पूज्य बापू जी
जो मान के योग्य कर्म करता है लेकिन मान की इच्छा नहीं रखता, उसका मान स्थिर हो जाता है। भगवान मान के योग्य कर्म करते हैं लेकिन भगवान में मान की इच्छा नहीं
इसलिए भगवान का मान है। ऐसे ही समर्थ रामदासजी, एकनाथ जी, तुकाराम जी, साँईं लीलाशाह जी बापू, रमण महर्षि जी आदि का मान क्यों है ? क्योंकि वे मान के योग्य कर्म तो करते हैं परंतु उनमें मान की इच्छा नहीं होती। जो करें वह अंतर्यामी ईश्वर की प्रसन्नता पाने के लिए करें। मन से जो विचार करें वह ईश्वर के अनुकूल करें। बुद्धि से जो निर्णय करें वह ईश्वर की हाँ में हाँ करके निर्णय करिये। महाराज ! ईश्वर की हाँ में हाँ कैसे ? कोई बोलेगा कि ‘मेरे को तो आया बुद्धि में तो ईश्वर ने प्रेरणा की।’ तेरी वासना की प्रेरणा है कि ईश्वर की प्रेरणा है यह कैसे पता चले ? वासना की प्रेरणा ईश्वर की प्रेरणा का चोला पहनकर गड़बड़ करती है। ‘मेरा कुछ नहीं, मुझे अपने लिए नहीं चाहिए’ तो यह समझो ईश्वर की प्रेरणा है। ‘मुझे जो चाहिए वह सब मेरी चाह जल जाय और ईश्वर को जो चाहिए वह होता रहे’-ऐसी सोच हो तभी तो परम कल्याण होगा।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2016, पृष्ठ संख्या 31 अंक 278
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