आद्य शंकराचार्य जी का जीवन

आद्य शंकराचार्य जी का जीवन


जगद्गुरु आद्य शंकराचार्य जी का जीवनकाल मात्र 32 वर्ष का था। धर्म व दर्शन के क्षेत्र में तो उनका बहुत बड़ा योगदान है। मानव जीवन के अन्य पहलुओं के लिए भी उनके सद्ग्रंथों से अमूल्य प्रेरणाएँ मिलती हैं।

बालकों के लिए आदर्शः शंकर

आदर्श बालक का हृदय निर्मल व पारदर्शी होता है। वह जो सोचता है वही कहता है और उसी के अनुसार आचरण करता है। उसकी वह निखालिसता और सरलता ही सबको उसकी ओर आकृष्ट करती है।

एक आदर्श बालक जिस लक्ष्य को अपना लेता है,  उसको भूलता नहीं। लक्ष्य का निश्चय करके वह तुरंत उसके पूरा करने में जुट जाता है। वह धीर होता है और किसी भी परिस्थिति में विचलित नहीं होता। इन सब गुणों से युक्त शंकर एक विलक्षण बालक थे। उनकी अल्प आयु में ही उनके पिता का देहावसान हो गया था। उन्होंने मृत्यु को निकट से देखा। छोटी सी उम्र में ही वैराग्य के बीज उनके कोमल चित्त में अंकुरित हो गये। लगभग 7 वर्ष की उम्र में उन्होंने चारों वेदों व वेदांगों का अध्ययन पूर्ण कर लिया। कितनी तीव्र लगन थी उनमें ! कोई भी बालक ऐसी प्रतिभा को प्राप्त कर सकता है यदि वह शंकर की तरह जितेन्द्रिय, एकाग्रचित्त और जिज्ञासु बने तो।

गुरुभक्तों के लिए प्रेरणास्रोत शंकर

अब बालक शंकर को ब्रह्मजिज्ञासा हुई। अतः किन्हीं ब्रह्मनिष्ठ सद्गुरु की खोज में वे अपने घर से निकल पड़े। श्री गोविंदपादाचार्य जी को पाकर शंकर बहुत प्रसन्न हुए। गुरु से विनीत भाव से प्रार्थना कीः “अधीही भगवो ब्रह्म !” अर्थात् भगवन् ! मुझे ब्रह्मज्ञान से अनुगृहीत करें।

बालक को देखकर उन्होंने प्रश्न कियाः “वत्स ! तुम कौन हो ?” बस, अपना परिचय देते हुए बालसंन्यासी शंकर के मुँह से वाग्धारा प्रवाहित हो उठीः

न भूमिर्न तोयं न तेजो न वायु-

र्न खं नेन्द्रियं वा न तेषां समूहः।।

अनैकान्तिकत्वात्सुषुप्त्येकसिद्ध-

स्तदेकोऽवशिष्टः शिवः केवलोऽहम्।।

‘मैं पृथ्वी नहीं हूँ, जल भी नहीं, तेज भी नहीं, न वायु, न आकाश, न कोई इन्द्रिय अथवा न उनका समूह भी। मैं तो सुषुप्ति में भी सर्वानुगत एवं निर्विकार रूप से स्वतः सिद्ध हूँ, सबका अवशेषरूप एक अद्वितीय केवल शिवस्वरूप हूँ।’

गुरुगोविंदपादाचार्य जी ने बालक शंकर को अपने शिष्य के रूप में स्वीकार कर लिया और उन्हें विधिवत् संन्यास की दीक्षा दी। वे गुरुचरणों में रहकर ब्रह्मसूत्र, महावाक्य चतुष्टय आदि की गहन शिक्षा लेने लगे।

एक बार नर्मदा नदी में बाढ़ आ गयी। नदी का पानी बढ़कर गुरुगोविंदपादाचार्यजी की गुफा तक पहुँच गया। वे ध्यान में लीन थे। उन्हें किसी प्रकार का विक्षेप न हो इसलिए संन्यासी शंकर सेवा में तल्लीन थे। पानी बड़ी तेजी से बढ़ रहा था। परिस्थिति बड़ी विकट थी पर शंकर की गुरुभक्ति व सेवानिष्ठा भी अटूट थी। शंकर ने उठाया अपना कमंडल और गुफा के द्वार पर रख दिया। बस, नर्मदा की बाढ़ उसी कमंडल में अंतर्लीन हो गयी। शंकर का समर्पण और ब्रह्मज्ञान पाने की तड़प देखकर गुरुदेव का हृदय छलक पड़ा और गुरुकृपा ने शंकर को ‘स्व’ स्वरूप ब्रह्मस्वरूप में स्थित कर दिया।

इन्हीं शंकराचार्य जी ने अद्वैत वेदांत का प्रचार कर भारतीय संस्कृति की धारा में प्रविष्ट हो चुके पलायनवाद, दुःखवाद, भेद-दर्शन, भ्रष्टाचार आदि दोषों को हटाया था।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2017, पृष्ठ संख्या 13,26 अंक 292

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