जगन्नाथपुरी से लगभग दस कोस दूर पीपली नामक गाँव में रघु केवट नाम का एक जवान लड़का रहता था। घर में पत्नी और बूढ़ी माँ थी। रघु मछलियाँ पकड़ने का काम करता था लेकिन पूर्वजन्म के संस्कारों से रघु के हृदय में भगवान की भक्ति थी। मछली जब उसके जाल में फँस जाती और तड़पती तो उसका मन द्रवित हो जाता, वह सोचता, ‘मैं इसको दुःखी नहीं देख सकता, मैं यह धंधा नहीं करूँगा। यह अच्छा नहीं है पर पेट भरना है, क्या करें-बाप दादाओं का धंधा है !’ दूसरा कोई रास्ता न होने से छोड़ नहीं पाता था।
रघु ने एक संत से दीक्षा ले ली और सुबह-शाम गुरुमंत्र का जप करने लगा। अब तो उसने मछली पकड़ने के काम को छोड़ दिया। घर में जो अनाज था उसे 2-5 दिन खाया, जब खत्म हुआ तो फिर सोचा, ‘अब क्या करें? पत्नी भूखी, माँ भूखी…..’ तो भगवान के आगे रोया, ‘हे भगवान ! मैं यह पापकर्म नहीं करना चाहता लेकिन अब माँ भूखी रहेगी तो यह भी तो पाप है। मैं क्या करूँ ?’ पेट की ज्वाला तथा माँ और पत्नी के तिरस्कार से व्याकुल होकर रघु को फिर से जाल उठाना पड़ा। रघु मछली पकड़ने के लिए गया तो सही लेकिन मन में सोचता है, ‘यह अच्छा नहीं है, यह पाप है।’ बड़ा दुःखी होते-होते तट पर पहुँचा। समुद्र में जाल डाला और रोने लग गया। अपने अंतर्यामी परमात्मा को बोला, ‘प्रभु ! फिर वही काम करना पड़ रहा है। क्या तुम मेरे को इस काम से नहीं छुड़ा सकते ? तुम तो जन्म-मरण से छुड़ाते हो, दुःखों, चिंताओं से छुड़ाते हो। हे जगन्नाथ ! हे प्रभु !!’ वह अंतर्यामी भगवान समझ गया कि ‘यह पाप से बचना चाहता है। और किसको बोलेगा ? भगवान को ही बोलेगा। तो मैं इसकी रक्षा करूँगा।’ भगवान ने ऐसी लीला की कि एक लाल रंग वाली बड़ी मछली उसके जाल में फँसी। जाल खींचकर पानी से बाहर निकाला तो वह तड़पने लगी। रघु को हुआ कि ‘मैंने सत्संग में सुना है कि नर-नारी के अंतरात्मा नारायण है तो मछली में भी वे ही हैं।’ “तुम मछली के रूप में नारायण हो। अब मैं तुमको कैसे मारूँगा ? लेकिन छोड़ूँगा भी कैसे ? पेट भरना है न !”
अचानक मछली के मुँह से आवाज आयीः “हे नारायण ! मेरी रक्षा करो।”
‘मछली मनुष्य की भाषा में बोलती है !’ रघु चौंका।
मछली दूसरे छोटे से खड्ढे में डाल दी ताकि वह मरे भी नहीं, भागे भी नहीं। आँखें बंद करके बैठ गया। रघु भरे कंठ से बोलाः “मछली के भीतर से तुमने नारायण नाम सुनाया है, अब मैं तुम्हारा दर्शन किये बिना यहाँ से नहीं उठूँगा। हे नारायण ! मछली की भी रक्षा कर, मेरी भी रक्षा कर।”
रघु मछुआरा बड़ा विद्वान नहीं था लेकिन सरलता से भगवान के आगे रोया। रात बीत गयी, सुबह देखा तो मछली खड्ढे में है। उसने सोचा ‘अब इसको मारेंगे नहीं।’
एक दिन हो गया, दो दिन हो गये, तीसरा दिन हुआ, एक बूँद पानी तक उसके मुँह में नहीं गया। ‘नारायण ! नारायण !!’ पुकारकर कभी गिर जाय, कभी बैठे। परमात्मा तो जानता था कि यह मुझे पुकारता है। उस अंतर्यामी ईश्वर ने लीला की। भगवान एक ब्राह्मण के रूप में आकर बोलेः “ऐ मछुआरे ! यह क्या करता है ?”
