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राष्ट्रीय स्तर पर लहराया संत श्री आशाराम जी गुरुकुल का परचम


 

विद्यार्थियों की प्रतिभा विकसित करने के लिए शासन द्वारा देशभर में प्रतिवर्ष ‘गणित विज्ञान प्रदर्शनी’ का आयोजन होता है। इस प्रदर्शनी में पिछले 5 सालों से संत श्री आशाराम जी गुरुकुल, अहमदाबाद ने श्रेष्ठतम प्रदर्शन करते हुए पूरे भारत में गुरुकुल का परचम लहराया है। एक संक्षिप्त जानकारीः

सत्र 2010-11 में गुरुकुल के विद्यार्थियों का ‘एयरपोर्ट गणित’ प्रकल्प राज्यस्तरीय प्रदर्शनी में सराहा गया था। इसमें एयरपोर्ट की ऐसी आकृति दी गयी थी कि कम क्षेत्रफल में अधिक हवाई जहाज उतर सकें।

सत्र 2011-12 में ‘पानी से ईंधन’ बनाने वाला प्रकल्प बनाया गया था। यह सभी स्तरों का पार कर राष्ट्रीय स्तर पर एन सी ई आर टी द्वारा आयोजित प्रदर्शनी में भी छाया रहा। राष्ट्रीय स्तर पर ‘विज्ञान एवं तकनीकी विभाग’ द्वारा आयोजित विज्ञान प्रदर्शनी में भी इसे भरपूर सराहना मिली। इस कृति (मॉडल) के द्वारा पानी से हाईड्रॉक्सी गैस उत्पन्न करके गाड़ी चलाने की एवं भोजन बनाने की तकनीक दर्शायी गयी थी। सत्र 2012-13 में ‘ब्रेन कम्पयूटर इंटरफेस टेक्नोलॉजी’ यह कृति राज्य स्तर तक पहुँची और सराही गयी। इसमें विकलांग व्यक्ति के सोचने पर उसके मस्तिष्क की तरंग से व्हील चेयर का चलना दिखाया गया था।

सत्र 2013-14 में गुरुकुल का खोजा हुआ ‘होम मेड ब्लड टॉनिक’ प्रदर्शन हेतु राज्य स्तर पर पहुँचा। इस आयुर्वेदिक टॉनिक के उपयोग से हीमोग्लोबिन में अभूतपूर्व वृद्धि होती है एवं प्लेटलेट्स व श्वेत रक्तकणों की मात्रा भी आवश्यकतानुसार हो जाती है।

सत्र 2013-14 में ही ‘आयनोक्राफ्ट’ कृति को राष्ट्रीय स्तर पर NCERT द्वारा आयोजित विज्ञान मेले में प्रदर्शन हेतु चुना गया। इसके द्वारा हवाई जहाज केवल विद्युत ऊर्जा से उड़ सकता है। इसमें इंजन, ईंधन तथा मोटर की आवश्यकता नहीं होती है। अंतरिक्ष यान केवल विद्युत वे झेनॉन गैस की सहायता से उड़ सकता है। इस कृति को इतनी प्रशंसा मिली की ‘आर्यन्स ग्रुप ऑफ कॉलेजस’ के इंजीनियरिंग विभाग ने इसे अपने यहाँ प्रदर्शन हेतु आमंत्रित किया। वहाँ भी इसे विद्यार्थियों व प्राध्यापकों ने बहुत सराहा और गुरुकुल के छात्रों को ‘युवा वैज्ञानिक’ कह के उनका सम्मान किया।

बताया जाता है कि तहसील स्तर पर अलग-अलग विद्यालयों से आयी 700 कृतियों में से 65 से 70 कृतियों का चयन जला स्तर के लिए होता है। ऐसी 2 से 3 हजार कृतियों में से लगभग 350 कृतियाँ राज्य स्तर पर व हर राज्य से प्रायः औसतन 9-10 कृतियाँ ही राष्ट्रीय स्तर पर पहुँचती हैं। ऐसी करीब 180 कृतियों का प्रदर्शन राष्ट्रीय स्तर पर होता है। उनमें से केवल 21 कृतियों का चयन ‘इंडियन साइंस काँग्रेस’ के ‘राष्ट्रीय किशोर वैज्ञानिक सम्मेलन’ के लिए किया जाता है। इन सभी पड़ावों को पार करते हुए इस बहुप्रतिष्ठित राष्ट्रीय सम्मेलन में पहुँचने का सम्मान प्राप्त किया है संत श्री आशाराम जी गुरुकुल, अहमदाबाद ने। वहाँ आयनोक्रॉफ्ट कृति प्रदर्शित की जायेगी। आपको बता दें कि पूरे गुजरात से चयनित यह एकमात्र कृति है।

