Monthly Archives: January 2016

अपना कर्तव्य मानकर बच्चे-बच्चियों की रक्षा करो


पूज्य बापू जी
(मातृ-पितृ पूजन दिवसः 14 फरवरी)
माँ-बाप का आदर करने वाले बच्चों की आयु, विद्या, यश और बल बढ़ते हैं लेकिन वेलेंटाइन डे के नाम पर लड़के-लड़कियाँ एक दूसरे को फूल दें और गंदी चेष्टा करें तो इससे दिन दहाड़े रज-वीर्य का नाश होता है। इससे उनकी यादशक्ति कमजोर होती है, तबीयत और जीवन बिगड़ते हैं। जवानी के साथ खिलवाड़ होता है, भविष्य अंधकारमय हो जाता है। ईश्वर प्राप्ति का सत्त्व नाश हो गया बहू-बेटियों का तो फिर उनसे जो संतानें पैदा होंगी, वे कैसी होंगी ? विदेशों में लोग कितने अशांत हैं ! अमेरिका तथा और देशों का क्या हाल है !
जो बच्चे अपनी रक्षा नहीं कर सकते, कुकर्म करके खाली दिमाग हो जाते हैं, वे भविष्य में माँ-बाप की सेवा क्या करेंगे, देश की भी करेंगे और माँ-बाप की भी करेंगे। विदेशों में माँ-बाप बेचारे सरकारी वृद्धाश्रमों में पड़े रहते हैं। क्या आप चाहते हैं कि हमारे देश में भी माँ-बाप सरकारी वृद्धाश्रमों में पड़े रहते हैं। क्या आप चाहते हैं कि हमारे देश में भी माँ-बाप सरकारी वृद्धाश्रमों में, अस्पतालों में पड़े रहें ? नहीं। 14 फरवरी को बच्चे माँ-बाप का आदर करें तथा संयमी रहें और माँ-बाप अपने बच्चों को आशीर्वाद दें इसलिए मैंने (पिछले दस वर्षों से) यह ‘मातृ-पितृ पूजन दिवस’ अभियान चलाया है। देश परदेश में लोग इस अभियान की प्रशंसा करते हैं और बहुत प्रसन्नता से सब जगह इस अभियान में जुड़ रहे हैं।
वेलेंटाइन डे जैसे डे मनाकर विदेशों में लोग परेशान हो रहे हैं। वह गंदगी हमारे भारत में आये, इससे पहले ही भारत की कन्याओं और किशोरों का कल्याण हो ऐसा वातावरण बनाना चाहिए।
इसकी क्या जरूरत है ?
कई देशों ने वेलेंटाइन डे मनाने पर बंदिश डाली है। हम तो चाहते हैं कि भारत सरकार को भी भगवान सूझबूझ दें। वह ऐसा कानून बनाये कि बालक-बालिकाओं की तबाही न हो, आने वाली संतति का भविष्य उज्जवल हो। यह सरकार का भी कर्तव्य है, आपका भी है और मेरा तो पहले ही है। मैंने तो शुरु कर दिया ‘मातृ-पितृ पूजन दिवस’। अब आप और सरकार इस कर्तव्य को अपना मानकर बच्चे-बच्चियों की रक्षा करो।
अब तो वेलेंटाइन डे भी मनाते हैं और वेलेंटाइन नाइट और वेलेंटाइन सप्ताह भई चालू कर दिया संस्कृति भक्षकों ने। इसमें चॉकलेट डे जैसे सात-सात डे मनाकर गंदे कल्चर में हमारे बच्चों को गिराने की साजिश है। ये सब डे मनाने की क्या जरूरत है ?
