आशा नाम नदी मनोरथजला तृष्णातरङ्गाकुला।
रागग्राहवती वितर्कविहगा धैर्यद्रुमध्वंसिनी।
मोहावर्तसुदुस्तराऽतिगहना प्रोत्तुङ्गचिन्तातटी
तस्याः पारगता विशुद्धमनसो नन्दति योगीश्वराः।।
(वैराग्य शतकः10)
‘अच्छा खान-पान, विहार आदि मानसिक इच्छारूप जलवाली, अप्राप्य वस्तु की प्राप्ति की इच्छारूप तृष्णा की तरंगों से पूर्ण, अभीष्ट पदार्थ का प्रेमरूप राग व द्वेष आदि घड़ियाल वाली, ‘अमुक वस्तु कब, कैसे मिलेगी ?’ इत्यादि विचाररूप जलपक्षियों से भरी, धैर्यरूप वृक्षों को उखाड़ फेंकने वाली, अज्ञानवृत्ति दम्भ-दर्परूप भँवर के कारण पार पाने में कठिनाई वाली अत्यंत गहरी बढ़ी हुई, ऊँची-ऊँची चिंतारूप तटवाली इस संसार में एक आशानामक नदी है जिससे पार होना अत्यंत दुर्लभ है। किंतु शुद्ध अंतःकरण वाले महान योगिराज उस नदी से पार होकर ब्रह्मानंद में लीन हो के आनंदित होते हैं। अतएव आशा का त्याग सर्व-अपेक्षया श्रेयकर है।’
भर्तृहरि महाराज समझा रहे हैं कि वासना-तृष्णा से घिरा व्यक्ति सदा ही कुछ धन, सम्पत्ति, शक्ति, मान-मर्यादा, गौरव-गरिमा प्राप्त करने की चिंता में पड़ा रहता है और इनको पा लेने पर भी चिंता उसका पिंड नहीं छोड़ती। वह सोचता रहता है कि कहीं ये चीजें उससे छूट न जायें। तृष्णावश धन-सम्पत्ति अर्जित करने में भी दुःख है और उसको रखने में भी, और यदि घट जाय या कोई ले जाय तब तो फिर दुःख का कहना ही क्या ! मनुष्य पागल सा, हतबुद्धि हो जाता है। अतः नश्वर धन की अभिलाषा तथा उसके लिए प्रयत्न छोड़कर आत्मसुखरूपी धन प्राप्त करने का उद्योग करना चाहिए, जिसमें दुःख का लेश भी नहीं, सुख-ही-सुख है। आशा-तृष्णा के कारण इच्छित वस्तु के प्रति राग व इच्छा के विपरीत के प्रति द्वेष पैदा होता है। इच्छा पूरी नहीं हुई तो धैर्य नष्ट होकर क्रोध की अग्नि भड़क उठती है। इच्छा वासना के पोषण से देहाध्यास दृढ़, दृढ़तर होकर दम्भ फलने फूलने लगते हैं। इस प्रकार व्यक्ति अज्ञानवश बंधन में और भी फँसता जाता है।
पूज्य बापू जी कहते हैं- “आशा-तृष्णा के कारण मन परमात्मा में नहीं लगता। जो-जो दुःख, पीड़ाएँ, विकार हैं वे आशा तृष्णा से ही पैदा होते हैं। आशा-तृष्णा की पूर्ति में लगना मानो अपने आपको सताना है और इसको क्षीण करने का यत्न करना अपने को वास्तव में उन्नत करना है। सारा जगत आशा-तृष्णाओं से बँधा है। ‘मैं कौन हूँ?’ यह जान लो तो आशाओं के राम बन जाओगे। इच्छाएँ होती कैसे हैं ? आँखें देखती हैं, कान सुनते हैं, नासिका सूँघती है, जीभ चखती है। बाहर की चीजों के आकर्षण से इन्द्रियों पर प्रभाव पड़ता है और मन उनके साथ सहमत होता है। बुद्धि में यदि ज्ञान वैराग्य हैं तो इन्द्रियाँ विषय विकारों की आशा-तृष्णा करायेंगीं किंतु बुद्धि विषय विकार भोगने के परिणामों का ज्ञान देगी। जब परिणाम का ज्ञान होगा तो आशाएँ-तृष्णाएँ कम होती जायेंगी। जो आपके जीवन में अत्यंत जरूरी है वह करोगे तो आशाओं के दास नहीं, आशाओं के राम हो जाओगे। जैसी इच्छा हुई, आशा-तृष्णा हुई वैसा करने लगोगे तो आशाओं के दास बन जाओगे। मन में कुछ आया और वह कर लिया तो इससे आदमी अपनी स्थिति से गिर जाता है परंतु शास्त्रसम्मत रीति से, सादगी और संयम से आवश्यकताओं को पूरा करे, आशाओं – तृष्णाओं को न बढ़ाये। आवश्यकताएँ सहज में पूरी होती हैं। मन के संकल्प-विकल्पों को दीर्घ ॐकार की ध्वनि से अलविदा करता रहे और निःसंकल्प नारायण में टिकने का समय बढ़ाता रहे। ‘श्री योगवासिष्ठ’ बार-बार पढ़े। कभी-कभी श्मशान जा के अपने मन को समझाये, ‘शरीर यहाँ आकर जले उससे पहले अपने आत्मस्वरूप को जान ले, पा ले बच्चू ! ब्राह्मी स्थिति प्राप्त कर ले बच्चू !’
यदि इस प्रकार अभ्यास करके आत्मपद में स्थित हो जाय तो फिर उसके द्वारा संसारियों की भी मनोकामनाएँ पूरी होने लगती हैं।”
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2017, पृष्ठ संख्या 9,10 अंक 289
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