गुरुकुल परम्परा से पढ़ाई हो यह देश का सौभाग्य होगा
जन्म से 7 साल तक मूलाधार केन्द्र जो शरीर की नींव है, वह विकसित होता है। 7 से 14 साल की उम्र तक स्वाधिष्ठान केन्द्र विकसित होता है तथा 14 से 21 साल तक मणिपुर केन्द्र का विकास होता है, यह बुद्धि को विकसित करने के लिए स्वर्णकाल है। यह भावनाओं को दिव्य व सफल बनाने के लिए सटीक समय है।
गुरुकुल शिक्षा पद्धति से जो विद्यार्थी पढ़ते लिखते थे उनमें ओजस्विता-तेजस्विता आती थी। क्योंकि हमारे शरीर में सात केन्द्र (चक्र) हैं- मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्धाख्य, आज्ञा और सहस्रार, इन केन्द्रों के विकास करने की पद्धति गुरु लोग जानते थे। गुरु का मतलब है जो हमको लघु सुखों, लघु वासनाओं, लघु मान्यताओं से ऊपर उठा दें। इसलिए पहले दीक्षा दी जाती थी। जीवन को सही दिशा देने के लिए दीक्षा बहुत आवश्यक है। दीक्षा का मतलब यह नहीं कि केवल काऩ फूँक दिया अथवा किसी को माला पकड़ा दी, नहीं, ऊँची दिशा दी जाती थी कि ‘खाना-पीना और इन्द्रिय-लोलुपता का सुख तो पशु-पक्षी, घोड़े-गधे, कुत्ते-बिल्ले भी पा लेते हैं, आपको ऊँचे-में-ऊँचा आत्म-परमात्मसुख लेना है। ऊँचा जीवन जीने के लिए बाहर का आडम्बर नहीं, आंतरिक विकास करो। दिखावटी जीवन की अपेक्षा सात्त्विक और दिव्य जीवन जियो। दूसरों के अधिकार की रक्षा और अपने बल का सदुपयोग करना।’ जो दूसरों के अधिकार की रक्षा करता है और अपने बल का सदुपयोग करता है, वह निर्बलों की सहायता करेगा और अपने अधिकार व लोलुपता में आकर समाज की हानि नहीं करेगा, अपना भविष्य बरबाद नहीं करेगा।
गुरुकुलों से इस प्रकार के उत्तम संस्कारों से युक्त होकर विद्यार्थी जब समाज में आता था तो अच्छी व्यवस्था होती थी। गुरुकुल में जो शिक्षण मिलता था अथवा ज्ञान मिलता था वह आत्मशक्ति का विकास करता था। अभी मैकाले शिक्षा पद्धति में क्या चल रहा है कि ‘व्यक्तित्व का श्रृंगार करने के लिए हृदय अशुद्ध हो तो हो, वसूली के, घूस के, मिलावट के, हेराफेरी के पैसे आयें, दूसरा भूखा मरे, निर्धनों के बच्चे पढ़ें – न पढ़ें, गरीबों का शोषण होता हो तो हो लेकिन मेरे बेटे, मैं और मेरा परिवार सुविधा-सम्पन्न रहे।’ इस छोटे से दायरे में आदमी आ गया।
विदेशी और भारतीय पद्धति में यह अंतर है कि विदेश में अधिक से अधिक सत्ता, धन के ढेर जिसको मिल जायें, वह बड़ा आदमी माना जाता है जबकि भारत में जो अधिक से अधिक समाज को दे एवं अपनी जरूरतों हेतु कम से कम ले और अपने असली सुख में, आत्मसुख में आगे बढ़े, उसको बड़ा माना जाता है। जो कम वस्तु, कम सत्ता, कम व्यक्तियों के उपयोग से अधिक से अधिक शांति, सुख पा सके और दूसरों को दे सके ऐसे शुकदेव जी महाराज ऊँचे सिंहासन पर बैठे हैं और राजा परीक्षित उनके चरणों में ! अष्टावक्र जी ऊँचे सिंहासन पर बिठाते और स्वयं उनके चरण धोते हैं। श्रीकृष्ण गुरु के चरण धोते हैं।
तो गुरुकुल पद्धति में गुरु सुख अर्थात् ऊँचा सुख, ऊँचा ज्ञान पाने और ऊँची समझ, शाश्वत सुख की मौलिक शिक्षा मिलती थी और अंदर के केन्द्रों का विकास होता था। अभी सूचनाएँ इकट्ठी करके हम लोग प्रमाणपत्र ले लेते हैं। मैकाले शिक्षा-पद्धति से पढ़े हुए मानवीय संवेदनाओं से वंचित विद्यार्थी बेचारे कई लाख रूपये रिश्वत दे के नौकरी लेते हैं और करोड़ों रूपये शोषित करके सुखी होने में लगते हैं। न वे सुखी, न जिनको शोषित किया वे सुखी, न जिनको रिश्वत देते हैं वे सुखी, न उनके सम्पर्क में आने वाले सुखी ! तो चारों तरफ शोषण-ही-शोषण और दुःख-ही-दुःख बढ़ गया।
बल का सदुपयोग यह नहीं कि आपके पास सत्ता का, साधुताई का बल है अथवा अन्य कोई बल है और उसके द्वारा आप दूसरों का शोषण करके बड़े बन जाओ। यह बल का दुरुपयोग है। दूसरों के अधिकार की रक्षा और अपने अधिकार का सदुपयोग। गुरुकुल पद्धति उसी पर आधारित थी।
आत्मा परमात्मा का सुख लेने की पद्धति, इन्द्रियों को संयमित करने की और मन व इन्द्रियों को दिव्य ज्ञान में, दिव्य आत्मसुख में ले जाने की व्यवस्था गुरुकुलों में थी। इसमें जप, ध्यान और वैदिक ज्ञान बड़ी सहायता करता है।
गुरुकुल शिक्षा पद्धति व्यक्ति को विकसित जीवन जीने की पद्धति देती है। गुरुकुल परम्परा से पढ़ाई लिखाई हो देश का, मानवता का यह सौभाग्य होगा।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2016, पृष्ठ संख्या 8,9 अंक 285
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