परम भला तो इससे होगा
मातृ-पितृ पूजन दिवस – यह सच्चा प्रेम दिवस है। मैं तो चाहता हूँ कि माता-पिता के हृदय में स्थित भगवान प्रसन्नता छलकायें बच्चों पर। इससे माता-पिताओं का भी कल्याण होगा और बच्चे-बच्चियों का परम कल्याण होगा। अतः 14 फरवरी को मातृ-पितृ पूजन दिवस मनाओ। संतानें कितनी भी बुरी हों लेकिन उन बेटे-बेटियों ने अगर तुम्हारा पूजन कर लिया तो तुम आज तक की उनकी गलतियाँ माफ करने में देर नहीं कर सकते हो और तुम्हारा दिलबर देवता उन पर प्रसन्न होने और आशीर्वाद बरसाने में देर नहीं करेगा, मैं गारंटी से कहता हूँ ! चाहे ईसाई के बच्चे हों, वे भी उन्नत हों, ईसाई माता-पिता संतुष्ट रहें। मुसलमान, पारसी, यहूदी…. सभी के माता-पिता संतुष्ट रहें। किसके माता-पिता इसमें संतुष्ट होंगे कि ‘हमारे बेटे-बेटियाँ विद्यार्थीकाल में एक दूसरे को फूल दें और ‘आई लव यू…’ कह के कुकर्म करें और यादशक्ति गँवा दें ?’ किसी के माँ-बाप ऐसा नहीं चाहेंगे।
यह मेरी नहीं मान्यता की बदनामी है
मैंने यह अभियान शुरू किया है। यह अभियान जिनको अच्छा नहीं लगता है वे कुछ का कुछ करवाकर मेरे को बदनाम करना चाहते हैं। यह मेरी बदनामी नहीं है, मानवता की बदनामी है भैया ! मैं हाथ जोड़कर प्रार्थना करता हूँ कि मानवता के उत्थान में आप अड़चन मत बनो। आप तो सहभागी हो जाओ। वेलेंटाइन डे की जगह गणेश जी की तरह माता-पिता का पूजन ईसाईयत या किसी धर्म की खिलाफत नहीं है।
मातृ-पितृ पूजन गणेश जी ने किया था और शिव-पार्वती का परमेश्वर तत्त्व छलका था। ललाट के भ्रूमध्य में ‘शिवनेत्र’ है ऐसा हम लोग बोलते हैं, उसी को आधुनिक विज्ञान ‘पीनियल ग्रंथि’ बोलता है। गणेश जी के शिवनेत्र पर शिवजी का स्पर्श हो गया। केवल शिवजी ही शिवजी नहीं हैं, तुम्हारे अंदर भी शिव-आत्मसत्ता है। तुम्हारा भी स्पर्श अपने बच्चे के लिए शिवजी का ही वरदान समझ लेना। इससे बच्चों का भला होगा, होगा, होगा ही ! और बच्चों के माँ-बाप के हृदय का भगवान भी प्रसन्न होगा।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2016, पृष्ठ संख्या 11,12 अंक 277
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13 प्रबल शत्रुओं की उत्पत्ति और विनाश कैसे ?