सत्र 2014-15 में गुरुकुल के ‘थर्मो-इलेक्ट्रिक लैम्प’ को राज्य स्तर के लिए चुना जा चुका है। इस तकनीक के द्वारा एक दीपक की ऊष्मा को विद्युत शक्ति में रूपांतरित करके लैम्प जला सकते हैं। इसके द्वारा गाँव में बिजली की समस्या का आसानी से हल निकाला जा सकता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2015, पृष्ठ संख्या 27, अंक 265
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श्रद्धा की साक्षात मूर्ति


सदगुरु ही शिष्य को सही मार्ग दिखाते हैं एवं उस पर चलने की शक्ति देते हैं। सदगुरु ही मार्ग के अवरोध बताते हैं तथा उनको दूर करने के उपाय बताते हैं। गुरु ही शिष्य की योग्यताओं को, शिष्य के अंदर छुपी अनंत सम्भावनाओं को जानते हैं।

देवर्षि नारदजी ने पार्वती जी के बारे में कहा थाः “यह कन्या सब गुणों की खान है। यह सारे जगत में पूज्य होगी। इसका पति योगी, जटाधारी, निष्काम-हृदय और अमंगल वेशवाला होगा।”

पार्वती जी के माता-पिता दुःखी हो गये। पार्वती जी के पिता ने नारद जी से पूछाः “हे नाथ ! अब क्या उपाय किया जाये ?”

नारदजी बोलेः “उमा को वर तो वैसा ही मिलेगा जैसा मैंने बताया है परंतु मैंने जो लक्षण बतायें हैं, मेरे अनुमान से वे सभी शिवजी में हैं। यद्यपि संसार में वर अनेक हैं पर पार्वती के लिए शिवजी को छोड़कर कोई योग्य वर नहीं है। शिवजी समर्थ हैं क्योंकि वे भगवान हैं। तप करने से वे बहुत जल्दी संतुष्ट हो जाते है। यदि तुम्हारी कन्या तप करे तो शिवजी होनहार को मिटा सकते हैं।”

कुछ समय बीतने पर पार्वती जी ने तपस्या शुरु की। शिवजी ने सप्तऋषियों को उनके पास परीक्षा लेने हेतु भेजा। सप्तऋषियों ने कहाः “नारद का उपदेश सुनकर आज तक किसका घर बसा ? दक्ष के पुत्रों को उपदेश दिया तो उन्होंने फिर लौटकर घर का मुँह भी नहीं देखा। नारद ने ही हिरण्यकशिपु का घर चौपट किया। जो भी नारद की सीख सुनते हैं वे घर छोड़कर अवश्य ही भिखारी हो जाते हैं। उनके वचनों पर विश्वास कर तुम ऐसा पति चाहती हो  जो स्वभाव से ही उदासीन, गुणहीन, निर्लज्ज, बुरे वेश वाला, नर-कपालों की माला पहनने वाला, कुलहीन, बिना घर का और शरीर पर साँपों को लपेटे रखने वाला है ? ऐसे वर के मिलने से तुम्हें क्या सुख होगा ? तुम उस ठग के बहकावे में आकर खूब भूलीं। पहले शिवजी ने सती से विवाह किया था परंतु फिर उसे त्याग कर मरवा डाला। अब वे भीख माँग कर खा लेते हैं और सुख से सो लेते हैं। ऐसे स्वभाव से ही अकेले रहने वालों के घर भी भला क्या कभी स्त्रियाँ टिक सकती हैं ? हमारा कहा मानों, हमने तुम्हारे लिए अच्छा वर विचारा है। वह बहुत ही सुन्दर, पवित्र, सुखदायक और सुशील है, जिसका यश और लीला वेद गाते हैं। वह दोषों से रहित, सारे सदगुणों की राशि, लक्ष्मी का स्वामी और वैकुंठपुरी का रहने वाला है। हम ऐसे वर को तुमसे मिला देंगे।”

पार्वती जी ने कहाः “मैं नारद जी के वचनों को नहीं छोड़ूँगी, चाहे घर बसे या उजड़े – इससे मैं नहीं डरती। जिसको गुरु के वचनों में विश्वास नहीं है, उसको सुख और सिद्धि स्वप्न में भी सुगम नहीं होती।

गुर के बचन प्रतीति न जेहि। सपनेहूँ सुगम न सुख सिधि तेही।

“मेरा तो करोड़ जन्मों तक यही हठ रहेगा कि या तो शिवजी को वरूँगी, नहीं तो कुँवारी ही रहूँगी। स्वयं शिवजी सौ बार कहें तो भी नारद जी के उपदेश को न छोड़ूँगी।”

तजउँ न नारद कर उपदेसू। आपू कहहिं सत बार महेसू।। (श्री राम चरित. बा. कां.)

