेंगी !

हमें मिटा सके ये जमाने में दम नहीं।

हमसे जमाना है, जमाने से हम नहीं।।

यह भीष्म जी ने कर दिखाया है।

उत्तरायण का पावन संदेश

सूर्यदेव आत्मदेव के प्रतीक हैं। जैसे आत्मदेव मन को, बुद्धि को, शरीर को, संसार को प्रकाशित करते हैं, ऐसे ही सूर्य पूरे संसार को प्रकाशित करता है। लेकिन सूर्य को भी प्रकाशित करने वाला तुम्हारा आत्मसूर्य (आत्मदेव) ही है। यह सूर्य है कि नहीं, उसको जानने वाला कौन है ? ‘मैं’।

उत्तरायण का मेरा संदेश है कि आप सुबह नींद में से उठो तो प्रीतिपूर्वक भगवान का सुमिरन करना कि ‘भगवान ! हम जैसे भी हैं, आपके हैं। आप ‘सत्’ हैं, तो हमारी मति में सत्प्रेरणा दीजिये ताकि हम गलत निर्णय करके दुःख की खाई में न गिरें। गलत कर्म करके हम समाज, कुटुम्ब, माँ-बाप, परिवार, आस-पड़ोस तथा औरों के लिए मुसीबत न खड़ी करें।’ ऐसा अगर आप संकल्प करते हैं तो भगवान आपको बहुत मदद करेंगे। भगवान उन्हीं को मदद करते हैं जो भगवान को प्रार्थना करते हैं, भगवान को प्रीति करते हैं। और भगवान के प्यारे संतों का सत्संग सुनने के लिए वे ही लोग आ सकते हैं जिन पर भगवान की कृपा होती है।

बिन हरिकृपा मिलहिं नहिं संता।

(रामायण)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2014, पृष्ठ संख्या 12,13 अंक 264

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सर्दियों के लिए बल व पुष्टि का खजाना


रात को भिगोई हुई 1 चम्मच उड़द की दाल सुबह महीन पीसकर उसमें 2 चम्मच शुद्ध शहद मिला के चाटें। 1,1.30 घंटे बाद मिश्रीयुक्त दूध पियें। पूरी सर्दी यह प्रयोग करने से शरीर बलिष्ठ और सुडौल बनता है तथा वीर्य की वृद्धि होती है।

दूध के साथ शतावरी का 2-3 ग्राम चूर्ण लेने से दुबले पतले व्यक्ति, विशेषतः महिलाएँ कुछ ही दिनों में पुष्ट हो जाती हैं। यह चूर्ण स्नायू संस्थान को भी शक्ति देता है।

रात को भिगोई हुई 5-7 खजूर सुबह खाकर दूध पीना या सिंघाड़े का देशी घी में बना हलवा खाना शरीर के लिए पुष्टिकारक है।

रोज रात को सोते समय भुनी हुई सौंफ खाकर पानी पीने से दिमाग तथा आँखों की कमजोरी में लाभ होता है।

आँवला चूर्ण, घी तथा शहद समान मात्रा में मिलाकर रख लें। रोज सुबह एक चम्मच खाने से शरीर के बल, नेत्रज्योति, वीर्य तथा कांति में वृद्धि होती है। हड्डियाँ मजबूत बनती हैं।

100 ग्राम अश्वगंधा चूर्ण को 20 ग्राम घी में मिलाकर मिट्टी के पात्र में रख दें। सुबह 3 ग्राम चूर्ण दूध के साथ नियमित लेने से कुछ ही दिनों में बल वीर्य की वृद्धि होकर शरीर हृष्ट-पुष्ट बनता है।

शक्तिवर्धक खीरः

3 चम्मच गेहूँ का दलिया व 2 चम्मच खसखस रात को पानी में भिगो दें। प्रातः इसमें दूध और मिश्री डालकर पकायें। आवश्यकतानुसार मात्रा घटा—बढ़ा सकते हैं। यह खीर शक्तिवर्धक है।

हड्डी जोड़ने वाला हलवाः गेहूँ के आटे में गुड़ व 5 ग्राम बला चूर्ण डाल के बनाया गया हलवा (शीरा) खाने से टूटी हुई हड्डी शीघ्र जुड़ जाती है। दर्द में भी आराम होता है।

