Monthly Archives: June 2016

ज्ञानरूपी खड्ग की प्राप्ति का मार्ग


‘श्रीमद् एकनाथी भागवत’ में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं-

साधु-संतों की सेवा करनी चाहिए। साधुओं में भी परिपूर्ण साधुत्व केवल सदगुरु के पास ही होता है इसलिए उनके चरणों की सेवा करनी चाहिए। उनके सत्संग सेवादि से संसार-बंधन टूटता है क्योंकि सदगुरु ही सच्चे साधु और सज्जन होते हैं। उनके मधुर (रसमय) आत्मवचन श्रुतियों के ही अर्थ का उपदेश करते हैं, जिससे ज्ञानरूपी खड्ग की प्राप्ति होती है, जिसे बुद्धि के हाथ में दिया जा सकता है। उसी शस्त्र को फिर वैराग्य और नैराश्य (उपरामता) रूपी पत्थर पर घिसकर तेज बनाना चाहिए और उसे धैर्य का मजबूत हत्था लगा के अंतःकरण में संशयरहित होकर सावधानी से पकड़ना चाहिए। अपनी जी-जान लगाकर उस शस्त्र से अभ्यास करना चाहिए और फिर बराबर निशाना साध के देहाभिमान को काट डालना चाहिए।

जो सभी संशयों का मूल गड्ढा है, जिससे देह-दुःख उत्पन्न होता है, जिसके कारण सदा विषयों का व्यसन लगा रहता है, जो काम और क्रोध का पोषण करता है, जो तीनों गुण  बढ़ाता है, जो शुद्ध आत्मा में जीवभाव लाता है, जिसके कारण इस जीव को दुर्निवार (जिसका निवारण करना बहुत कठिन है ऐसा) जन्म-मरण लगा रहता है, जो सभी अनर्थों का दाता है, ममता जिसकी लाडली बेटी है – ऐसा यह अभिमान है। मायारूपी माँ ही ममता को पालती-पोसती है और इसी के सामर्थ्य पर यह भी इतना उन्मत्त रहता है। इसलिए वीर को युद्धभूमि में यह तेज धारवाला शस्त्र लेकर धैर्यपूर्वक सावधान हो के इतने जोर से वार करना चाहिए कि एक ही झटके में माया, ममता और अभिमान – इन तीनों के ही टुकड़े-टुकड़े हो जायें।

भोग्य, भोग और भोक्ता, कर्म, कार्य और कर्ता, ध्येय, ध्यान और ध्याता – इस त्रिपुटी को जड़-मूल से काट डालना चाहिए। ‘मैं हूँ’, ‘मैं कौन हूँ?’ अथवा ‘ मैं ही ब्रह्म हूँ’ ऐसा अहंभाव भी काट डालने से साधक मुझ परमात्म-पद की प्राप्ति करता है। इस प्रकार वह स्वयं ही ब्रह्मस्वरूप हो जाता है। अब आप कहेंगे कि ‘आपने यह जो उपाय बताया है वह केवल शब्दों का खेल है। केवल बातों का बड़ा प्रलाप करने से अहंकार कैसे नष्ट होगा ? यदि शब्दों से ही अभिमान नष्ट होता तो बड़े-बड़े विद्वान अभिमान में क्यों डूब मरते ? अभिमान (अहंकार) अगर प्रत्यक्ष दिखाई देता तो तत्काल दौड़कर उसे काट डालते लेकिन वह तो सर्वथा अतर्क्य है। अतः केवल शब्दों से वह नष्ट नहीं होगा। उसी प्रकार आत्मा का जो साक्षात्कार होता है वह भी कोई शब्दों का खेल नहीं है।’ तो इस शंका का समाधान सुनो। जो सदा सावधान रहकर अनन्य भाव से मेरा भजन करता है अथवा मेरी ही भावना से जो सदगुरु के पवित्र चरणों की सेवा करता है, मुझमें और सदगुरु के स्वरूप में कल्पांत में भी भेद नहीं है – इस अभेदभाव से जो मेरा भजन करता है, उसे सहज ही ज्ञान प्राप्त होता है। स्वाभाविक रूप से मेरे भजन में मग्न रहने के कारण उसे ज्ञानरूपी खड्ग की प्राप्ति होती है। जिस शस्त्र की धार से काल का भी हृदय काँप उठता है, वह शस्त्र अपने-आप उसके हाथ लग जाता है। उस शस्त्र के भय से ही माया, ममता और अभिमान इस जीव को छोड़कर पूरी तरह भाग जाते हैं और अहंता, ममता तथा अविद्या का अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है। इस प्रकार उत्तम भक्तिभाव से मेरा जो भजन करने से इतना ज्ञान प्राप्त होता है, उसके बारे में अब मन ऐसी शंका करेगा कि ‘यह भजन कहाँ किया जाय ? हे भगवन् ! तुम्हारा स्वरूप, अतर्क्य, अत्यंत सूक्ष्म और निर्गुण है। अतः तुम्हारा भजन करने के लिए कौन-सा स्थान है यही मेरी समझ में नहीं आता।’ अगर मन में ऐसी कल्पना आती है तो मैं भजन का अति सुलभ स्थान बताता हूँ। करोड़ों पर्वतों को पार किये बिना, गिरि-गुफाओं में गये बिना, कहीं दूर जाकर  परिश्रम किये बिना ही जहाँ मेरी सदा सर्वदा भेट होती है, जहाँ मैं पुरुषोत्तम रहता हूँ, केवल वही भजन का स्थान निरूपम (अतुलनीय) है। मेरी प्राप्ति के लिए वह भक्तों का अत्यंत सुलभ ऐसा विश्राम स्थान है। सर्व सुखों का विश्राम स्थान जो आत्माराम है वह अपने हृदय में सदा समभाव से रहता है। यहीं उसका प्रेम से भजन करना चाहिए।

