महाभारत में पितामह भीष्म से धर्मराज युधिष्ठिर पूछते हैं- “पितामह ! सत्पुरुषों ने कपिला गौ की ही अधिक प्रशंसा क्यों की है ? मैं कपिला के महान प्रभाव को सुनना चाहता हूँ।”
भीष्म जी ने कहाः “बेटा ! मैंने बड़े बूढ़ों के मुँह से रोहिणी (कपिला) की उत्पत्ति का जो प्राचीन वृत्तान्त सुना है, वह सब तुम्हें बता रहा हूँ। सृष्टि के प्रारम्भ में ब्रह्मा जी ने प्रजापति दक्ष को आज्ञा दी कि ‘तुम प्रजा की सृष्टि करो।’ प्रजापति दक्ष ने प्रजा के हित की इच्छा से सर्वप्रथम उनकी आजीविका का ही निर्माण किया। भगवान प्रजापति प्रजावर्ग की आजीविका के लिए उस समय अमृत का पान करके जब पूर्ण तृप्त हो गये तब उनके मुख से सुरभि (मनोहर) गंध निकलने लगी। सुरभि गंध के निकलने के साथ ही ‘सुरभि’ नामक गौ प्रकट हो गयी। उसने बहुत सी ‘सौरभेयी’ नामक गौओं को उत्पन्न किया। उन सबका रंग सुवर्ण के समान उद्दीप्त हो रहा था। वे कपिला गौएँ प्रजाजनों के लिए आजीविकारूप दूध देने वाली थीं। जैसे नदियों की लहरों से फेन उत्पन्न होता है, उसी प्रकार चारों ओर दूध की धारा बहती हुई अमृत (सुवर्ण) के समान वर्णवाली उन गौओं के दूध से फेन उठने लगा।
एक दिन भगवान शंकर पृथ्वी पर खड़े थे। उसी समय सुरभि के एक बछड़े के मुँह से फेन निकलकर उनके मस्तक पर गिर पड़ा। इससे वे कुपित हो उठे और उनका भयंकर तेज जिन-जिन कपिलाओं पर पड़ा उनके रंग नाना प्रकार के हो गये। परंतु जो गौएँ चन्द्रमा की ही शरण में चली गयीं उनका रंग नहीं बदला। उस समय क्रोध में भरे हुए महादेव जी से दक्ष प्रजापति ने कहाः “प्रभो ! आपके ऊपर अमृत का छींटा पड़ा है। गौओं का दूध बछड़ों के पीने से जूठा नहीं होता। जैसे चन्द्रमा अमृत का संग्रह करके फिर उसे बरसा देता है उसी प्रकार ये रोहिणी गौएँ अमृत से उत्पन्न दूध देती हैं। जैसे वायु, अग्नि, सुवर्ण, समुद्र और देवताओं का पिया हुआ अमृत – ये वस्तुएँ उच्छिष्ट (जूठी, अपवित्र) नहीं होतीं, उसी प्रकार बछड़ों के पीने पर उन बछड़ों के प्रति स्नेह रखने वाली गौ भी दूषित या उच्छिष्ट नहीं होती। (अर्थात् दूध पीते समय बछड़े के मुँह से गिरा हुआ झाग अशुद्ध नहीं माना जाता है।) ये गौएँ अपने दूध और घी से इस सम्पूर्ण जगत का पालन करेंगी। सब लोग चाहते हैं कि इन गौओं के पास मंगलकारी अमृतमयी दूध की सम्पत्ति बनी रहे।”
ऐसा कहकर प्रजापति ने महादेव जी को बहुत सी गौएँ और एक बैल भेंट किया। अपना नाम सार्थक करते हुए भगवान आशुतोष उतने से ही प्रसन्न हो गये। उन्होंने वृषभ (बैल) को अपना वाहन बनाया और उसी की आकृति से अपनी ध्वजा को चिह्नित किया इसीलिए वे ‘वृषभध्वज’ कहलाये। तदनंतर देवताओं ने महादेव जी को पशुओं का अधिपति बना दिया और गौओं के बीच में उन महेश्वर का नाम ‘वृषभाङ्क’ रख दिया।
इस प्रकार कपिला गौएँ अत्यंत तेज्स्विनी और शांत वर्णवाली हैं। इसी से दान में उन्हें सब गौओं से प्रथम स्थान दिया गया है। गौओं की उत्पत्ति से संबंधित इस उत्तम कथा का पाठ करने वाला मनुष्य अपवित्र हो तो भी मंगलप्रिय हो जाता है और कलियुग के सारे दोषों से छूट जाता है।”
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2017, पृष्ठ संख्या 11 अंक 289
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