माँ और मैं एक ही हैं

माँ और मैं एक ही हैं


स्वामी श्री अखंडानंद सरस्वती जी बताते हैं कि “एक बार आनंदमयी माँ के भक्त आये और उन्होंने श्री उड़िया बाबाजी से पूछा कि “महाराज जी ! आप श्री आनंदमयी माँ को क्या मानते हैं ?” इस प्रश्न में जो असंगति है उसको आप देखो। मानी वह चीज जाती है जो परोक्ष (अप्रत्यक्ष) होती है। जैसे एक मनुष्य हमारे सामने बैठा है। आप पूछो कि ‘आप उसको दुरात्मा मानते हो कि महात्मा ?’ तो दुरात्मनापना भी परोक्ष है और महात्मापना भी परोक्ष है। अगर हमारा प्रेम होगा तो उसको हम महात्मा बतायेंगे और द्वेष होगा तो दुरात्मा बतायेंगे। असल में हम अपने दिल की बात उगलेंगे। लेकिन मान्यता जो है वह परोक्ष के बारे में होती है, साक्षात् अपरोक्ष (साक्षात अपना आपा) के बारे में नहीं होती।

महात्माओं के लिए ईश्वर, जीव, जगत, देश, काल साक्षात् अपरोक्ष होते हैं इसलिए किसी भी वस्तु के बारे में उनकी मान्यता नहीं होती। उनका तो अनुभव ही होता है, अपना स्वरूप ही होता है। मान्यता तो उन लोगों की होती है जिनको पाँव के नीचे की धरती दिखती है।

तो भक्त ने कहा कि “आप आनंदमयी माँ को क्या मानते हैं ?”

उड़िया बाबा जी बोलेः “(माँ भी बैठी थीं, उनके सामने ही बोले) बेटा ! जो मैं हूँ सो माँ है, जो माँ है सो मैं हूँ। माँ और मैं एक ही हैं।”

इससे बढ़िया और कोई उत्तर नहीं हो सकता था परंतु उस भक्त ने कहाः “बाबा जी ! आप वेदांत की बात कर रहे हैं। आप सच्ची बात बताइये।” माने उनके मन में था कि वेदांत तो एकांगी चीज है, वह पूर्ण दर्शन नहीं है।

“देख ! अगर माँ मुझसे कुछ भी न्यारी है तो तीनों काल में माँ की कोई सत्ता नहीं है। केवल मिथ्या प्रतीति हो रही है माँ की। मैं हूँ सो ही माँ है। तब तो माँ और मैं एक ही हैं। अगर मेरे अतिरिक्त कोई माँ है तो उसकी कोई सत्ता नहीं, केवल मिथ्या कल्पनामात्र है।”

वेदांत की दृष्टि में अपने सिवाय दूसरी कोई वस्तु नहीं होती। और एक बात है, सृष्टि केवल जड़ से ही होती है, चेतन से सृष्टि नहीं होती, चेतन की दृष्टि ही होती है। जड़ता में सृष्टि होती है। चेतनता में सृष्टि नहीं होती, परिवर्तन नहीं होता, परिणाम नहीं होता। चेतन की दृष्टि ही सारी सृष्टि है। और ‘चेतन की दृष्टि’ यह केवल विकल्प है। चेतन और दृष्टि दो वस्तुएँ नहीं होतीं इसलिए चेतन एक अखंड सत्ता है। यह वेदांत का सिद्धान्त है। अद्वैत सिद्धान्त इसके संबंध में बिल्कुल स्पष्ट है।”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2016, पृष्ठ संख्या 6, अंक 280

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