ब्रह्मज्ञानी के निंदक को भगवान भी देते हैं त्याग !

ब्रह्मज्ञानी के निंदक को भगवान भी देते हैं त्याग !


(संत कबीर जयंतीः 9 जून)

एक बार संत कबीर जी अपने शिष्यों व अन्य साधु-संतों की मंडली के साथ सत्संग, भगवन्नाम कीर्तन करते-कराते अनेक तीर्थक्षेत्रों में भ्रमण करते हुए वृंदावन पहुँचे। दूर-दूर से भक्त उनके दर्शन करने आने लगे और सत्संग अमृत का पान कर परितृप्त होते गये। वहाँ से थोड़ी दूरी पर संस्कृत के प्रकांड विद्वान पंडित हरिव्यास जी भागवत की कथा करते थे। उनको भगवान श्रीहरि के दर्शन भी होते थे।

एक दिन कुछ श्रोता संत कबीर जी का सत्संग सुनने के बाद हरिव्यास जी के पास गये और उनसे पूछाः “महाराज जी ! कबीरजी जो कथा करते हैं, वह आपकी समझ से कैसी है ? आपके यहाँ से अधिक भीड़ वहाँ होती है तथा उनकी कथा को श्रोतागण बड़े प्रेम से सुनते हैं।”

हरिव्यासजी ने झुंझलाकर कहाः “कबीर का ज्ञान नवीन है। वे भक्तिरस की बात नहीं जानते, केवल नीरस निर्गुणवाद का समर्थन करते हैं, जो सभी के लिए सुलभ नहीं है। उनकी बातें कुछ ऊटपटांग भी होती हैं।” श्रोतागण मौन हो गये।

हरिव्यास जी ने जिस दिन कबीर जी की निंदा की, उसी दिन से उन्हें भगवान के दर्शन होने बंद हो गये। हरिव्यासजी व्याकुल हो गये। उन्होंने अन्न जल त्यागकर कई दिनों तक अनशन भी किया पर उन्हें पुनः श्रीहरि के दर्शन नहीं हुए। उनकी घबराहट बढ़ती गयी और अशांत, खिन्न होकर अंत में वे अपने एक परिचित संत के पास गये, जो बड़े सिद्ध महापुरुष थे। हरिव्यासजी ने उन्हें अपना दुःख सुनाया।

संत बोलेः “तुमने अपने पांडित्य के बल पर किसी महापुरुष की निंदा की है। इसी कारण तुमको श्रीहरि ने त्याग दिया है। किसी भी सत्पुरुष को कोई अज्ञानी अपनी मति-गति से तौले और उसे अशांति, पीड़ा, संताप हो जाये तो इसमें आश्चर्य नहीं करना चाहिए। यह करूणासिंधु भगवान का मंगलमय विधान है। अपने अपने अधम अहंकार को त्यागो और जिन महापुरुष की निंदा की, उनसे क्षमा याचना करो। श्रीहरि तुम्हें पुनः दर्शन देंगे और तुम्हारी अशांति भी दूर होगी।”

हरिव्यासजी बहुत लज्जित हुए तथा पश्चाताप करने लगे। उन्होंने संत कबीर जी से माफी माँगी तथा व्यथित हृदय से उनकी स्तुति की। कबीर जी ने उनका अपराध क्षमा करते हुए कहाः “अब तुम पवित्र हो गये। आज से पुनः तुम्हें नारायण के दर्शन देंगे। परंतु तुम्हें किसी की निंदा नहीं करनी चाहिए। भगवान का भजन अनेक प्रकार से होता है, जिसको जो मार्ग सुलभ हो, उसी मार्ग से करे। किसी के मार्ग की निंदा नहीं करनी चाहिए अन्यथा स्वयं का ही अहित होता है।”

संत कबीर जी के वचन सुन हरिव्यास जी का हृदय आनंद, शांति व भगवद्भाव से भर गया। उन्हें उसी समय भगवान के दर्शन हुए। उनका पांडित्य का अभिमान नष्ट हो गया और वे एक सच्चे भगवद्भक्त बन गये तथा अपने साथ दूसरों को भी संतों के दैवी कार्यों में सहभागी बनाते हुए अनेकों का जीवन सार्थक बनाने में जुट गये।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2017, पृष्ठ संख्या 14, अंक 293

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