मोक्ष की इच्छा वाले के लिए अनिवार्य शर्तें

मोक्ष की इच्छा वाले के लिए अनिवार्य शर्तें


श्री अखंडानंद जी सरस्वती

जो अपने जीवन को अपने लक्ष्य की ओर प्रवाहित कर रहा है वह मार्ग में कहीं अटक नहीं सकता। यह अटकना ही आसक्ति का परिचायक है। जहाँ सुख प्रतीत होता है और जिसको अपना-आपा भोक्ता प्रतीत होता है वहाँ वह व्यक्ति आसक्त हुए बिना नहीं रह सकता। विषय में सत्यत्व एवं रमणीयता की तथा विषयी में भोक्तृत्व की भ्रांति मिलकर आसक्ति को जन्म देती है। कभी-कभी किसी से चिपक जाने का नाम आसक्ति है। परंतु जो गतिशील है उसके लिए देश, काल और वस्तु सदैव बदलते रहते हैं। फिर वह कहाँ कब, किससे, क्यों और कैसे चिपकेगा ?

4 प्रकार की आसक्तियाँ होती हैं- कर्मासक्ति, फलासक्ति, कर्तृत्वासक्ति और अकर्तृत्वासक्ति। सुख किसी विशेष कर्म से ही प्राप्त हो यह आग्रह कर्मासक्ति है। अरे सुख को आने दो, उसके द्वार का आग्रह क्यों करते हो ? पतिदेव का स्वागत करो, फिर चाहे वे इस द्वार से आयें या उस द्वार से, घर की कीमती कार से आवें या किराये की सामान्य टैक्सी से। कर्मासक्ति में कर्म का बंधन है।

कर्ता और कर्म के बीच में कर्म की प्रेरणा होती है और कर्म और भोक्ता के बीच में कर्मफल होता है। जब प्रेरणा सुख होती है, तब कर्मफल में भोक्ता सम नहीं रह पाता। कर्मफल प्रेरणा के अनुकूल होने पर राग उत्पन्न करता है और प्रतिकूल होने पर द्वेष। यही फलासक्ति है। जिसकी प्रेरणा कर्तव्य का पालन या भगवान की प्रसन्नता अथवा प्राप्त परिस्थिति का सदुपयोग है वह सर्वत्र सुख का अनुभव कर सकता है। धनभागी है वह जिसमें वह फलासक्ति नहीं रहती।

कोई-न-कोई काम करते ही रहें यह आग्रह कर्तृत्वासक्ति है व अपने आत्मा को अकर्ता मानकर कर्म न करने का आग्रह अकर्तृत्वासक्ति है।

विषय हो, कर्म हो परंतु आसक्ति न हो, तब आप कहीं बीच में अटकेंगे नहीं और अंत में ईश्वरप्राप्ति कर लेंगे।

इस प्रकार सत्यनिष्ठा, अनासक्ति योग – ये दो आवश्यक शर्तें है जो प्रत्येक मुमुक्षु के जीवन में अनिवार्य हैं। परंतु मोक्ष-सम्पादन के कुछ अन्य आवश्यक अंग भी हैं। वे हैं- पांडित्य, धैर्य, संन्यास एवं आत्माभ्यास।

सदसद् विवेकवती बुद्धि का नाम पंडा है। वह बुद्धि जिसके पास है उस विवेकी पुरुष को पंडित कहते हैं। मुमुक्षु में यह पांडित्य अपेक्षित है, अन्यथा यह सम्भावना है कि कभी मिथ्या में ही सत्यबुद्धि हो जायेगी। शास्त्रों को घोट-पीस कर कंठाग्र कर लेना अथवा उनका अध्यापन या प्रवचन करने के सामर्थ्य का नाम पांडित्य नहीं है।

नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन। (मुंडकोपनिषद्- 3.2.3)

यह श्रुति इस संबंध में स्पष्ट कथन करती है कि यह आत्मा प्रवचन, मेधा या बहुत सुनने से प्राप्त नहीं होता।

सुख और दुःख दोनों को सहन करने का नाम धैर्य होता है। सुख सहन नहीं होता तो या तो हृदयाघात (हार्टफेल) हो जाता है या बुद्धि उच्छृंखल हो जाती है। वह आदमी उपद्रव करने लगता है। ‘हमको यह स्त्री चाहिए, यह भोग चाहिए’ – इस प्रकार की माँग बढ़ जाती है। और हम तो यह करेंगे, वह करेंगे। इस प्रकार कर्म अनियंत्रित हो जाता है। इसी तरह जब दुःख सहन नहीं होता तो आदमी छाती पीट-पीट कर रोता है, पागल हो जाता है, डाकू हो जाता है या फिर उसको हृदयाघात हो जाता है।

समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतव्याय कल्पते। (गीताः 2.15)

जो सुख-दुःख में सम है वही धीर पुरुष है और वही अमृतत्व के योग्य होता है। यदि आप दुनिया में कुछ मिल जाने से उच्छृंखल हो जाते हैं और खोने से रोने लगते हैं तो आत्मचिंतन कैसे करेंगे ?

जो विवेकी है, धीर है उसे सर्व-कर्म-संन्यास के लिए सम्मुख होना चाहिए। यह एक पुरुषार्थ है। मोक्ष के अतिरिक्त दूसरी वस्तुओं को प्राप्त करने का जो प्रयास है वहाँ से उपराम होने का नाम सर्व-कर्म-संन्यास है। जीवन में प्रयत्न तो रहे परंतु दूसरी वस्तुओं को पाने के लिए प्रयत्न न रहे, अपनी सहज पूर्णता के लाभ के लिए प्रयत्न रहे, अपनी मुक्ति के लिए प्रयत्न रहे।

गुरुमुख से वेदांतशास्त्र का तात्पर्य-निश्चय करना श्रवण कहलाता है। उस श्रुत अर्थ का अनुकूल युक्तियों से चिंतन तथा बाधक युक्तियों का खंडन मनन कहलाता है। श्रवण और मनन किये हुए अर्थ में बुद्धि का तैलधारावत् प्रवाह निदिध्यासन कहलाता है। निदिध्यासन में विजातीय वृत्ति का तिरस्कार है और सजातीय वृत्ति का प्रवाह है। यह जो श्रवण, मनन, निदिध्यासन है इसी का नाम आत्माभ्यास है।

अभ्यास माने दुहराना। आप जीवन में बार-बार किसको दुहराते हैं ? मकान-दुकान, रूपया, दोस्त, दुश्मन – इस अनात्मा को ही तो दुहराते हैं। यह अनात्मा का अभ्यास, जो जीवन में प्रविष्ट हो गया है, इसके निवारण के लिए आत्माभ्यास करना पड़ता है कि ‘मैं नित्य-शुद्ध-बुद्ध-मुक्त ब्रह्म हूँ। मैं असंग हूँ, मैं साक्षी हूँ।’ इत्यादि। इस अभ्यास से ही उस ज्ञानबल की उत्पत्ति होती है जिससे भ्रम की निवृत्ति होती है। केवल अपने को असंग, साक्षी मान लेने से और अभ्यास न करने से भ्रांति निवृत्त नहीं होती।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, पृष्ठ संख्या 7,8 अंक 283

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