ब्रह्मा से लेकर मक्खी तक के हृदय में एक मैं ही हूँ – यह जो जानता है वह भाग्यशाली है और मेरी प्राप्ति के लिए यही भजन उत्तम है। जिस मुझ हृदयस्थ के तेज से मन-बुद्धि आदि कार्य करते हैं, जिस मुझ स्फुरण की स्फूर्ति से पूर्ण ज्ञान पैरों पर लोटता है, उस मुझ हृदयस्थ के प्रति कोई भी भजन में तत्पर नहीं होता और बाह्य उपायों से व्यर्थ थककर लोग अनेक  प्रकार के संकटों में गिर जाते हैं। ऐसे लोगों में कोई विरला ही महाभाग्यशाली होता है और वही मुझ हृदयस्थ का विवेक कर निश्चयपूर्वक मेरे भजन में लग जाता है। मुझ हृदयस्थ का भजन करने पर जिस ज्ञान से अधःपतन नहीं होता ऐसा मेरा सम्पूर्ण वैराग्ययुक्त आत्मज्ञान वह प्राप्त करता है। उस ज्ञान के भय से ही अभिमान भाग जाता है। वह अपना ज्ञान मैं उन्हें देता हूँ जो सदा-सर्वदा मुझ हृदयस्थ का भजन करते हैं। जिस ज्ञान की सिद्धि से समस्त आधि-व्याधि दूर हो जाती हैं, तन-मन-वचन पवित्र हो जाते हैं तथा समस्त संशय भाग जाते हैं, उस ज्ञान से भक्त आत्मपद प्राप्त करते हैं।

(श्रीमद् एकनाथी भागवत से)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2016, पृष्ठ संख्या 11,12 अंक 282

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

गुरुकृपा ने अड़बंग को अड़बंगनाथ बना दिया


एक बार गोरखनाथ जी व उनका शिष्य यात्रा करते हुए भामा नगर के निकटवर्ती स्थान पर तेज गर्मी के कारण वृक्ष के नीचे बैठ गये। पास में ही मणिक नाम का एक किसान अपने खेत में हल चलाने में व्यस्त था। वह भोजन करने के लिए एक वृक्ष के नीचे जा बैठा। गोरखनाथ जी व उनका शिष्य उसके पास पहुँचकर ‘अलख-अलख’ कहने लगे। किसान प्रणाम करते हुए बोलाः “साधु बाबा ! आप लोग कौन हैं ? क्या चाहते हैं ?”

