तीन प्रकार के शिष्य

तीन प्रकार के शिष्य


तीन प्रकार के भक्त या शिष्य होते हैं। एक होते हैं आम संसारी भक्त, जो गुरुओं के पास आते हैं, उपदेश को सुनते हैं, कथा-वार्ताएँ सुनते हैं, जप-ध्यान करते हैं, कुछ-कुछ उनके उद्देश्यों को अपने जीवन में लाने का प्रयास करते हैं। ये सामान्य निगुरे आदमी से उन्नत तो होते जाते हैं लेकिन इससे भी दूसरे प्रकार के साधक ज्यादा नजदीक पहुँच जाते हैं, जिन्हें कहा जाता है अंतेवासी, आश्रमवासी। ये गुरु के आदर्शों को, उद्देश्यों को आत्मसात करके समाज तक फैलाने की दैवी सेवा खोज लेते हैं।

जैसे महात्मा बुद्ध के सम्पर्क में आने से कई लोग भिक्षुक और भिक्षुणी हो गये। ऐसे लोग वर्षों तक संतों का सान्निध्य पाकर अपने चित्त की जन्म-जन्मांतरों की जो मैल है, पुरानी आदतें हैं, पुराने आकर्षण-विकर्षण हैं, उनको मिटाकर आगे बढ़ना चाहते हैं। ऐसे शिष्य सैंकड़ों, हजारों में हो सकते हैं। आम भक्त तो लाखों, करोड़ों में भी हो सकते हैं।

तीसरे शिष्य होते हैं शक्तिवाहकः शक्तिस्वरूप से एक हो जाने में, गुरु के आत्मिक शक्ति के अनुभव को झेलने की क्षमता रखने वाले शिष्य। ये कभी-कभार कहीं-कहीं पाये जाते हैं।

श्री रामकृष्ण परमहंस जी के पास हजारों-लाखों लोग आये-गये होंगे, कई लोग आश्रमवासी भी रहे होंगे लेकिन नरेन्द्र ( जो गुरुकृपा से स्वामी विवेकानंद बने), नाग महाशय आदि कुछ ही शिष्य श्री रामकृष्ण के अनुभव को अपना अनुभव बनाने में सफल हो गये। पूरे समर्पित, पूरी आत्मशक्ति को झेलने की क्षमताएँ ! हालाँकि स्वामी विवेकानंद प्रचार-प्रसार के कारण अधिक प्रसिद्ध हुए।

वैसे देखा जाये तो शिष्यों के कई प्रकार हैं लेकिन शिष्यों के 3 प्रकार एक संत ने अपने नजरिये से ऐसे भी बताये हैं-

एक होते हैं पत्थर की नाईं। जैसे सरोवर में पत्थर आ गया तो उसकी तपन मिटी और वह शीतल हो गया, गीला-सा भी दिखता है लेकिन जितनी देर वह सरोवर में है उतनी देर ठंडा और गीला दिखता है। सरोवर से बाहर आ गया कड़ाके की धूप में तो वह अपनी शीतलता और नमी भुलाकर पुनः पूर्ववत् हो जायेगा। ऐसे ही आम आदमी जो निगुरे हैं अथवा कुछ ऐसे लोग होते हैं जैसे कामी, क्रोधी, लोभी, कठोर, स्वार्थी, फिर भी वे  सत्संग के वातावरण में आ गये तो वातावरण के प्रभाव से पावन, पवित्र होते हैं लेकिन उसका मूल्यांकन नहीं करते हैं, जाँच-पड़ताल के भाव आये या और किसी भाव से आये तो फिर थोड़े समय में उनका चित्त पूर्ववत् संसारी भावों में आ जाता है।

दूसरे होते हैं वस्त्र की नाईं। जैसे वस्त्र सरोवर में भिगो दिया, अब सरोवर से बाहर भी आया तो तुरंत सूखेगा नहीं, सरोवर की शीतलता और नमी अपने में सँजोये रखेगा। सूर्य की किरणें और हवायें जब जोर मारेंगी तब वे धीरे-धीरे सरोवर का प्रभाव हटा सकेंगी, मिटा देंगी। ऐसे ही जो नामदान लेते हैं, जिन्होंने जीवन में कोई व्रत-नियम लिया है उन्हें बाहर की तपन, बाहर के आकर्षण-विकर्षण जल्दी पुरानी स्थिति में नहीं लाते, समय लगता है लेकिन सयाने शिष्य पुरानी स्थिति में, हलकी स्थिति में आने के पहले ही किसी-न-किसी त्यौहार, किसी-न-किसी निमित्त – चाहे पूनम व्रत का निमित्त हो, चाहे सत्संग का निमित्त हो, चाहे सेवा का निमित्त हो, फिर गुरु के दर्शन करके अपना हृदय भगवद्भाव, भगवद्ध्यान और भगवदीय सेवा से सराबोर करके मधुर बना लेते हैं।

