– पूज्य बापू जी
मानो न मानो यह हकीकत है….
भगवान श्री कृष्ण के जन्म को 5200 से अधिक वर्ष बीत गये लेकिन अब भी जन्माष्टमी हर वर्ष नित्य नवीन रस, नयी उमंग, नया आनंद-उल्लास ले आती है। जिन्होंने अपने उल्लसित स्वभाव का अनुभव किया है, वे काल के घेरे में नहीं बाँधे जाते हैं। कृष्ण थे तब तो उल्लास, आनंद और माधुर्य था लेकिन 5-5 हजार वर्ष बीत गये तब भी आज भी उनकी जन्माष्टमी और उनकी याद उल्लास, आनंद, माधुर्य और रसमय जीवन देने का सामर्थ्य रखती है।
मानो न मानो यह हकीकत है। आनंद, उल्लास, आत्मरस मनुष्य की जरूरत है।।
अगर आपको अंतरात्मा का सुख नहीं मिलेगा तो चाय छोड़कर कॉफी पियेगा, कॉफी छोड़कर और कुछ पियेगा लेकिन पिये बिना नहीं रहेगा। अगर असली मिल जाय तो नकली छूट जाय। इस सिद्धान्त से श्रीकृष्ण ने सबको असली रस की तरफ आकर्षित किया।
संत-वचनों के अनुगामी
‘श्रीमद्भागवत’ आता है कि नंदबाबा को अजगर ने पकड़ लिया। ग्वाल व गोप अपनी लकड़ियों से अजगर को मारते हैं फिर भी वह नंदबाबा को नहीं छोड़ता। नंदबाबा घबराये और श्रीकृष्ण को याद किया। श्रीकृष्ण आये और अजगर के सिर पर पैर लगा दिया। अजगर की सद्गति हुई और वह अजगर अपने असली रूप में प्रकट होकर बोलाः “मैं सुदर्शन नाम का विद्याधर था। अंगिरा गोत्र के ऋषियों का मैंने अपमान किया था, उन्होंने श्राप दिया कि तू अजगर जैसा व्यवहार करता है तो जा बेटे ! तुझे अजगर की योनि मिलेगी।”
मैंने उनसे प्रार्थना करके क्षमा याचना की तो उन्होंने कहाः “जब कृष्णावतार होगा और कृष्ण तुझसे अपना चरणस्पर्श करेंगे तभी तेरी सद्गति होगी।”
संतों के वचनों को सत्य करने वाला, भक्तों को रस प्रदान करने वाला, हिम्मत साहस और शक्ति भरने वाला तथा अन्याय व दुर्गुणों को ललकारने वाला अवतार कृष्ण-अवतार है।
संकीर्णता से व्यापकता की ओर कृष्ण अवतार प्रेरणा देता है कि आपका नियम, व्रत और सिद्धान्त अच्छा है लेकिन जब ‘बहुजनहिताय, बहुजनसुखाय’ समाजरूपी देवता की सेवा करने की बात आती है और अंतरात्मा की तरफ आगे बढ़ने की बात आती है तो फिर आपकी, कुटुम्ब की, पड़ोस की जो छोटी-मोटी अकड़-पकड़ है, उसको भूल जाना चाहिए। कुटुम्ब का भला होता हो तो व्यक्तिगत भलाई की बात को गौण कर देना चाहिए और पूरे पड़ोस का भला होता हो तो कुटुम्ब की भलाई का मोह छोड़ देना चाहिए। गाँव का भला होता हो तो पड़ोस का और राज्य का भला होता हो तो गाँव का मोह छोड़ देना चाहिए। राष्ट्र का भला होता हो तो गाँव का मोह छोड़ देना चाहिए। राष्ट्र का भला होता हो तो राज्य का और मानव जाति का भला होता हो तो राष्ट्र का भी ज्यादा मोह न रखें। और महाराज ! विश्वेश्वर की प्राप्ति का रास्ता आता हो तो विश्व भी कुछ नहीं, विश्वेश्वर ही सार है इस दृष्टि को आप आगे बढ़ाइये।
महान आत्मा बनने का आदर्श
बुधवार का दिन, रोहिणी नक्षत्र…. परात्पर परब्रह्म सगुण साकार रूप में आये। कंस जैसे महत्त्वकांक्षी लोगों ने छोटे-छोटे सज्जन राजाओं को कैद कर लिया। दुर्योधन, जरासंध और शिशुपाल जैसे अभिमानियों ने जब समाज को अपने अहंकार के अधीन करके ऐश करना चाहा, तब समाज उत्पीड़ित हुआ और समाज की प्रार्थना व पुकार पहुँची। जैसे किसी बड़े उद्योग में अस्त-व्यस्तता हो जाती है तो उद्योगपति स्वयं आकर मुआयना करते हैं, ऐसे ही व्यापक चैतन्य प्राणिमात्र के हृदय में होते हुए, अणु-परमाणु में व्याप्त होते हुए भी कभी-कभार प्रसंगोचित उस-उस समय की माँग के अनुरूप अवतरित होता है। वह अवतार मानव-जाति के लिए वरदान रूप है।
उग्रसेन राज्य दे रहे हैं लेकिन समाजहित की भावना से श्रीकृष्ण ने राजा बनना अस्वीकार किया। महान आत्माओं की यह पहचान है कि मान-अपमान में, सुख-दुःख में सम रहते हैं और छोटा कार्य करने में भी संकोच का अनुभव नहीं करते। श्रीकृष्ण जैसे महान आत्मा को घोड़ागाड़ी चलाने, घोड़ों की मालिश व मरहमपट्टी करने में संकोच नहीं होता।
युद्ध में बहुत सारे लोग मर गये, वातावरण में दूषित आत्माएँ भटक रही थीं। उनकी सद्गति के लिए समाज के हित के लिए राजसूय यज्ञ का आरम्भ करवाया। श्रीकृष्ण ने यज्ञ में ऊँची-ऊँची सेवा का, ऊँचे-ऊँचे पदों का औरों को मजा लेने दिया और स्वयं साधु-संतों के चरण धोने और उनकी जूठी पत्तलें उठाने का काम करके अपने सरल स्वभाव का भी परिचय दिया।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2015, पृष्ठ संख्या 12,13 अंक 272
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