एक बार युधिष्ठिर ने भीष्म पितामह से पूछाः “पितामह ! क्रोध, काम, शोक, मोह, विधित्सा (शास्त्र विरुद्ध काम करने की इच्छा), परासुता (दूसरों को मारने की इच्छा), मद, लोभ, मात्सर्य, ईर्ष्या, निंदा, दोषदृष्टि और कंजूसी (दैन्य भाव) – ये दोष किससे उत्पन्न होते हैं ?”
भीष्म जी बोलेः “महाराज युधिष्ठिर ! ये तेरह दोष प्राणियों के अत्यंत प्रबल शत्रु हैं, जो मनुष्यों को सब ओर से घेरे रहते हैं। प्रमाद में पड़े हुए पुरुषों को ये अत्यंत पीड़ा देते हैं। मनुष्यों को देखते ही भेड़ियों की तरह बलपूर्वक उन पर टूट पड़ते हैं। इन्हीं से सबको दुःख को प्राप्त होता है, इन्हीं की प्रेरणा से मनुष्य की पापकर्मों में प्रवृत्ति होती है। प्रत्येक पुरुष को सदा इस बात की जानकारी रखनी चाहिए।
अब यह सुनो कि इनकी उत्पत्ति किससे होती है, ये किस तरह स्थिर रहते हैं तथा कैसे इनका विनाश होता है। राजन् ! सबसे पहले क्रोध की उत्पत्ति का यथार्थ रूप से वर्णन करता हूँ। क्रोध लोभ से उत्पन्न होता है, दूसरों के दोष देखने से बढ़ता है, क्षमा करने से थम जाता है और क्षमा से ही निवृत्त हो जाता है।
काम संकल्प से उत्पन्न होता है। उसका सेवन किया जाय तो बढ़ता है और जब बुद्धिमान पुरुष उससे विरक्त हो जाता है, तब वह तत्काल नष्ट हो जाता है।
मोह अज्ञान से उत्पन्न होता है और पाप की आवृत्ति से बढ़ता है। जब मनुष्य तत्त्वज्ञ महापुरुषों एवं विद्वज्जनों में अनुराग करता है, तब उसका मोह तत्काल नष्ट हो जाता है।
जो लोग धर्म के विरोधी ग्रंथों एवं पुस्तकों का ( जैसे – चार्वाक मत के ग्रंथ एवं कामुकता बढ़ाने वाली पुस्तकें, आजकल के गंदी पटकथाओं वाले चलचित्र) अवलोकन कर्म करने की इच्छारूपी विधित्सा उत्पन्न होती है। यह तत्त्वज्ञान से निवृत्त होती है।
जिस पर प्रेम हो, उस प्राणी के वियोग से शोक प्रकट होता है। परंतु जब मनुष्य यह समझ ले कि ‘शोक व्यर्थ है, इससे कोई लाभ नहीं है’ तो तुरंत ही उस शोक की शांति हो जाती है।
क्रोध, लोभ और अभ्यास (दोहराना, आदत बना लेना) के कारण से परासुता प्रकट होती है। सम्पूर्ण प्राणियों के प्रति दया और वैराग्य से वह निवृत्त होती है। परदोष दर्शन से इसकी उत्पत्ति होती है और बुद्धिमानों के तत्त्वज्ञान से वह नष्ट हो जाती है।
सत्य का त्याग और दुष्टों का साथ करने से मात्सर्य दोष की उत्पत्ति होती है। तात ! श्रेष्ठ पुरुषों की सेवा और संगति करने से उसका नाश हो जाता है।
अपने उत्तम कुल, उत्कृष्ट ज्ञान तथा ऐश्वर्य का अभिमान होने से देहाभिमानी मनुष्यों पर मद सवार हो जाता है परंतु इनके यथार्थ स्वरूप का ज्ञान हो जाने पर वह तत्काल उतर जाता है।
मन में कामना होने से तथा दूसरे प्राणियों की हँसी-खुशी देखने से ईर्ष्या की उत्पत्ति होती है तथा विवेकशील बुद्धि के द्वारा उसका नाश होता है।
राजन् ! समाज से बहिष्कृत हुए नीच मनुष्यों के द्वेषपूर्ण तथा अप्रामाणिक वचनों को सुनकर भ्रम में पड़ जाने से निंदा करने की आदत हो जाती है परंतु श्रेष्ठ पुरुषों को देखने से वह शांत हो जाती है।
जो लोग अपनी बुराई करने वाले बलवान मनुष्य से बदला लेने में असमर्थ होते हैं उनके हृदय में असूया (दोष-दर्शन की प्रवृत्ति) पैदा होती है परंतु दया का भाव जाग्रत होने से उनकी निवृत्ति हो जाती है।
सदा कृपण मनुष्यों को देखने से अपने में भी दैन्य भाव – कंजूसी का भाव पैदा होता है, धर्मनिष्ठ पुरुषों के उदार भाव को जान लेने पर वह कंजूसी का भाव नष्ट हो जाता है।
प्राणियों का भोगों के प्रति जो लोभ देखा जाता है, वह अज्ञान के ही कारण है। भोगों की क्षणभंगुरता को देखने और जानने से उसकी निवृत्ति हो जाती है।
ये सभी दोष शांति धारण करने से जीत लिये जाते हैं। (यहाँ ‘शांति’ से तात्पर्य ‘कायरता’ नहीं है।)”
भीष्म पितामह धर्मराज युधिष्ठिर से आगे कहते हैं- “तात ! धृतराष्ट्र के पुत्रों में ये सभी दोष मौजूद थे और तुम सत्य को ग्रहण करना चाहते हो इसलिए तुमने श्रेष्ठ पुरुषों की सेवा तथा सत्संग-सान्निध्य से इन सब पर विजय प्राप्त कर ली है।”
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2016, पृष्ठ संख्या 14,15 अंक 277
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स्वास्थ्यरक्षक मट्ठा