तीसरे शिष्य होते हैं मिश्री जैसे। मिश्री सरोवर में डाल दी, अब सरोवर में पड़े-पड़े पानी से मिल जायेगी। अब खुद मिश्री को डालने वाला भी अगर पानी से मिश्री को अलग करना चाहे तो मुश्किल है। ऐसे ही जो पूर्ण तैयार होकर आते हैं, वे अपने अहं-मम को, अपनी चिंता-कामनाओं को परमात्म-सत्संग में और गुरु के अनुभव में ऐसा न्योछावर कर देते हैं कि फिर उनकी वे कामनाएँ, उनके वे अहंकार, वे ईर्ष्याएँ, वे दोष अब दिन-रात खोजने पर भी नहीं मिलते।

भंग भसूड़ी सुरापान उतर जाये  प्रभात।

नाम नशे में नानका छका रहे दिन-रात।।

ऐसे पुरुष नाम नशे में, ईश्वरीय सुख में, आत्मिक आनन्द छके में रहते हैं। नानक जी ने भक्तों को संदेश दिया हैः

साथि न चालै बिनु भजन बिखिआ सगली छारू।

हरि हरि नाम कमावना नानक इहु धनु सारू।।

भजन के बिना दूसरी कोई वस्तु मनुष्य के साथ नहीं जाती। सारी माया राख के समान है। हे नानक ! हरि नाम की कमाई ही सबसे अच्छा धन है।

कितना भी धन इकट्ठा कर दिया, कितनी भी सुविधाएँ भोग लीं तो भी अंत में शरीर राख में मिल जायेगा। अंतरात्मा का सुख, ज्ञान और माधुर्य ही सच्चा धन है।

मन मेरे तिन की ओट लेहि।।

मन तनु अपना तिन जन देहि।।

अगर तीसरे प्रकार का उत्तम साधक बनना है तो उस ईश्वर की, उस रब की अनुभूति करने के लिए अऩुभवसम्पन्न महापुरुषों के अनुभव की तू ओट (शरण) ले। अपना मन और तन उन्हीं के अनुभव में  लगाओ, उन्हीं की यात्रा में लगाओ।

शरीर राख में मिल जाये उसके पहले तेरा अहं उस सत्संगरूपी, संतरूपी अमृत में मिला दे, मिश्री जैसे पानी में मिल जाती है, ऐसे ही तेरा मन मिला दे भैया !

जिनि जनि अपना प्रभू पछाता।।

सो जनु सरब थोक का दाता।।

जिन्होंने अपने प्रभुत्व का अनुभव किया है, जो देह में रहते हुए भी देह को ‘मैं’ नहीं मानते हैं, मन के साथ एकाकार हुए दिखते हैं फिर भी मन के द्रष्टा हो गये हैं, बुद्धि के साथ एकाकार होकर कुशलता से व्यवहार करते हैं लेकिन फिर भी बुद्धि के निर्णय बदलते हैं, उनकी बदलाहट को जो जानता है उस अद्वैत ब्रह्म में एकाकार हुए हैं, वे भोग भी दे सकते हैं, मोक्ष भी दे सकते हैं, परम पद का पता बताते-बताते उसका अनुभव भी करा सकते हैं।

ब्रह्म गिआनी1 मुकति2 जुगति3 जीअ4 का दाता।।

ब्रह्म गिआनी पूरन पुरखु5 बिधाता6।।

ब्रह्म गिआनी का कथिआ न जाइ अधाख्यरू7।।

ब्रह्म गिआनी सरब8 का ठाकुरु9।।

1.ब्रह्म ज्ञानी 2. मुक्ति 3 युक्ति 4. जीवन 5. पूर्ण पुरुष 6. विधाता 7. ब्रह्म ज्ञानी की महिमा का आधा अक्षर भी बयान नहीं किया जा सकता 8. सर्व 9. भगवान/पूज्य

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2016, पृष्ठ संख्या 16,17 अंक 282

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