कई लोग कहते हैं कि माला करते करते नींद आने लगती है तो क्या करें ? सतत माला नहीं होती तो आप सेवा करें, सत्शास्त्र पढ़ें। मन बहुआयामी है तो उसको उस प्रकार की युक्तियों से संभाल के चलाना चाहिए। कभी जप किया, कभी ध्यान किया, कभी स्मरण किया, कभी सेवा की – इस प्रकार की सत्प्रवृत्तियों में मन को लगाये रखना चाहिए।
साधक यदि इन 6 बातों को अपनाये तो साधना में बहुत जल्दी प्रगति कर सकता हैः
व्यर्थ का बातों में समय न गँवायें। व्यर्थ की बातें करेंगे सुनेंगे तो जगत की सत्यता दृढ़ होगी, जिससे राग-द्वेष की वृद्धि होगी और चित्त मलिन होगा। अतः राग द्वेष से प्रेरित होकर कर्म न करें।
सेवाकार्य तो करें लेकिन राग-द्वेष से प्रेरित होकर नहीं अपितु दूसरे को मान देकर, दूसरे को विश्वास में लेकर सेवाकार्य करने से सेवा भी अच्छी तरह से होती है और साधक की योग्यता भी निखरती है। भगवान श्रीरामचन्द्रजी औरों को मान देते और आप अमानी रहते थे। राग-द्वेष में शक्ति का व्यय न हो इसकी सावधान रखते थे।
अपना उद्देश्य ऊँचा रखें। भगवान शंकर के श्वशुर दक्ष प्रजापति को देवता लोग तक नमस्कार करते थे। ऋषि मुनि भी उनकी प्रशंसा करते थे। सब लोकपालों में वे वरिष्ठ थे। एक बार देवताओं की सभा में दक्ष प्रजापति के जाने पर अन्य देवों ने खड़े होकर उनका सम्मान किया लेकिन शिवजी उठकर खड़े नहीं हुए तो दक्ष प्रजापति को बुरा लग गया कि दामाद होने पर भी शिवजी ने उनका सम्मान क्यों नहीं किया ?
इस बात से नाराज हो शिवजी को नीचा दिखाने के लिए दक्ष प्रजापति ने यज्ञ करवाया। यज्ञ में अन्य देवताओं के लिए आसन रखे गये लेकिन शिवजी के लिए कोई आसन न रखा गया। यज्ञ करना तो बढ़िया है लेकिन यज्ञ का उद्देश्य शिवजी को नीचा दिखाने का था तो उस यज्ञ का ध्वंस हुआ एवं दक्ष प्रजापति की गर्दन कटी। बाद में शिवजी की कृपा से बकरे की गर्दन उनको लगायी गयी। अतः अपना उद्देश्य सदैव ऊँचा रखें।
जो कार्य करें, उसे कुशलता से पूर्ण करें। ऐसा नहीं कि कोई विघ्न आया और काम छोड़ दिया। यह कायरता नहीं होनी चाहिए। योगः कर्मसु कौशलम्। योग वही है जो कर्म में कुशलता लाये।
कर्म तो करें लेकिन कर्तापने का गर्व न आये और लापरवाही से कर्म बिगड़े नहीं, इसकी सावधानी रखें। यही कर्म में कुशलता है। सबके भीतर बहुत सारी ईश्वरीय सम्पदा छिपी है। उस सम्पदा को पाने के लिए सावधान रहना चाहिए, सतर्क रहना चाहिए।
जीवन में केवल ईश्वर को महत्त्व दें। सब में कुछ-न-कुछ गुण दोष होते ही हैं। ज्यों-ज्यों साधक संसार को महत्त्व देगा त्यों-त्यों दोष बढ़ते जायेंगे और ज्यों-ज्यों ईश्वर को महत्त्व देगा त्यों-त्यों सदगुण बढ़ते जायेंगे।
साधक का व्यवहार व हृदय पवित्र होना चाहिए। लोगों के लिए उसका जीवन ही आदर्श बन जाये, ऐसा पवित्र आचरण होना चाहिए।
इन 6 बातों को अपने जीवन में अपना कर साधक अपने लक्ष्य को पाने में अवश्य कामयाब हो सकता है। अतः लक्ष्य ऊँचा हो। मुख्य कार्य और अवांतर कार्य भी उसके अनुरूप हों।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2015, पृष्ठ संख्या 19, अंक 266
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