गुरु और भगवान का बंधन, बंधन नहीं है, वह तो प्रेम से, धर्म से, स्वयं अपनी मर्जी से स्वीकारा गया ज्ञान-प्रकाशदायी अनुशासन है। विकारों के बंधन से छूटने के लिए शास्त्र, गुरु और भगवान के बंधन में रहना हजारों स्वतंत्रताओं से ज्यादा हितकारी है।
मैं गुरु के बंधन में रहा। दाढ़ी बाल तब छँटवाता जब गुरु जी की आज्ञा आती, ऐसा बंधन मैंने स्वयं स्वीकार क्या था। सत्य का बंधन स्वीकार किया, वह बाँधता नहीं मुक्त कर देता है। अगर गुरु जी की कृपा का बंधन मैं स्वीकार नहीं करता और उनकी आज्ञा का उल्लंघन कर देता तो मैं विकारों के बंधन में आ जाता लेकिन उनका आज्ञा का पालन किया तो करोड़ो लोगों की सेवा करने में गुरु महाराज मुझे सफल कर रहे हैं, निमित्त बना रहे हैं। यह प्रत्यक्ष है।
मैंने बंधन स्वीकार किया लेकिन बंधन रहा नहीं, हृदय में मुक्तात्मा गुरु प्रकट हो गये। तो गुरु की आज्ञा पालना यह बंधन नहीं है, सारे बंधनों से मुक्त करने वाला तोहफा है। गुरु की अधीनता को छोड़कर चल दिये तो वे स्वतंत्र नहीं हैं, महापराधीन हैं, मन व इन्द्रियों के विकारों के अधीन हो जाते हैं। जिन्हें सदगुरु मिले हैं वे परम स्वतंत्रता का राजमार्ग पा चुके हैं, उन्हें बधाई हो !
स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2015, पृष्ठ संख्या 26, अंक 266
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