गोरखनाथ जीः “हम योगी यति हैं। हमें भूख लगी है।”

“आप ठीक समय पर आये हैं। लीजिए, इन्हें खा लीजिये।”

भोजन से तृप्त होकर गोरखनाथ जी उसका नाम पूछने लगे तो मणिक ने कहाः “क्या करोगे नाम जानकर ? भोजन मिल ही गया, अब अपना रास्ता देखो।”

गोरखनाथ जी बोलेः “अच्छा भाई ! मत बताओ। किंतु तुमने हमें भोजन से तृप्त किया है इसलिए हमसे कुछ माँग ही लो। जो चाहोगे वह मिलेगा।”

मणिक हँस पड़ाः “अरे महाराज ! जाओ। तुम स्वयं तो दर-दर की भीख माँगते हो और हमसे कहते हो कि कुछ ले लो ! यह कैसी अनोखी बात करते हो ?”

“अरे, माँगो तो सही, हम सब कुछ दे सकते हैं।”

मणिक तीव्र स्वर में बोलाः “अब आप मुझ पर कृपा करिये और यहाँ से पधारिये।”

गोरखनाथ जी समझ गये कि यह व्यक्ति बहुत अड़बंग(हठी) है इसलिए  उसके  कल्याण के लिए उन्होंने कहाः “अच्छा तो मुझे एक वचन दे दो।”

“माँगो, क्या चाहते हो ?”

“इतना ही दे दो कि अब से अपनी इच्छा के विपरीत कार्य किया करो। करोगे ऐसा    ?”

“अजी, यह भी कोई बड़ी बात है ? माँगने बैठे तो क्या ऊटपटाँग माँगा ! लगता है तुम कोई मजाकिया हो या कोई धूर्त। तुम्हारा कुछ और ही प्रयोजन प्रतीत होता है।”

“हम तो अभी जा रहे हैं किंतु यह बताओ कि तुमने हमारी माँगी बात मान ली न ?”

वह झल्लायाः “मान ली, मान ली…. मेरा पीछा तो छोड़ो किसी प्रकार !”

जब गोरखनाथ जी व उनके शिष्य चले गये, तब मणिक के चित्त में विचार उठा कि ‘जो मुझे कहना था सो कह दिया, अब उनका कहा भी मानना चाहिए।’

भूख लगती तब वह पानी पीकर रह जाता। प्यास लगती तब कुछ खा लेता। सोने की इच्छा होती तो वह जागता, खड़े होने की इच्छा होती तो लेट जाता या बैठ जाता। इस प्रकार सभी कार्य अपनी इच्छा के विरुद्ध करने से उसके स्वास्थ्य पर बड़ा विपरीत प्रभाव पड़ा। उसका शरीर सूखने लगा। उसकी धर्मपत्नी व अन्य परिवार वालों ने बहुत समझाया कि ‘यह हठ छोड़ दो” किसी के भी समझाने-बुझाने का उस पर कुछ भी प्रभाव न हुआ और वह अपने वचन पर बराबर दृढ़ रहा। इस प्रकार उसे  बारह वर्ष व्यतीत हो गये।

गोरखनाथ जी बदरिकाश्रम से यात्रा करते हुए लौट रहे थे। तभी उन्होंने अपने गुरु मत्स्येन्द्रनाथ जी से निवेदन किया कि “‘मणिक किसान के पास से होते हुए चलेंगे।” मत्स्येन्द्रनाथ जी, गोरखनाथ जी और चौरंगीनाथ जी – तीनों ही उसके पास आये।

गोरखनाथ जी ने पूछाः “भाई ! ऐसे निस्तेज, रोगी और दुर्बल क्यों हो रहे हो ?” मणिक उन्हें देखते ही पहचान गया।

“यह सब तुम्हारी ही करामात है साधु बाबा ! आपको जो वचन दिया है उसके पालन करने का यह परिणाम हुआ।”