यथा सुराणाममृतं सुखाय तथा नराणां भुवि तक्रमाहुः।

‘जिस प्रकार स्वर्ग में देवों को सुख देने वाला अमृत  है, उसी प्रकार पृथ्वी पर मनुष्यों को सुख देने वाला तक्र है।’ (भावप्रकाश)

दही में चौथाई भाग पानी मिलाकर मथने से तक्र तैयार होता है। इसे मट्ठा भी कहते हैं। ताजा मट्ठा सात्त्विक आहार की दृष्टि से श्रेष्ठ द्रव्य है। यह जठराग्नि प्रदीप्त कर पाचन-तंत्र कार्यक्षम बनाता है। अतः भोजन के साथ तथा पश्चात् मट्ठा पीने से आहार का ठीक से पाचन हो जाता है। जिन्हें भूख न लगती हो, ठीक से पाचन न होता हो, खट्टी डकारें आती हों और पेट फूलने – अफरा चढ़ने से छाती में घबराहट होती हो, उनके लिए मट्ठा अमृत के समान है।

मट्ठे के सेवन से हृदय को बल मिलता है, रक्त शुद्ध होता है और विशेषतः ग्रहणी (duodenum) की क्रिया अधिक व्यवस्थित होती है। कई लोगों को दूध रुचता या पचता नहीं है। उनके लिए मट्ठा अत्यंत गुणकारी है।

मक्खन निकाला हुआ तक्र पथ्य अर्थात् रोगियों के लिए हितकर तथा पचने में हलका होता है। मक्खन नहीं निकला हुआ तक्र भारी, पुष्टिकारक एवं कफजन्य होता है।

वातदोष की अधिकता में सोंठ वे सेंधा नमक मिला के, कफ की अधिकता में सोंठ, काली मिर्च व पीपर मिलाकर तथा पित्तजन्य विकारों में मिश्री मिला के तक्र का सेवन करना लाभदायी है।

शीतकाल में तथा भूख की कमी, वातरोग, अरुचि एवं नाड़ियों के अवरोध में तक्र अमृत के समान गुणकारी होता है। यह संग्रहणी, बवासीर, चिकने दस्त, अतिसार (दस्त), उलटी, रक्ताल्पता, मोटापा, मूत्र का अवरोध, भगंदर, प्रमेह, प्लीहावृद्धि, कृमि रोग तथा प्यास को नष्ट करने वाला होता है।

दही को मथकर मक्खन निकाल लिया जाय और अधिक मात्रा में पानी मिला के उसे पुनः मथा जाय तो छाछ बनती है। यह शीतल, हलकी, पित्तनाशक, प्यास, वात को नष्ट करने वाली और कफ बढ़ाने वाली होती है।

मट्ठे के औषधीय प्रयोग

मट्ठे में जीरा, सौंफ का चूर्ण व सेंधा नमक मिलाकर पीने से खट्टी डकारें बंद होती हैं।

गाय का ताजा, फीका मट्ठा पीने से रक्त शुद्ध होता है और रस, बल तथा पुष्टि बढ़ती है। शरीर-वर्ण निखरता है, चित्त प्रसन्न होता, वात-संबंधी अनेक रोगों का नाश होता है।

ताजे मट्ठे में चुटकी भर सोंठ, सें                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                    धा नमक व काली मिर्च मिलाकर पीने से आँव, मरोड़ तथा दस्त दूर हो के भोजन में रूचि बढ़ती है।

मट्ठे में अजवायन और काला नमक मिलाकर पीने से कब्ज मिटता है

उपरोक्त सभी गुण गाय के ताजे व मधुर मट्ठे में ही होते हैं। ताजे दही को मथकर उसी समय मट्ठे का सेवन करें। ऐसा मट्ठा दही से कई गुना अधिक गुणकारी होता है। देर तक रखा हुआ खट्टा या बासी मट्ठा हितकर नहीं है।

केवल ताजे दही को मथकर हींग, जीरा तथा सेंधा नमक डाल के पीने से अतिसार, बवासीर और पेडू का शूल मिटता है।

ताजे दही का अर्थ है, रात को जमाया हुआ दही जिसका उपयोग सुबह किया जाय एवं सुबह जमाया हुआ दही जिसका सेवन मध्याह्नकाल में अथवा सूर्यास्त के पहले किया जाय। सायंकाल के बाद दही अथवा छाछ का सेवन नहीं करना चाहिए।

सावधानीः दही एवं मट्ठा ताँबे, काँसे, पीतल एवं एल्यूमीनियम के बर्तन में न रखें। दही बनाने के लिए मिट्टी अथवा चाँदी के बर्तन विशेष उपयुक्त हैं, स्टील के बर्तन भी चल सकते हैं।

अति दुर्बल व्यक्तियों को तथा क्षयरोग, मूर्च्छा, भ्रम, दाह व रक्तपित्त में तक्र का उपयोग नहीं करना चाहिए। उष्णकाल अर्थात् शरद और ग्रीष्म ऋतुओं में तक्र का सेवन निषिद्ध है। इन दिनों में यदि तक्र पीना हो तो जीरा व मिश्री मिला के ताजा व कम मात्रा में लें।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2016, पृष्ठ संख्या 28,29 अंक 277

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