नारद जी के वचनों में दृढ़ श्रद्धा-विश्वास व अपने स्वानुभव के प्रताप से पार्वती जी ने नारद जी के प्रति रंचमात्र भी संशय को अपने मन में फटकने नहीं दिया। शिवजी के पास जाकर सप्तर्षियों ने सारी कथा सुनायी। पार्वती जी का ऐसा प्रेम तथा गुरु के प्रति अटूट श्रद्धा देख शिवजी ध्यानस्थ हो गये। जब शिवजी ने कामदेव को भस्म किया, तब पुनः सप्तर्षि पार्वती जी के पास जाकर बोलेः “तुमने हमारी बात नहीं सुनी। अब तो तुम्हारा प्रण झूठा हो गया क्योंकि शिवजी ने  कामदेव को ही भस्म कर डाला।”

पार्वती जी मुस्कराकर बोलीं- “हे मुनिवरो ! आपकी समझ में शिवजी ने कामदेव को अब जलाया है, अब तक तो वे विकारयुक्त ही रहे ! किंतु हमारी समझ में शिवजी सदा से ही योगी, अजन्मे, अनिंद्य, कामरहित व भोगहीन हैं और यदि मैंने शिवजी को ऐसा समझकर ही मन, वचन और कर्म से प्रेमसहित उनकी सेवा की है तो वे कृपानिधान भगवान मेरी प्रतिज्ञा को सत्य करेंगे।” और अंततः पार्वती जी ने शिवजी को पा लिया।

पार्वती जी अपने जीवन से सीख दी है कि शिष्य का अपने गुरु के प्रति विश्वास तथा अपने लक्ष्य (ईश्वरप्राप्ति) पर अडिगता कैसी होनी चाहिए। अपने गुरु के प्रति ऐसा दृढ़ विश्वास होना चाहिए क ‘मेरे गुरु शिवस्वरूप हैं, ब्रह्मस्वरूप हैं, साक्षात् अचल ब्रह्म हैं। वे ही मुझे पार लगाने वाले हैं, वे ही तारक और उद्धारक हैं।’ पार्वती जी ने हमें यह सीख दी है कि अगर सप्तर्षि जैसे महान व्यक्ति भी हमारे सदगुरु के बारे में कुछ गलत कहें तो उनकी बात को भी अस्वीकार कर देना चाहिए।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2016, पृष्ठ संख्या 24,25 अंक 277

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(नेता जी सुभाषचन्द्र बोस जयंतीः 23 जनवरी 2016)


राष्ट्रप्रेम व आध्यात्मिक गुणों के धनी सुभाषचन्द्र बोस

राष्ट्रनायक नेता जी सुभाषचन्द्र बोस का जीवन भारतीय संस्कृति के ऊँचे सदगुणों और राष्ट्रप्रेम से ओतप्रोत था। उनकी माँ उन्हें बचपन से ही संत-महापुरुषों के जीवन प्रसंग सुनाती थीं। सुभाषचन्द्र बोस के जीवन में उनकी माँ द्वारा सिंचित किये गये महान जीवन मूल्यों की छाप स्पष्ट रूप से झलकती है।

मैं कौन हूँ ? मेरा जन्म किसलिये ?

13 साल की उम्र में जब सुभाष छात्रावास में रहते थे, तब उनके मन में जीवन की वास्तविकता के संबंध में प्रश्न गूँज उठा कि ‘मैं कौन हूँ ? मेरा जन्म किसलिए हुआ है ?’ उन्होंने माँ को पत्र लिखा कि “माँ ! मेरे जीवन का उद्देश्य क्या है ? मुझे जीवन में क्या करना है ?”