गोरखनाथ जी को मन-ही-मन बड़ी प्रसन्नता हुई कि ‘यह अभी तक अपने वचन पर अडिग है। इसे दीक्षा दी जाये। परंतु यदि इसको कहूँगा तो उलटा ही करेगा।’ उन्होंने कहाः “अच्छा भाई ! अब तेरा कष्ट दूर हो जायेगा परंतु तू मुझे अपना शिष्य  बना ले और गुरुमंत्र दे।”

वह बोलाः “मैं गुरुमंत्र क्या जानूँ और न गुरु ही बनूँगा। मैं तो यह चाहता हूँ कि तुम मुझे गुरुमंत्र दो और अपना शिष्य बना लो।”

“अरे, यह कैसी बातें करता है ? तुझमें ऐसे बहुत गुण हैं, जो हममें नहीं हैं। इसलिए हम तुझे अपना गुरु बनाना चाहते हैं।”

“नहीं जी, मुझमें कोई गुन-बुन नहीं हैं। मैं ही तुम्हारा चेला बनूँगा। अब देर मत करो, शीघ्र ही गुरुमंत्र दे डालो।”

गोरखनाथ जी ने उसे मंत्रदीक्षा देकर अपना शिष्य बना लिया। उसके सिर पर हाथ फेरा तो उसका रोग और निर्बलता नष्ट हो गयी, स्वास्थ्य एवं सूझबूझ बढ़ी और वह गोरखनाथ जी के प्रति श्रद्धा-भक्ति से भर गया। गोरखनाथ जी ने मत्स्येन्द्रनाथ जी की ओर संकेत करके कहा कि “ये हमारे पूज्य गुरुदेव हैं, इन्हें प्रणाम करो।” उसने तुरन्त मत्स्येन्द्रनाथ जी के चरणों में दण्डवत प्रणाम किया और उन्होंने उसे आशीर्वाद देकर नाथ पंथ की दीक्षा दी। उसके अड़बंग (हठी) होने के कारण उसका नाम ‘अड़बंगनाथ’ रखा गया। उसके पश्चात गोरखनाथ जी ने उसे अनेक विद्याओं में पारंगत किया और नाथ योगी बना दिया।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2016, पृष्ठ संख्या 14,15 अंक 282

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

काँवरियों की सेवा हो जाय तो मुझे बहुत आनंद होगा


पूज्य बापू जी

(श्रावण मासः 20 जुलाई 2016 से 18 अगस्त 2016 तक)

अहंकार लेने की भाषा जानता है और प्रेम देने की भाषा जानता है। अहंकार को कितना भी हो, और चाहिए, और चाहिए…. और प्रेमी के पास कुछ भी नहीं हो फिर भी दिये बिना दिल नहीं मानता। शिवजी की जटाओं से गंगा निकलती है फिर भी प्रेमी भक्त काँवर में पानी लेकर यात्रा करते हैं और शिवजी को जल चढ़ाते हैं।

पुष्कर में एक बार मैं सुबह अजमेर के रास्ते थोड़ा सा पैदल घूमने गया तो कई काँवरिये मिले। उनको देखकर मेरा हृदय बहुत प्रसन्न हुआ कि 15-17-20 साल के बच्चे जा रहे थे पुष्कर से जल ले के। मैं खड़ा हुआ तो पहचान गये, “अरे ! बापू जी हैं।”

मैंने कहाः “कब आये थे।”

बोलेः “रात को आये थे।”

“कहाँ सोये थे ?”

“वहाँ पुष्करराज में सो गये थे ऐसे ही। सुबह जल भर कर जा रहे हैं।”

“कहाँ चढ़ाओगे ?”

“अजमेर में भगवान को चढ़ायेंगे।”