रघु प्रणाम करके बोलाः “ब्राह्मण ! आपको क्या ? बातें करने से मेरे काम में विघ्न पड़ता है, आप जायें।”
ब्राह्मणः “अरे, मैं तो चला जाऊँगा पर तू सोच कि मछली भी कभी मनुष्य की तरह बोल सकती है ?”
“हैं !…. आपको कैसे पता चला ? ब्राह्मण वेश में आप कौन हैं ?” वह चरणों पर गिर पड़ा।
देखते-देखते चतुर्भुजी भगवान नारायण प्रकट हो गये, बोलेः “रघु ! तू पाप से बचना चाहता था तो मैंने तुझे पाप से बचाने के लिए मत्स्य के रूप में यह लीला की है। अब तुम वर माँग लो।”
रघु ने कहाः “प्रभो ! मैं यही वर माँगता हूँ कि पेट के लिए भी मैं कभी हिंसा न करूँ।”
“जाओ, तुमको मछली मार के पेट भरने की जरूरत नहीं पड़ेगी। तुम्हारा सब ठीक हो जायेगा।”
भगवान अंतर्धान हो गये। रघु मछुआरा अपने गाँव आया तो लोग बोलेः “अरे, तू कहाँ गया था ? पत्नी भूखी, माँ भूखी, कुछ लाया है ?”
रघुः “नहीं लाया।”
लोग इकट्ठे हो गये। गाँव के जमींदार को भगवान ने प्रेरणा की।
जमींदारः “यह पाप नहीं करता है तो इसके घर में जो भी सीधा लगेगा उसका खर्चा मैं देता हूँ।”
रघु नहा-धोकर भगवान का भजन करता और फिर कीर्तन करते हुए गाँव में घूमता।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
गाँव के लोग भी पवित्र होने लगे। पास के गाँव में खबर पड़ी। भगवान के नाम से रघु मछुआरे को रघु भक्त, रघु संत, प्रभुप्रेमी बना दिया। लोग बोलतेः “हमारे गाँव में आओ, रघु जी ! हमारे घर में आओ !’ लोग आदर करने लगे। उसकी माँ को, पत्नी को लोग प्रणाम करने लगे कि “यह भक्त की माँ है, यह भक्त की पत्नी है।”
वे बोलतीं कि “हम तो मछुआरे हैं।”
बोलेः “नहीं। जो भगवान को प्रार्थना करता है, पाप से बचता है फिर वह मछुआरा हो, चाहे भील हो, चाहे सेठ हो, चाहे गरीब हो लेकिन वह भगवान की मूर्ति हो जाता है।” आसपास के गाँवों में रघु के भक्तिभाव का प्रचार हुआ लेकिन रघु के मन में बड़ा दुःख होता था कि ‘मैं तो तुच्छ मछुआरा ! मेरे को लोग पूजते हैं, संत बोलते हैं। हे भगवान ! मैं क्या करूँ ! इस वाहवाही में तो बहुत खतरा है। नहीं-नहीं, अब तो मैं इधर नहीं रहूँगा।’
रघु धीरे-धीरे संतों के पास जा के बैठता। संतों ने बताया कि “रघु ! कीर्तन करो, फिर कीर्तन के बाद श्वास अंदर जाय तो ‘राम’, बाहर आये तो एक, श्वास अंदर जाये तो ‘ॐ’, बाहर आये तो दो…. इस प्रकार अजपाजप करो” रघु अजपाजप करने लगा। करते-करते रघु ने जान लिया कि ‘शरीर मैं नहीं हूँ, मैं तो आत्मा हूँ, परमात्मा का हूँ, परमात्मा मेरे हैं।’ वह जिसको आशीर्वाद देता उसका काम हो जाता। रघु एक बड़े प्रभावशाली भक्त होने लगे लेकिन उनको पीपली गाँव में समय बिताना अच्छा नहीं लगा। वे घर छोड़ के निर्जन वन में रहने लगे।
एक बार ईश्वरीय प्रेरणा से जगन्नाथपुरी के राजा रघु के पास वन में जा के बोलेः “तुम्हें जगन्नाथपुरी में मंदिर के पास मकान देंगे। तुम्हारी पत्नी रहे, तुम्हारी माँ रहे। पुरी में तुम सत्संग-कीर्तन करना, भगवन्नाम का रसपान करना और दूसरों को कराना।” रघु ने जगन्नाथपुरी में निवास करके ऐसा ही महान काम किया।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2015, पृष्ठ संख्या 16, अंक 274
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