परब्रह्म परमात्मा में, जो अपना स्वरूप ही है, तीन भाव माने जाते हैं – सत्, चित्त और आनंद। मनुष्य में इन्हीं भावों का जब विकास होता है, तभी उसमें 5 अथवा अधिक कलाओं का विकास माना जाता है। यह विकास मनुष्य में ही सम्भव है, अतः मनुष्य शरीर दुर्लभ है।
सत् के विकास में कर्म का विकास है। चित्त के विकास में ज्ञान का विकास है और आनंद के विकास में सुख का विकास है। कर्म, ज्ञान और आनंद का जैसा विकास मनुष्य के जीवन में है, वैसा सृष्टि में कहीं नहीं है। विश्व की सभ्यता और संस्कृति का इतिहास इसका साक्षी है। यह विकास अभी जारी है इसलिए मनुष्य-जन्म दुर्लभ है, जिसको प्राप्त करके हम संसार के सम्पूर्ण बंधनों, दुःखों और अनर्थों से छूट सकते हैं।
पेड़-पौधे अपनी खुराक अपने पाँव (नीचे) से ग्रहण करते हैं और ऊपर की ओर बढ़ते हैं। शास्त्र में इनको ऊर्ध्वस्रोत बोलते हैं। प्रकृति ने अभी उन्हें बढ़ने के लिए बहुत सा अवकाश दिया है।
पक्षी आगे से भोजन लेते हैं और वह पीछे जाता है। वे ‘तिर्यक-स्रोत’ हैं। पशु एवं स्वेदज (पसीने से उत्पन्न) प्राणी भी तिर्यक-स्रोत हैं। परंतु मनुष्य ‘अधःस्रोत’ है, वह भोजन ऊपर से लेता है और नीचे की ओर फेंकता है।
विद्वानों ने इसका अर्थ किया है कि प्रकृति स्वयं में प्राणी को जितना उन्नत बना सकती थी, उतना उसने मनुष्य को बना दिया है। इसके आगे मनुष्य अपना स्वयं विकास करे।
वह अपनी बुद्धि को इतनी विकसित कर सकता है कि वह परमेश्वर से एक हो जाय। यह अवसर अन्य प्राणि-शरीर में प्राप्त नहीं है। इसलिए मनुष्य का शरीर मिलना दुर्लभ है।
इस मनुष्य शरीर में आप आनंद की पूर्णता का अनुभव कर सकते हैं, ज्ञान की पूर्णता का अनुभव कर सकते हैं। अविनाशी ईश्वर, पूर्ण ज्ञानस्वरूप ईश्वर, पूर्णानंदस्वरूप ईश्वर आपके हृदय में प्रकट हो सकते है। इसलिए यह मनुष्य का शरीर ईश्वर के अनुग्रह से प्राप्त होता है।
हम स्वयं चाह के मनुष्य-शरीर प्राप्त नहीं कर सकते। मनुष्य जन्म पाने में हमारी स्वतंत्रता नहीं, तो पूर्वजन्मों के पुण्यों के फल से, ईश्वर की कृपा से (अर्थात् प्रकृति के विकास से धर्म के फलस्वरूप) यह मनुष्य शरीर प्राप्त हुआ है। अतः यह शरीर बड़ा दुर्लभ है। मनुष्य में स्त्री भी है और पुरुष भी। दोनों की अपनी-अपनी विशेषताएँ हैं। किंतु ईश्वर का अनुग्रह दोनों पर है क्योंकि दोनों सदबुद्धिसम्पन्न मनुष्य हैं।
‘श्रीमद्भागवत’ में आया है कि ईश्वर ने अपनी माया से तरह-तरह के शरीर बनाये – वृक्ष, रेंगने वाले कीड़े, पशु-पक्षी, मच्छर आदि परंतु उनको देखकर उसको कोई विशेष आनंद नहीं हुआ। उसे विशेष आनंद तब हुआ जब उसने मनुष्य-शरीर की रचना को देखा, ‘अहा ! मैंने ऐसा शरीर बनाया है जिसमें ब्रह्मानुभूति की योग्यता है।’* * सृष्टवा पुराणि विविधान्य….. (श्रीमद्भागवतः 11.9.28)
सब प्राणी केवल ऐन्द्रिक विषयों को ही जानते हैं किंतु अतीन्द्रिय वस्तु परमेश्वर के दर्शन करने का जो यंत्र है – प्रमाण वृत्ति, वह मनुष्य के अतिरिक्त और किसी प्राणी के पास नहीं है। न उनके पास साधन-चतुष्टय का अभ्यास है, न उनके पास वेद-शास्त्रादि का श्रवण है, न तो ‘अहं ब्रह्मास्मि’ इस ब्रह्माकार वृत्ति के उदय होने की कोई सामग्री ही उनके पास है। अतः मनुष्य के अतिरिक्त अन्य कोई प्राणी ब्रह्मानुभूति की योग्यता नहीं रखता। इसलिए केवल मनुष्य योनि में ही तत्त्वज्ञान हो सकता है।
ईश्वर का यह बड़ा अनुग्रह है कि उसने हमको यह मनुष्य का शरीर प्रदान किया है। यह तत्त्वज्ञान की प्राप्ति के लिए ही है क्योंकि अन्य योनियों से मनुष्य की विलक्षणता इसी योग्यता में है। अन्य बातें तो सभी योनियों में उपलब्ध हो जाती हैं।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2016, पृष्ठ संख्या 25,26 अंक 278
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