श्री भर्तृहरि महाराज लिखते हैं-
धन्यानां गिरिकन्दरेषु वसतां ज्योतिः परं ध्यायता-
मानन्दाश्रुकणान्पिबन्ति शकुना निःशंकमंकेशयाः।
अस्माकं तु मनोरथोपरचितप्रासादवापीतट-
क्रीडाकाननकेलकौतुकजुषामायुः परं क्षीयते।।
‘पर्वत कन्दरा में निवास करने वाले और परब्रह्म परमात्मा का ध्यान करने वाले जिन महानुभावों के आनंद के अश्रुओं को उनकी गोद में बैठे हुए पक्षीगण निर्भय होकर पान करते हैं, वास्तव में उन्हीं पुण्यात्माओं का जन्म इस संसार में सफल है क्योंकि मनमाने भवन, बावड़ी और उपवन में क्रीड़ा करने की अभिलाषा करने वाले हमारे जैसे सभी मनुष्यों की आयु तो वृथा ही क्षीण होती चली जाती है।’ (वैराग्य शतकः14)
मनुष्य कितना नासमझ है ! यह निरंतर अनावश्यक, व्यर्थ की चीजों के पीछे पड़ा रहता है। अपने मन को समझना चाहिए कि ‘ऐ मन ! शांत हो, निर्विकार हो। बीते हुए की चिंता न कर। भविष्य के संबंध में विचित्र-विचित्र कल्पनाएँ और विषय भोग की अभिलाषा न कर। भ्रम को दूर कर। भाग्य की अस्थिरता का विचार कर, आत्मज्ञानरूपी रत्न प्राप्त करने के उद्योग में लग जा।’
जब संसार एवं काम-वासना से अनासक्ति हो, चित्तवृत्तियाँ सहज में एक परमात्मा में ही शांत हों, ऐसे आध्यात्मिक माहौल में रहने का सौभाग्य प्राप्त हो तो जीवन कितना धन्य है ! इससे बढ़कर कौन सा जीवन चाहिए। अविनाशी, निर्विकारी, महत् ब्रह्म का ध्यान करना चाहिए तथा आत्मज्ञआन और आत्मसुख प्राप्त करना चाहिए। ध्यान की मुद्रा में रम्य नदी-तट पर, शांत एकांत स्थान में बैठे हुए विचार करे कि ‘इस नश्वर संसार की असारता पर विचारते हुए मैं कब उस आत्मानंद की दशा को प्राप्त कर सकूँगा ? कब मेरे नेत्रों से आनंदाश्रु छलक पड़ेंगे ?’
हमें यह भी समझ लेना चाहिए कि हमारी सभी मान्यताओं का अद्वैत आत्मा में शांत होना, चित्त के संकल्प-विकल्पों का कम होते-होते आत्मा में शांत हो जाना यही वास्तविक एकांत है। यह वन में अकेले रहकर मनमुख साधना से नहीं होता, यह तो किन्हीं महापुरुष की छत्रछाया में गुरुमुख रहकर ही साध्य होता है।
दूसरा, कालानुरूप भी देखें तो यातायात के साधनों का अत्यधिक विकास होने से बाहरी एकांत भी आज कठिन हो गया है इसलिए पूज्य बापू जी के आश्रमों में मौन-मंदिरों का निर्माण किया गया है।
‘श्री नारद पुराण’ (पूर्व भाग-द्वितीय पाद 61वाँ अध्याय) में आता है कि शुकदेव जी सनत्कुमारजी से कहते हैं- “मनुष्य धन का संग्रह करते-करते पहले की अपेक्षा ऊँची स्थिति को प्राप्त करके भी कभी तृप्त नहीं होते, वे और अधिक धन कमाने की आशा लिए हुए ही मर जाते हैं। इसलिए विद्वान पुरुष सदा संतुष्ट रहते हैं (वे धन की तृष्णा में नहीं पड़ते)। संग्रह का अंत है विनाश, सांसारिक ऐश्वर्य की उन्नति का अंत है उस ऐश्वर्य की अवनति। संयोग का अंत है वियोग और जीवन का अंत है मरण। तृष्णा का कभी अंत नहीं होता। संतोष ही परम सुख है। अतः पंडितजन इस लोक में संतोष को ही उत्तम धन कहते हैं। आयु निरंतर बीती जा रही है। वह पलभर भी विश्राम नहीं लेती। जब अपना शरीर ही अनित्य है, तब इस संसार की दूसरी किस वस्तु को नित्य समझा जाय। जो मनुष्य सब प्राणियों के भीतर मन से परे परमात्मा की स्थिति जानकर उन्हीं का चिंतन करते हैं वे परम पद का साक्षात्कार करते हुए शोक के पार हो जाते हैं।”
