पूज्य बापू जी
एक घटना है स्वामी राम के जीवन की। एक तो हो गये स्वामी रामतीर्थ, जो टिहरी में रहते थे, जिन्होंने देश-परदेश में ब्रह्मज्ञान का डंका बजाया था। दूसरे हो गये स्वामी राम जिनका देहरादून में अभी आश्रम है। उनके गुरु बड़े उच्च कोटि के संत थे। स्वामी राम को गुरु ने आज्ञा दी कि “जाओ, दार्जीलिंग के श्मशान में 41 दिन साधना करो। 41वें दिन कुछ-न-कुछ हितकर घटना घटेगी।”
39 दिन पूरे हुए। मन में तर्क-वितर्क आया कि ’39 दिन और 41 में क्या फर्क होता है !’ घूमने में राग था, चल दिये। परंतु शिष्य को जिस दिन से ब्रह्मज्ञानी गुरु से दीक्षा मिल जाती है, उस दिन से गुरुकृपा हर क्षण उसके साथ होती है। गुरु उसकी निगरानी रखते हैं, उत्थान कराते हैं, गिरावट से बचाते हैं, खतरों से चेताते हैं और हर परिस्थिति में उसकी रक्षा करते हैं। संसार की झंझटों से तो क्या, जन्म-मरण से भी मुक्ति दिला देते हैं। शर्त केवल इतनी है कि शिष्य गुरु में दोषदर्शन, गुरु से गद्दारी करना वाला न हो।
स्वामी राम श्मशान से निकलकर आगे पहुँचे तो एक नर्तकी गीत गाये जा रही थी। तबले के बोल बजते थेः ‘धिक्-धिक्’ मानो कह रहे थे कि ‘तुझे धिक्कार है ! यह तुमने क्या किया ?’ वह फिर-फिर से दोहरा रही थीः
जीवनरूपी दीप में तेल बहुत थोड़ा है, जबकि रात्रि बहुत लम्बी है।
नर्तकी को तो पता नहीं था कि मैं साधु के लिए गा रही हूँ लेकिन उसके गीत ने स्वामी राम को प्रेरणा देकर फिर से साधना में लगा दिया।
स्वामी राम 39 दिन पूरे करके आधे में साधना छोड़ के जा रहे थे, वहीं खड़े हो गये। फिर श्मशान में वापस लौटे। 40वाँ दिन पूरा हुआ, 41वें दिन गुरु के कथनानुसार दिव्य स्फुरणाएँ और दिव्य अनुभव हुए।
स्वामी राम अपने को धनभागी मानते हुए 41वाँ दिन पुरा करके उस वेश्या के द्वार पर आ रहे थे तो वेश्या के कमरे से आवाज आयी “वहीं रुक जाओ। यह स्थान तुम्हारे लिए उपयुक्त नहीं है।” फिर भी स्वामी राम आगे बढ़े।
फिर से आवाज आयीः “हे साधु महाराज ! यहाँ मत आइये, वापस जाइये।” फिर भी वे चलते गये। उसने अपने नौकर को रोकने के लिए आदेश दिया। बड़ी कद्दावर मूँछों वाला नौकर आया, उसने भी कहाः “युवक स्वामी ! हमारी सेठानी मना कर रही है कि यह स्थान तुम्हारे लिए उपयुक्त नहीं है, फिर आप क्यों आते हो ?”
स्वामी राम बोलेः “सेठानी को कह दो कि इस माता ने अपने संगीत के द्वारा मेरे जीवन की राह रोशन की है। लोगों की नज़र में वह नर्तकी, वेश्या, ऐसी-वैसी दिखे लेकिन मैं तो उसे एक फिसलते हुए साधु को मार्गदर्शन देने वाली माता मानता हूँ। मैं उसको प्रणाम करना चाहता हूँ। माँ के चरणों में जाना किसी बालक के लिए मना नहीं हो सकता। मैं कृतघ्न न बनूँ इसलिए अपनी कृतज्ञता व्यक्त करने जा रहा हूँ।
अंदर से नौकर के लिए आवाज आयीः “इनको आने दीजिये, रोकिये मत।”
स्वामी राम ने उस वेश्या को प्रणाम किया, बोलेः “माँ ! मैं साधना अधूरी छोड़ के जा रहा था, गुरु के वचन का मोह-तोड़ के मनमाना जामा पहना रहा था। लेकिन तुम्हारे गीत ने मुझे प्रकाश दिया है। न जाने तुम्हारे गीत कितनों-कितनों को प्रकाश दे सकते हैं ! तुम अपने को हीन-दीन क्यों मानती हो ? तुम एक साधु की ही माँ नहीं, हजारों साधकों और हजारों साधुओं की भी माँ बन सकती हो तुममें ऐसी योग्यता है ! तुम्हारे गीत कितने सुंदर, सारगर्भित हैं !”
