(‘मीडिया ट्रायल एंड इट्स इम्पैक्ट ऑन सोसायटी एंड ज्यूडिशियल सिस्टम विषय पर राजस्थान उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश सुनील अम्बवानी के व्याख्यान के सम्पादित अंश, संदर्भः राजस्थान पत्रिका’)
‘व्हॉट इज़ ए फेयर ट्रायल ?’ (निष्पक्ष ट्रायल क्या है ?) हर आरोपित को फेयर (निष्पक्ष) ट्रायल का अधिकार है। निष्पक्ष ट्रायल से मतलब है किसी भी अपराध की पुलिस या अन्य किसी एजेंसी जैसे सीबीआई, सीआईडी द्वारा निष्पक्ष जाँच-पड़ताल, आरोप-पत्र बनाने का पारदर्शी और स्वच्छ तरीका, रिपोर्ट में विश्वसनीय और मानने योग्य सबूत, आरोपित का बचाव करने का अधिकार, सबूतों को जानने और क्रॉस एग्जामिन करने का अधिकार, अपना पक्ष रखने का अधिकार। ये सभी निष्पक्ष ट्रायल के मुख्य बिंदु हैं। अगर कोई इन चीजों में दखलंदाजी करता है तो वह न्याय-प्रक्रिया में दखलंदाजी मानी जाती है। यहाँ न्याय-प्रक्रिया का अर्थ ही स्वतंत्र और निष्पक्ष ट्रायल है।
अगर कोई आरोपी सम्माननीय है तो उसके सम्मान का क्या ? आप जानते हैं कि न्याय-सिद्धान्त है कि चाहे हजार दोषी छूट जायें पर एक निर्दोष को सज़ा नहीं होनी चाहिए। यह भी सिद्धान्त है कि संदेह के आधार पर सज़ा हो। मीडिया के कारण न्यायाधीश सुपरविजन के प्रभाव में आ जाता है। अगर कोई विश्वसनीय सबूत न हो और वह केस खारिज कर देता है तो मानो फँस गया क्योंकि वह अपने मित्रों और साथियों की नजर में दोषी है। सुनने को मिलता है, ‘अरे, तुमने उसको छोड़ दिया !’ आप बिना विश्वसनीय, प्रामाणिक और उचित सबूतों के आधार पर किसी को दोषी तो नहीं ठहरा सकते, जो आपके सिद्धान्तों में है। जब तक लोगों की मान्यता नहीं बनी है तब तक वह न्यायाधीश किसी से नहीं डरता है। लेकिन मीडिया कई मामलों में पहले ही सही-गलत की राय बना चुका होता है। इससे न्यायाधीश पर दबाव बन जाता है कि एक व्यक्ति जो जनता की नजर में दोषी है, उसको अब दोषी ठहराने की जरूरत है। न्यायाधीश भी मानव है। वह भी इनसे प्रभावित होता है। (संकलकः श्री इन्द्र सिंह राजपूत)
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2015, पृष्ठ संख्या 7, अंक 268
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