अपनायें आरोग्यरक्षक शक्तिवर्धक उपाय

सर्दियों में हरी अथवा सूखी मेथी का सेवन करने से 80 प्रकार के वायु रोगों में लाभ होता है।

सब प्रकार के उदर रोगों में मट्ठे और देशी गाय के मूत्र का सेवन अति लाभदायक है।

(गोमूत्र न मिल पाये तो गोझरण अर्क का उपयोग कर सकते हैं।)

भयंकर कमरदर्द और स्लिप्ड डिस्क का अनुभूत प्रयोग

ग्वारपाठे (घृतकुमारी) का छिलका उतारकर गूदे को कुचल के बारीक पीस लें। आवश्यकतानुसार आटा लेकर उसे देशी घी में गुलाबी होने तक सेंक लें। फिर उसमें ग्वारपाठे का गूदा मिलाकर सेंकें। जब घी छूटने लगे तब उसमें पिसी मिश्री मिला के 20-20 ग्राम के लड्डू बना लें। आवश्यकतानुसार तीन-चार सप्ताह तका रोज सुबह खाली पेट एक लड्डू खाते रहने से भयंकर कमरदर्द समाप्त हो जाता है।

सावधानीः देशी ग्वारपाठे का ही उपयोग करें, हाइब्रिड नहीं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2014, पृष्ठ संख्या 28, अंक 263

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समत्वयोग की शक्ति व जीते जी मुक्ति की युक्ति देती है ‘गीता’ – पूज्य बापू जी


गीता जयन्ती – 2 दिसम्बर 2014

हरि सम जग कछु वस्तु नहीं, प्रेम पंथ सम पंथ।

सदगुरु सम सज्जन नहीं, गीता सम नहिं ग्रंथ।।

सम्पूर्ण विश्व में ऐसा कोई ग्रन्थ नहीं जिसकी ‘श्रीमद् भगवदगीता’ के समान जयंती मनायी जाती हो। मार्गशीर्ष के शुक्ल पक्ष की एकादशी को कुरुक्षेत्र के मैदान में रणभेरियों के बीच योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को निमित्त बनाकर मनुष्यमात्र को गीता के द्वारा परम सुख, परम शान्ति प्राप्त करने का मार्ग दिखाया। गीता का ज्ञान जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति देने वाला है। गीता जयंती मोक्षदा एकादशी के दिन मनायी जाती है।

इस छोटे से ग्रंथ में जीवन की गहराइयों में छिपे हुए रत्नों को पाने की ऐसी कला है जिसे प्राप्त कर मनुष्य की हताशा-निराशा एवं दुःख-चिंताएँ मिट जाती है। गीता का अदभुत ज्ञान मानव को मुसीबतों के सिर पर पैर रख के उसके अपने परम वैभव को, परम साक्षी स्वभाव को, आत्मवैभव को प्राप्त कराने की ताकत रखता है। यह बीते हुए का शोक मिटा देता है। भविष्य का भय और वर्तमान की आसक्ति ज्ञान प्रकाश से छू हो जाती है। आत्मरस, आत्मसुख सहज प्राप्त हो जाता है। हम हैं अपने आप, हर परिस्थिति के बाप ! यह दिव्य अनुभव, अपने दिव्य स्वभाव को जगाने वाली गीता है। ॐॐ… पा लो इस प्रसाद को, हो जाओ भय, चिंता, दुःख से पार !

गीता भगवान के अनुभव की पोथी है। वह भगवान का हृदय है। गीता के ज्ञान से विमुख होने के कारण ही आज का मानव दुःखी एवं अशांत है। दुःख एवं शोक से व्याकुल व्यक्ति भी गीता के दिव्य ज्ञान का अमृत पी के शांतिमय, आनंदमय जीवन जीकर मुक्तात्मा, महानात्मा स्वभाव को जान लेता है, जो वह वास्तव में है ही, गीता केवल जता देती है।

ज्ञान प्राप्ति की परम्परा तो यह है कि जिज्ञासु किसी शांत-एकांत व धार्मिक स्थान में जाकर रहे परंतु गीता ने तो गजब कर दिया ! युद्ध के मैदान में अर्जुन को ज्ञान की प्राप्ति करा दी। अरण्य की गुफा में धारणा, ध्यान, समाधि करने पर एकांत में ध्यानयोग प्रकट होता है परंतु गीता ने युद्ध के मैदान में ज्ञानयोग प्रकट कर दिया ! भगवान श्रीकृष्ण ने गीता के माध्यम से अरण्य की विद्या को रणभूमि में प्रकट कर दिया, उनकी कितनी करूणा है !

