संसार में रहने वाले जो मनुष्य दूसरों की वस्तु, पदार्थों व ऐश्वर्य इत्यादि को देखकर उसे पाने की इच्छा करते हैं, उनको शिक्षा देने के लिए ऋषि आत्रेय एक लीला करते हैं।
आत्रेय ऋषि ने अनुष्ठान द्वारा सर्वत्र गमन करने की शक्ति प्राप्त कर ली थी। एक बार वे घूमते हुए इन्द्रलोक में पहुँचे। इन्द्र के ऐश्वर्य, धन सम्पदा, वैभव को देखकर उनके मन में इन्द्र के राज्य को पाने का संकल्प हुआ। ऋषि अपने आश्रम पहुँचे और अपनी तपस्या के प्रभाव से त्वष्टा (विश्वकर्मा के पुत्र) को बुलाकर कहाः “महात्मन् ! मैं इन्द्रत्व को प्राप्त करना चाहता हूँ। शीघ्र ही यहाँ ऐन्द्र-पद के उपयुक्त व्यवस्था कर दीजिये।”
त्वष्टा ने उनके कहे अनुसार वहाँ इन्द्रलोक के समान इन्द्रपुर नामक नगर का निर्माण कर दिया। जब दैत्यों ने देखा कि इन्द्र स्वर्ग को छोड़कर पृथ्वी पर आ गया है तो वे बड़े प्रसन्न हुए और इन्द्रपुर पाने के लिए अस्त्र-शस्त्रों से प्रहार करने लगे। तब भयभीत होकर आत्रेय जी ने कहाः “हे असुर जनो ! मैं इन्द्र नहीं हूँ, न यह नंदनवन ही मेरा है। मैं तो इस गौतमी तीर पर रहने वाला ब्राह्मण हूँ। जिस कर्म से कभी सुख नहीं प्राप्त होता, उस कर्म की और मैं दुर्दैव की प्रेरणा से आकृष्ट हो गया हूँ।”
आत्रेय जी ने त्वष्टा से कहाः “आपने मेरी प्रसन्नता के लिए जिस ऐन्द्र-पद को यहाँ बनाया है, उसको शीघ्र दूर करो। अब मुझे इन स्वर्गीय वस्तुओं की कुछ भी आवश्यकता नहीं है।”
अनात्म वस्तुओं (आत्मस्वरूप से भिन्न नश्वर वस्तुएँ) को पाने की इच्छा दुःखदायी है। जो किसी के पद, वैभव, ऐश्वर्य को देखकर उस जैसा होने की इच्छा करता है, वह बंधन में पड़ता है और अंततः उसे दुःख ही उठाना पड़ता है। अतः शास्त्र व महापुरुष संकेत करते हैं कि हमें उस आत्मपद को पाने की इच्छा करनी चाहिए जिसको पाने के बाद इन्द्र का पद भी सूखे तृणवत् तुच्छ प्रतीत होता है और जिसको पाने के बाद कुछ पाना शेष नहीं रहता।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2016, पृष्ठ संख्या 25 अंक 280
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