संत की दयालुता और प्रकृति की न्यायप्रियता

Rishi Prasad 270 Jun 2015

संत की दयालुता और प्रकृति की न्यायप्रियता


एक बार अक्कलकोट (महाराष्ट्र) वाले श्री स्वामी समर्थ जंगल में एक वृक्ष के नीचे आत्मानंद की मस्ती में बैठे थे। आसपास हिरण घास चर रहे थे। इतने में कुछ शिकारी आ गये। उन्हें देखते ही हिरण संत की शरण में आ गये। संत ने प्रेम से हिरणों को सहलाया। उनमें हिरण-हिरणी के अलावा उनके दो बच्चे भी थे। स्वामी जी ने हिरण दम्पत्ति को पूर्वजन्म का स्मरण कराते हुए कहाः “अरे ! तुम लोग पुर्वजन्म में गाणगापुर (कर्नाटक) में ब्राह्मण थे। यह हिरणी तुम्हारी नारी थी, तुम्हारा भरा पूरा घर था, लेकिन तुमने संतों को सताया था, उनकी निंदा की थी इसलिए तुम्हें इस पशुयोनि में जन्म मिला। जाओ, अब आगे कभी ऐसी भूल मत करना।” हयात संतों से जितना हो सके लाभ ले लेना चाहिए। उनका लाभ न ले सकें तो कम-से-कम उन्हें या उनके भक्तों को सताने का महापाप तो नहीं करना चाहिए। अन्यथा पशु आदि हलकी योनियों में जाना पड़ता है।
प्रकृति न्यायप्रिय होती है। उसका नियम है संत के निंदक को सज़ा। प्रकृति सज़ा देने में किसी को भी नहीं छोड़ती। आज नहीं तो कल, संतों के अपमान का फल दे ही देती है। अतः कभी भूलकर भी किसी संत महापुरुष का अपमान नहीं करना चाहिए। उनकी निंदा, आलोचना करने वाला अपने तथा अपने परिवार वालों को दुःखों और परेशानियों में ही डालता है।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2015, पृष्ठ संख्या 28, अंक 270
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