बड़े होने पर ये ही सुभाष लिखते हैं कि ‘मैंने यह अनुभव कर लिया है कि अध्ययन ही विद्यार्थी के लिए अंतिम लक्ष्य नहीं है। विद्यार्थियों का प्रायः यह विचार होता है कि अगर उन पर विश्वविद्यालय का ठप्पा लग गया तो उन्होंने जीवन का चरम लक्ष्य पा लिया लेकिन अगर किसी को ऐसा ठप्पा लगने के बाद भी वास्तविक ज्ञान प्राप्त नहीं हुआ तो ? मुझे कहने दीजिये कि मुझे ऐसी शिक्षा से घृणा है। क्या इससे कहीं अधिक अच्छा यह नहीं है कि हम अशिक्षित रह जायें ? अब समय नहीं है और सोने का। हमको अपनी जड़ता से जागना ही होगा।’ नेता जी का आत्मविद्या के प्रति बहुत प्रेम था।

इसलिए मैं हिन्दी सीख रहा हूँ

जब नेता जी विदेश में ‘आजाद हिन्द फौज’  बनाकर देश की स्वतंत्रता के लिए युद्ध में जुटे थे, तब वे रात को हिन्दी लिखने का अभ्यास करते थे। उनके एक सहायक ने उनसे एक दिन पूछ ही लियाः “नेता जी ! सारे संसार में युद्ध हो रहा है। आपके जीवन को हर समय खतरा है। ऐसे में हिन्दी का अभ्यास करने का क्या मतलब हुआ ?”

सुभाषचन्द्रः “हम देश की स्वतन्त्रता के लिए युद्ध लड़ रहे हैं। आजादी के बाद जिस भाषा को मैं राष्ट्र की भाषा बनाना चाहता हूँ, उसमें पढ़ना-लिखना और बोलना बहुत आवश्यक है, इसलिए मैं हिन्दी सीखने की कोशिश कर रहा हूँ।”

मैं तो हिन्दी में ही बोलूँगा

नेता जी का राष्ट्रभाषा के प्रति भी बहुत प्रेम था यह बात इस घटना में स्पष्ट दिखती हैः एक बार नेता जी भाषण देने प्रयाग गये। उनके सचिव ने कहाः “यहाँ रहने वाले बंगालियों की सभा में भाषण देना है परंतु वे हिन्दी नहीं जानते, आपको बंगाली भाषा में ही बोलना होगा।”

सुभाषः “इतने साल यहाँ रहकर भी ये लोग अपनी राष्ट्रभाषा नहीं सीख पाये तो इसमें मेरा क्या दोष ? मैं तो हिन्दी में ही बोलूँगा।”

‘प्रत्युत्पन्न मति’ के धनी सुभाष

नेता जी बचपन से ही अत्यंत मेधावी थे। आई.सी.एस. की परीक्षा में साक्षात्कार (इंटरव्यू) के समय एक अंग्रेज अधिकारी ने अँगूठी दिखाकर सुभाष बाबू से पूछाः “क्या तुम इस अँगूठी में से निकल सकते हो?”

तुरंत उत्तर मिलाः “जी हाँ, निकल सकता हूँ।”

“कैसे…..?”

सुभाष बाबू ने कागज की एक पर्ची पर अपना नाम लिखा और उसे मोड़कर अँगूठी में से आरपार निकाल दिया। वह अधिकारी भारतीय मेधा की त्वरित निर्णयशक्ति अथवा प्रत्युत्पन्न मति (तत्काल सही जवाब या प्रतिक्रिया देने में सक्षम मति) देखकर दंग रह गया।

वह स्तब्ध होकर देखती ही रही…..

जब सुभाषचन्द्र अविवाहित थे एवं विदेशों में घूम-घूमकर आजाद हिन्द फौज को मजबूत  कर रहे थे, उन दिनों एक खूबसूरत विदेशी महिला पत्रकार ने उनसे पूछाः “क्या आप उम्रभर कुँवारे ही रहेंगे ?”

नेता जी मुस्कराते हुए बोलेः “शादी तो मैं कर लेता लेकिन मेरा माँगा हुआ दहेज कोई देने को तैयार नहीं होगा।”

“ऐसी क्या माँग है जो कोई पूरी नहीं कर सकता ? अपनी बेटी आपके साथ ब्याहने के लिए कोई बड़े-से-बड़ा दहेज दे सकता है।”

“मुझे दहेज में अपने वतन की आजादी चाहिए। बोलो कौन देगा ?”

वह विदेशी पत्रकार कुछ समय तक स्तब्ध होकर उनकी ओर देखती ही रही। धन, सौंदर्य एवं व्यक्तिगत सुख के प्रति सुभाष चन्द्र की विरक्तता देख के महिला के मन में उनके प्रति बहुत आदर एवं विस्मय उत्पन्न हुआ। उसका सर उनके सम्मुख सम्मान व आदर भाव से झुक गया।

नेता जी का अपने देश व संस्कृति के प्रति प्रेम, समर्पण, निष्ठा हर भारतवासी के लिए प्रेरणादायी है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2016, पृष्ठ संख्या 22,23 अंक 277

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