पूज्य बापू जी की अमृतवाणी में आता है- “आत्मज्ञान पाने में जो मजा है, ऐसा मजा किसी में नहीं। हवाई जहाज में, हेलिकॉप्टर में, प्रधानमंत्री बनने में, देवता बनने में कोई मजा नहीं है। जो ब्रह्मज्ञानी को विशुद्ध आनंद आता है, ऐसा आनंद किसी के पास नहीं होता है।
ब्रह्मज्ञानी सदा प्रसन्न होते हैं लेकिन जिन अर्थों में आप प्रसन्नता मानते हो, उन अर्थों में उनकी प्रसन्नता नहीं है। वे शांत होने की भी इच्छा नहीं करते और खुश रहने की भी इच्छा नहीं करते। क्यों ? क्योंकि इच्छा उस चीज की होती है जो नहीं है। अशांत व्यक्ति शांत होने की इच्छा करेगा, नाखुश व्यक्ति खुश होने की इच्छा करेगा, दुःखी व्यक्ति सुखी होने की इच्छा करेगा। ब्रह्मज्ञानी महापुरुष को कोई इच्छा नहीं होती क्योंकि वे समझते हैं कि ‘इच्छामात्र नासमझी से उठती है और मन की कल्पना है, मनोमय शरीर का खेल है। अन्नमय शरीर का अपना खेल है, मनोमय शरीर का अपना खेल है। इन दोनों खेलों को जो देख रहा है, दोनों खेलों को जो सत्ता दे रहा है वह खिलाड़ी मैं स्वयं हूँ।’ इसीलिए वे सदैव प्रसन्न रहते हैं। आत्मिक सूझबूझ के धनी होने से आत्मधन से तृप्त रहते हैं।
वसिष्ठ जी कहते हैं- “हे राम जी ! ब्रह्मज्ञान से जो आनंद होता है ऐसा और किसी से नहीं होता। ज्ञानवान निरावरण होकर स्थित होते हैं और ऐसे स्थित होने से वे जिस शांति, सुख, ज्ञान व ऊँचाई से तृप्त रहते हैं वह अन्य किसी साधन से नहीं मिलती।” काम किया, सेवा की…. यह सब किया तब किया पर जब सत्संग की बात को पकड़ के अपनी बना लें। ऐसा नहीं कि सुन के छोड़ दें। जो वचन सुनें उनको अपना बना लें। उनके ऊपर अमल करें।
बिना अपने आत्मा को पहचाने दुःखों का अंत नहीं होता। पूछो भरत जी को….. इसलिए तो 14 साल बैठ गये राम जी की खड़ाऊँ ले के आत्मज्ञान के लिए। आत्मज्ञान के बिना दुःख नहीं मिटता।
कभी न छूटे पिंड दुःखों से जिसे ब्रह्म का ज्ञान नहीं।
वे बड़े अभागे हैं जो संसारी चीजों में आसक्त होते हैं। थोड़ी देर के लिए लगा कि ‘हाश ! मैं सुखी हूँ।’ फिर भी उनसे विमुख हुए बिना आत्ममपद नहीं मिलता। राजाओं को राज्य मिल गया, ‘हाश !’ किया फिर यदि उनसे विमुख हुए तभी आत्मपद मिला।
इस आत्मपद में कोई ताप नहीं, कोई संताप नहीं। ताप-संताप तो मन में होता है, शरीर में होता है। पित्त प्रकोप शरीर में होता है, अशांति मन में होती है, उनको देखने वाले तुममें पाप-ताप-संताप नहीं होता। हे द्रष्टा-साक्षीस्वरूप ! भूल्या जभी आपनूँ तभी हुआ खराब। अपने साक्षीस्वरूप में स्थित हो जाओ।”
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2017, पृष्ठ संख्या 24,25 अंक 291
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