अनादि जीव को मेरा मानना, फिर उसके बने रहने की इच्छा, न रहने पर रोना (और खुद न रो सको तो किराये पर स्यापा करने वालों से रुलवाना) – यह सब अनादि अविद्याजन्य शोक, मोह का परिवार है जो आत्मज्ञान से नष्ट हो जाता है। सम्पूर्ण देश, सम्पूर्ण काल और सम्पूर्ण वस्तु तथा इन सबका अभिन्ननिमित्तोपादान (सम्पूर्ण देश, काल, वस्तु का उपादान कारण (जिससे ये बने) एवं निमित्त कारण (जिसने इनको बनाया है वह) आत्मा है और वह इन तीनों से अभिन्न है।) कारण – यह सब आत्मा ही है। यह आत्मविज्ञान है।
यस्मिन् विज्ञाते सति आत्मैव
सर्वाणि भूतानि अभूत।
ये देश काल वस्तु एक साथ ही बनते जाते हैं, एक साथ ही छूटते जाते हैं, एक साथ आते जाते हैं। सेकंड पर सेकंड आते जाते रहते हैं और उसका दृश्य भी साथ-साथ चलता जा रहा है, उसका स्थान भी बदलता जा रहा है। स्वप्न में दृश्य और उसका देश तथा उसका काल युगपत् प्रतीत होते ही हैं। सिनेमा के पर्दे पर भी ऐसा ही दिखता है। इसी प्रकार आत्मा के पर्दे पर मन से रँगी हुई आत्मा की ही रोशनी अनेक नाम रूपों में दिखाई पड़ती रहती है। यह बाहरपना, यह भीतरपना, यह ठोसपना, अब, तब, यहाँ, वहाँ, मैं, तू – सब आत्मप्रकाश ही है।
‘पर्दे पर दृश्य बदले नहीं’ – यह बालक बुद्धि है, यह मोह है। जो इसका रहस्य जानता है वह जानता है कि दृश्य बदलेंगे और फिर बदलेंगे परंतु वस्तुतः न प्रकाश बदलेगा न पर्दा ! फिर न बदलने का आग्रह क्यों ? बदलने पर रोना क्यों ? वीभत्स से द्वेष क्यों और सुंदर से राग क्यों ?
बस इतना ही है ब्रह्मज्ञान !
प्यासा चाहे गंगा की भरी धार में जल पिये और चाहे घड़े से जल पिये, तृप्ति में कोई अंतर नहीं है। ऐसे ही एक व्यक्ति चारों वेदों का स्वाध्याय करके ‘अहं ब्रह्मास्मि’ समझता है और दूसरा कोई श्रद्धालु गुरुमुख से श्रवण करके ही ‘अहं ब्रह्मास्मि’ को जान गया। दोनों की तृप्ति में कोई अंतर नहीं है।
अनेकानि च शास्त्राणि स्वल्पायुर्विघ्नकोटयः।
तस्मात् सारं विजानीयात् क्षीरं हंस इवाम्भसि।।
(गरुड़ पुराण, धर्म कांड – प्रेत कल्पः 49.84)
शास्त्र अनंत हैं, आयु थोड़ी है, विघ्न करोड़ों हैं। इसीलिए हंस की तरह नीर-क्षीर विवेक करके सार जान ले।
बस, इतना ही है ब्रह्मज्ञान कि ‘मैं ब्रह्म हूँ और मेरे सिवाय जीव, जगत, ईश्वर नाम की कोई अलग सत्ता या वस्तु नहीं है। सब मैं ही मैं हूँ।’ इसका फल है अविद्या की निवृत्ति, जिससे शोक, मोहादि सब भस्म हो जाते हैं।
असल में तुम वही हो जो पहले थे और आगे भी वही रहोगे। ये घटनाएँ जो हैं वे फिल्म की तरह चल रही हैं। इनमें जो मोह करता है उसी को शोक होता है। मोह का जो दृश्य बीत जाता है, वह शोक देता है और जो दृश्य अनखुला है, वह भय देता है। वर्तमान से हम चिपके हुए हैं।
तत्त्वज्ञान ने केवल आपके मन में जो अज्ञानमूलक भ्रांतिजन्य मोह की परिस्थिति थी उसको काट दिया, और कुछ नहीं बदला। ज्ञान केवल वहीं परिवर्तन करता है जहाँ अज्ञान रहता है। वह आत्मचैतन्य में कोई परिवर्तन करता है और न जड़ जगत में कोई परिवर्तन करता है। केवल बुद्धि के भ्रम की निवृत्ति करता है वेदांत। प्रपंच की धारा जो बह रही है और वृत्तियों की धारा जो बह रही वे वैसे ही बहती रहती हैं। बस, आत्मस्वरूप के बारे में भूल मिट गयी। तमाशे की सच्चाई के भ्रम के कारण जो हँसना या रोना-धोना था, शोक, भय, कम्पन था वह तमाशे को मिथ्या जान लेने पर खत्म हो गया।
तो आप सर्वात्मभाव को प्राप्त हो जायेंगे
संसार का अर्थ ही है परिवर्तन, संसरणशील, जो सर्प की तरह सरके। बचपन आया चला गया, जवानी आयी चली गयी, बुढ़ापा आया है चला जायेगा, पैसा आता है चला जाता है। पुराना जायेगा नया आयेगा। आप न केवल इस परिवर्तन संसार के अधिष्ठान तथा प्रकाशक हैं बल्कि यह भी समझना आवश्यक है कि यह संसार चल है और आप अचल हैं, ये वस्तुएँ जड़ हैं, आप अविनाशी, परिपूर्ण चेतन हैं। इस प्रकार जो सर्वोपादान अविनाशी परिपूर्ण अद्वय चेतन तत्त्व है वह आप हैं और यह सब आपका ही विवर्त है। जब आप ऐसा जानेंगे तब आप सर्वात्मभाव को प्राप्त हो जायेंगे।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2016, पृष्ठ संख्या 12,15 अंक 281
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