पूज्य संत श्री आशारामजी बापू
शिवरात्रि का जो उत्सव है वह तपस्या प्रधान उत्सव है, व्रत प्रधान उत्सव है | यह उत्सव मिठाइयाँ खाने का नहीं, सैर-सपाटा करने का नहीं बल्कि व्यक्त में से हटकर अव्यक्त में जाने का है, भोग से हटकर योग में जाने का है, विकारों से हटकर निर्विकार शिवजी के सुख में अपने को डुबाने का उत्सव है |
‘महाभारत’ में भीष्म पितामह युधिष्ठिर को शिव-महिमा बताते हुए कहते हैं- “तत्त्वदृष्टि से जिनकी मति सूक्ष्म है और जिनका अधिकार शिवस्वरूप को समझने में है वे लोग शिव का पूजन करें, ध्यान करें, समत्वयोग को प्राप्त हो नहीं तो शिव की मूर्ति का पूजन करके हृदय में शुभ संकल्प विकसित करें अथवा शिवलिंग की पूजा करके अपने शिव-स्वभाव को, अपने कल्याण स्वभाव को, आत्मस्वभाव को जाग्रत करें |”
मनुष्य जिस भाव से, जिस गति से परमात्मा का पूजन, चिंतन, धारणा, ध्यान करता है उतना ही उसकी सूक्ष्म शक्तियों का विकास होता है और वह स्थूल जगत की आसक्ति छोड़कर सूक्ष्मतर, सूक्ष्मतम स्वरूप परमात्मा शिव को पाकर इहलोक एवं परलोक को जीत लेता है |
इहलोक और परलोक में ऐंद्रिक सुविधाएँ हैं, शरीर के सुख हैं लेकिन अपने को ‘स्व’ के सुख में पहुँचाये बिना शरीर के सुख बे-बुनियाद हैं और अस्थायी हैं | अनुकूलता का सुख तुच्छ है, आत्मा का सुख परम शिवस्वरूप है, कल्याणस्वरूप है |
जो प्रेम परमात्मा से करना चाहिए वह किसी के सौंदर्य से किया तो प्रेम द्वेष में बदल जायेगा, सौंदर्य ढल जायेगा या तो सौंदर्य ढलने के पहले ही आपकी प्रीति ढल जायेगी | जो मोहब्बत परमात्मा से करनी चाहिए वह अगर हाड़-मांस के शरीर से करोगे तो अपना और जिससे मोहब्बत करते हो उसका, दोनों का अहित होगा |
जो विश्वास भगवान पर करना चाहिए, वह विश्वास अगर धन पर करते हो तो धन भी सताता है | इसलिए अपने ऊपर कृपा कीजिये, अब बहुत समय बीत गया |
जैसे पुजारी ब्राह्मण लोग अथवा भक्तगण भगवान शिव को पंचामृत चढ़ाते हैं, ऐसे ही आप पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश – इन पंचभूतों से बने हुए पंचभौतिक पदार्थों का आत्मशिव की प्रसन्नता के लिए सदुपयोग करें और सदाचार से जीयें तो आपकी मति सत्-चित्-आनन्दस्वरूप शिव का साक्षात्कार करने में सफल हो जायेगी |
जो पंचभूतों से मिश्रित जगत में कर्ता और भोक्ता का भाव न रखकर परमात्मशिव के संतोष के लिए तटस्थ भाव से पक्षपात रहित, राग-द्वेष रहित भाव से व्यवहार करता है वह शिव की पूजा ही करता है |
पंचभूतों को सत्ता देने वाला यह आत्मशिव है | उसके संतोष के लिए, उसकी प्रसन्नता के लिए जो संयम से खाता पीता, लेता-देता है, भोग-बुद्धि से नहीं निर्वाह बुद्धि से जो करता है उसका तो भोजन करना भी पूजा हो जाता है |
कालरात्रि, महारात्रि, दारूणरात्रि, अहोरात्रि ये जो रात्रियाँ हैं, ये जो पर्व हैं इन दिनों में किया हुआ ध्यान, भजन, तप, जप अनंतगुना फल देता है | जैसे किसी चपरासी को एक गिलास पानी पिला देते हो, ठीक है, वो बहुत-बहुत तो आपकी फाइल एक मेज से दूसरे मेज तक पहुँचा देगा, किन्तु तुम्हारे घर पर प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति पानी का प्याला पी लेता है तो उसका मूल्य बहुत हो जाता है | इसलिए पद जितना-जितना ऊँचा है उनसे संबंध रखने से उतना ऊँचा लाभ होता है | ऊँचे-में-ऊँचा सर्वराष्ट्रपतियों का भी आधार, चपरासियों का भी आधार, संत-साधु सबका आधार परमात्मा है, तुम परमात्मा के नाते अगर थोड़ा बहुत भी कर लेते हो तो उसका अनंत गुना फल होना स्वाभाविक है |
मन सुखी होता है, दुःखी होता है | उस सुख-दुःख को भी कोई सत्यस्वरूप देख रहा है, वह कल्याणस्वरूप तेरा शिव है, तू उससे मुलाकात कर ले |
जो शिवरात्रि को उपवास करना चाहे, जप करना चाहे वह मन ही मन शिवजी को कह दे :
देवदेव महादेव नीलकण्ठ नमोऽस्तु ते |
कर्तुमिच्छाम्यहं देव शिवरात्रिव्रतं तव ||
तव प्रभावाद्देवेश निर्विघ्नेन भवेदिति |
कामाद्याः शत्रवो मां वै पीडां कुर्वन्तु नैव हि ||
‘देवदेव ! महादेव ! नीलकण्ठ ! आपको नमस्कार है | देव ! मैं आपके शिवरात्रि-व्रत का अनुष्ठान करना चाहता हूँ | देवेश्वर ! आपके प्रभाव से यह व्रत बिना किसी विघ्न बाधा के पूर्ण हो और काम आदि शत्रु मुझे पीड़ा न दें |’
(शिवपुराण, कोटिरूद्र संहिता अ. 37)
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