एक दिन राजा विश्वामित्र मंत्रियों के साथ शिकार के लिए गये थे। वन में प्यास से व्याकुल हो वे महर्षि वसिष्ठ जी के आश्रम में पहुँचे।
वसिष्ठजी ने उनका स्वागत किया। आश्रम में एक कामधेनु गाय थी जिसका नाम था नंदिनी, जो सभी कामनाओं की पूर्ण करती थी। वसिष्ठ जी ने खाने पीने योग्य पदार्थ, बहुमूल्य रत्न, वस्त्र आदि जिस-जिस वस्तु की कामना की कामधेनु ने प्रस्तुत कर दिया। महर्षि ने उन वस्तुओं से विश्वामित्र का सत्कार किया। यह देख विश्वामित्र विस्मित होकर बोलेः “ब्रह्मन् ! आप दस करोड़ गायें अथवा मेरा सारा राज्य लेकर इस नंदिनी को मुझे दे दें।”
वसिष्ठजीः “देवता, अतिथि और पितरों की पूजा एवं यज्ञ के हविष्य आदि के लिए यह यहाँ रहती है। इसे तुम्हारा राज्य लेकर भी नहीं दिया जा सकता।”
“मैं इसको बलपूर्वक ले जाऊँगा। मुझे अपना बाहुबल प्रकट करने का अधिकार है।”
“तुम राजा और बाहुबल का भरोसा करने वाले क्षत्रिय हो। अतः जैसी तुम्हारी इच्छा हो वैसा करो।”
विश्वामित्र बलपूर्वक गाय का अपहरण कर उसे मारते-पीटते ले जाने का प्रयास करने लगे। नंदिनी विश्वामित्र के भय से उद्विग्न हो उठी और डकराती हुई वसिष्ठ जी की शरण में गयी। उसे मार पड़ रही थी फिर भी वह आश्रम से अन्यत्र नहीं गयी।
वसिष्ठजीः “कल्याणमयी ! मैं तुम्हारा आर्तनाद सुनता हूँ परंतु क्या करूँ ? विश्वामित्र तुम्हें बलपूर्वक हर के ले जा रहे हैं। मैं क्या कर सकता हूँ ? मैं एक क्षमाशील ब्राह्मण हूँ।”
नंदिनी ने विश्वामित्र से प्रार्थना कीः “भगवन् ! विश्वामित्र के सैनिक मुझे कोड़ों से मार रहे हैं। मैं अनाथ की तरह क्रंदन कर रही हूँ। आप क्यों मेरी उपेक्षा कर रहे हैं ?”
वसिष्ठजीः “क्षत्रियों का बल उनका तेज है और ब्राह्मणों का बल क्षमा है। मैं क्षमा अपनाये हुए हूँ, अतः तुम्हारी रूचि हो तो जा सकती हो।”
नंदिनीः “भगवन् ! क्या आपने मुझे त्याग दिया ? आपने त्याग न दिया हो तो कोई मुझे बलपूर्वक नहीं ले जा सकता।”
“मैं तुम्हारा त्याग नहीं करता। तुम यदि रह सको तो यहीं रहो।”
इतना सुन नंदिनी क्रोध में आ गयी और उसने अपने शरीर से मलेच्छ सेनाओं को उत्पन्न किया जो अनेक प्रकार के आयुध, कवच आदि से सुसज्ज थीं। उन्होंने देखते-देखते विश्वामित्र की सेना को तीतर-बीतर कर दिया। अस्त्र-शस्त्रों के प्रहार से घायल सेनाओं के पाँव उखड़ गये। नंदिनी ने उन्हें तीन योजन तक खदेड़ दिया।
यह देख विश्वामित्र बाणों की वर्षा करने लगे परंतु वसिष्ठजी ने उन्हें बाँस की छड़ी से ही नष्ट कर दिया। वसिष्ठजी का युद्ध कौशल देख विश्वामित्र आग्नेयास्त्र आदि दिव्यास्त्रों का प्रयोग करने लगे। वे सब आग की लपटें छोड़ते हुए वसिष्ठ जी पर टूट पड़े परंतु वसिष्ठजी ने ब्रह्मबल से प्रेरित छड़ी के द्वारा सब दिव्यास्त्रों को भी पीछे लौटा दिया।
फिर वसिष्ठजी बोलेः “दुरात्मा गाधिनंदन ! अब तू परास्त हो चुका है। यदि तुझमें और भी उत्तम पराक्रम है तो मेरे ऊपर दिखा।” ललकारे जाने पर भी विश्वामित्र लज्जित होकर उत्तर न दे सके। ब्रह्मतेज का यह आश्चर्यजनक चमत्कार देखकर विश्वामित्र क्षत्रियत्व से खिन्न एवं उदासीन होकर बोलेः “धिग् बलं क्षत्रियबलं ब्रह्मतेजोबलं बलम्। ‘क्षत्रिय बल तो नाममात्र का ही बल है, उसे धिक्कार है ! ब्रह्मतेज जनित बल ही वास्तविक बल है।’ ऐसा सोच के विश्वामित्र राजपाट का त्याग कर तपस्या में लग गये।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, पृष्ठ संख्या 13,19 अंक 283
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