आज के चिंताग्रस्त, अशांत मानव को गीता के ज्ञान की अत्यंत आवश्यकता है। भोग-विलास के आकर्षण व कूड़-कपट से प्रभावित होकर पतन की खाई में गिर रहे समाज को गीता ज्ञान सही दिशा में दिखाता है। उसे मनुष्य जन्म के परम लक्ष्य ईश्वरप्राप्ति, जीते जी ईश्वरीय शांति एवं अलौकिक आनंद की प्राप्ति तक सहजता से पहुँचा सकता है। अतः मानवता का कल्याण चाहने वाले पवित्रात्माओं को गीता-ज्ञान घर-घर तक पहुँचाने में लगना चाहिए।

वेदों की दुर्लभ एवं अथाह ज्ञानराशि को सर्वसुलभ बनाकर अपने में सँजोने वाला गीता ग्रंथ बड़ा अदभुत है ! मनुष्य के पास 3 ईश्वरीय शक्तियाँ मुख्य रूप से होती हैं। पहली करने की शक्ति, दूसरी मानने की शक्ति तथा तीसरी जानने की शक्ति। अलग-अलग मनुष्यों में इन शक्तियों का प्रभाव भी अलग-अलग होता है। किसी के पास कर्म करने का उत्साह है, किसी के हृदय में भावों की प्रधानता है तो किसी को कुछ जानने की जिज्ञासा अधिक है। जब ऐसे तीनों प्रकार के व्यक्ति मनुष्य जन्म के वास्तविक लक्ष्य ईश्वरप्राप्ति के लिए प्रयत्न करते हैं तो उन्हें उनकी योग्यता के अनुकूल साधना की आवश्यकता पड़ती है। श्रीमद भगवदगीता एक ऐसा अदभुत ग्रंथ है जिसमें कर्मयोग, भक्तियोग और ज्ञानयोग तीनों की साधनाओं का समावेश है।

लोकमान्य तिलक एवं गाँधीजी ने गीता से कर्मयोग को लिया, रामानुजाचार्य एवं मध्वाचार्य आदि ने इसमें भक्तिरस को देखा तथा श्री उड़िया बाबा जैसे श्रोत्रिय ब्रह्मवेत्ताओं ने इसके ज्ञान का प्रकाश फैलाया। संत ज्ञानेश्वर महाराज, साँईं श्री लीलाशाह जी महाराज एवं अन्य कुछ महापुरुषों ने गीता में सभी मार्गों की पूर्णता को देखा।

गीता किसी मत मजहब को चलाने वाले के द्वारा नहीं कही गयी है अपितु जहाँ से सारे मत मजहब उपजते हैं और जिसमें लीन हो जाते हैं उस आदि सत्ता ने मानवमात्र के कल्याण के लिए गीता सुनायी है। गीता के किसी भी श्लोक में किसी भी मत मजहब की निंदा-स्तुति नहीं है।

गीता के ज्ञानामृत के पान से मनुष्य के जीवन में साहस, समता, सरलता, स्नेह, शांति, धर्म आदि दैवी गुण सहज ही विकसित हो उठते हैं। अधर्म, अन्याय एवं शोषकों का मुकाबला करने का सामर्थ्य आ जाता है। निर्भयता आदि दैवी गुणों को विकसित करने वाला, भोग एवं मोक्ष दोनों ही प्रदान करने वाला यह गीता ग्रंथ पूरे विश्व में अद्वितिय है। अर्जुन को जितनी गीता की जरूरत थी उतनी, शायद उससे भी ज्यादा आज के मानव को उसकी जरूरत है। यह मानवमात्र का मंगलकर्ता ग्रंथ है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2014, पृष्ठ संख्या 14,15 अंक 263

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