उन बच्चों को पता नहीं है कि वे काँवर से जल उठाकर जा के देव को चढ़ाते हैं, देव को तो पानी की जरूरत नहीं है लेकिन इससे उनका छुपा हुआ देवत्व कितना जागृत होता है ! बहुत सारा फायदा होता है। अगर वे युवक को पुष्करराज में नहीं आते तो रात को सोते और कुछ गपशप लगाते। जो शिवजी को जल चढ़ा रहे हैं कि ‘चलो पुष्कर अथवा चलो गंगा जी’ तो भाव कितना ऊँचा हो रहा है ! पहले काँवरिये इतने नहीं थे जितने मैं देख रहा हूँ। मुझे तो लगता है भारत का भविष्य उज्जवल होने के दिन बड़ी तेजी से आयेंगे। तो यह संतों का संकल्प है कि भारत विश्वगुरु बनेगा। जिस देश में काँवरिये बच्चे या भाई लोग नहीं दिखाई देते उस देश के लेडी-लेडे (युवक-युवतियाँ) तो चिपके रहते हैं, सुबह देर तक सोये रहते हैं, परेशान रहते हैं फिर नींद की गोलियाँ खाते हैं, न जाने क्या-क्या करते हैं ! इससे तो हमारे काँवरियों को शाबाश है ! मैं सोचता हूँ हमारे युवा सेवा संघ के युवक ऐसा कुछ करें कि जहाँ भी काँवरिये जाते हों, रोक के उनको आश्रम की टॉफियाँ, आश्रम का काई प्रसाद दे दें, कोई पुस्तक दे दें। सावन महीने में काँवरियों की सेवा हो जाय तो मुझे तो बहुत आनंद होगा। बड़े प्यारे लगते हैं, ‘नमः शिवाय, नमः शिवाय…..’ करके जाते हैं न, तो लगता है कि उन्हें गले लगा लूँ ऐसे प्यारे लगते हैं मेरे को।

‘बं बं बं…… ॐ नमः शिवाय…..’ इस  प्रकार कीर्तन करने से कितना भाव शुद्ध, पैदल चलने से क्रिया शुद्ध होती है। और उनमें कोई व्यसनी हो तो उसे समझाना कि ‘काँवर ली तो पान-मसाला नहीं खाना बेटे ! सुपारी नहीं खाना। गाली सुनाना नहीं, सुनना नहीं। इससे और मंगल होगा।’

भाव शुद्ध व क्रिया शुद्ध होने का फल है कि हृदय मंदिर में ले जाने वाले कोई ब्रह्मज्ञानी महापुरुष मिल जायें, उनका सत्संग मिल जाय। जो मंदिर मस्जिद में नहीं जाते, तीर्थाटन नहीं करते उनकी अपेक्षा वहाँ जाने वाले श्रेष्ठ हैं किंतु उनकी अपेक्षा हृदय-मंदिर में पहुँचने वाले साधक प्रभु को अत्यंत प्रिय हैं। जिसको हृदय-मंदिर में पहुँचाने वाले कोई महापुरुष मिल जाते हैं, उसका बाहर के मंदिर में जाना सार्थक हो जाता है।

घरमां छे काशी ने घरमां मथुरा,

घरमां छे गोकुळियुं गाम रे।

मारे नथी जावुं तीरथ धाम रे।।

घर का मतलब तुम्हारा चार दीवारों वाला घर नहीं बल्कि हृदयरूपी घर। उसमें यदि तुम जा सकते हो तो फिर तीर्थों में जाओ-न-जाओ, कोई हरकत नहीं। यदि तुम भीतर जा सके, पहुँच गये, किसी बुद्ध (आत्मबोध को उपलब्ध) पुरुष के वचन लग गये तुम्हारे दिल में तो फिर तीर्थों से तुम्हें पुण्य न होगा, तुमसे तीर्थों को पवित्रता मिलेगी। तीर्थ तीर्थत्व को उपलब्ध हो जायेंगे।

तीर्थयात्रा से थोड़ा फल होता है लेकिन उससे ज्यादा फल भगवान के नाम में है। उससे ज्यादा गुरुमंत्र में है और उससे ज्यादा गुरुमंत्र का अर्थ समझकर जप करने में है। भगवान को अपना और अपने को भगवान का, गुरु को अपना और अपने को गुरु का मानने वाले को…… मदभक्तिं लभते पराम्। (गीताः 18.54) पराभक्ति व तत्तव ज्ञान का सर्वोपरि लाभ होता है।

आत्मलाभात् परं लाभं न विद्यते।

आत्मसुखात परं सुखं न विद्यते।

आत्मज्ञानात् परं ज्ञानं न विद्यते।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2016,  पृष्ठ संख्या 22,23 अंक 282

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