वेश्या की आँखों में चमक आ गयीः “वास्तव में मैं तुम्हारे जैसे संत की माँ और हजारों की माँ बनने के योग्य हूँ तो आज से मैं वही करूँगी। मैं अपने राग को भगवान के राग में बदलती हूँ। महाराज ! आपने मेरी आँखें खोल दीं।”
उस वेश्या ने अपनी कोठी और साज-समान लुटा दिये। काशी में जाकर गंगाजी में एक नाव में रहने लगी और साध्वी की दीक्षा ले ली। नाव में वह भगवान के गीत गाती। इतने मधुर गीत गाती कि गंगा किनारे आये हुए लोग उसको चारों तरफ से घेर लेते। उसने अपने नाव पर लिख रखा था कि ‘भूलकर भी मुझे साधु मत मानिये। मैं एक वेश्या थी। एक संत की सच्ची बात ने मुझे काशी की पवित्र रज तक पहुँचा दिया है। कृप्या ईश्वर के सिवाय कोई बात न करिये और मुझे प्रणाम करने की गलती न करिये।’ कीर्तन भजन करती और थोड़ी देर चुप होती। फिर कीर्तन-भजन करती और चुप होती, तो जो राग संसार में था वह भगवान में होता गया, वह शांति पाती गयी। जो द्वेष था वह भी कीर्तन-भजन से शांत हुआ। कुछ ही समय में वह वेश्या अंतरात्मा की ऊँची यात्रा में पहुँच गयी और उसने घोषणा की कि “कल प्रातःकाल मैं यह चोला छोड़कर अपने प्रेमास्पद परमात्मा की गोद में जाऊँगी। मेरे शरीर की कोई समाधि न बनाये और संत की नाई मेरे शरीर की कोई शोभायात्रा आदि न करे। मेरे शरीर को गंगाजी में प्रवाहित कर दें ताकि मछलियाँ आदि इसका उपयोग कर लें।”
दूसरे दिन प्रातःकाल भगवच्चिंतन करते हुए, जैसे योग की पराकाष्ठा पर स्थित योगी योगनिद्रा में समाहित होते हैं, ऐसे ही वह ‘हे भगवान ! हे प्रभु ! आनंद ॐ….’ करते हुए शांत हो गयी और शरीर छोड़ दिया।
उस वेश्या को पता ही नहीं था कि ‘मैं इस साधु के लिए गा रही हूँ’ लेकिन स्वामी राम ने अपना अनुभव सुनाया। वेश्या का हृदय उद्यम, साहस, धैर्य, बुद्धि, शक्ति और पराक्रम से भर गया। उसने अपनी दिव्यता को पहचाना, साधना में लग गयी, उत्तम साधकों की तरह शरीर त्यागा। यदि उसे ब्रह्मलोक की इच्छा होगी तो वहाँ समय बिताकर परम सुख की प्राप्ति के लिए – शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते। योगभ्रष्ट आत्मा उत्तम, पवित्र कुल में जन्म लेकर आत्मध्यान, सत्संग, सेवा-सान्निध्य पाकर जीवन्मुक्त हो जाता है। उसे लोक-लोकांतर में, जन्म-जन्मांतर में भटकना नहीं पड़ता। उसका तीव्र विवेक-वैराग्य बना रहा तो आत्मसाक्षात्कार भी कर लेगा।
गुरु शिष्य के कल्याण के लिए सब कुछ करते हैं। उनके अंदर निरंतर अदम्य स्नेह की धारा बहती रहती है। सत्शिष्य वही है जो गुरु के आदेश के मुताबिक चले। अतः गुरु के वचनों में कभी भी शंका नहीं करनी चाहिए। उनके वचनों में कोई भी अंतर्विरोध नहीं है। गुरुकृपा से सत्शिष्य एक दिन अपने अमरत्व का अनुभव कर लेता है और स्वामी राम की तरह वह स्वयं गुरु-पद पर आरूढ़ हो जाता है। और उस सत्शिष्य के सान्निध्य में आने वालों का भी कल्याण हो जाता है।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2015, पृष्ठ संख्या 22,23 अंक 271
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