भगवत्पाद साँईं श्री लीलाशाह जी महाराज
आत्मा स्वतः सिद्ध है। केवल महापुरुष एवं सदगुरु ही उसका ज्ञान कराते हैं कि ‘भाई ! तुम जो स्वयं को शरीर समझ रहे हो, वह तुम नहीं हो। तुम आनंदस्वरूप परमात्मा हो, न कि जीव।’
जो आँखें रूपों को देखती हैं, वे जड़ हैं। शरीर न सुंदर है न प्रेमस्वरूप और न ‘सत्’ ही है। यह शरीर रूधिर (रक्त), रोगाणु, मांस, मैल का थैला और मुर्दा है। इस जैसी गंदी वस्तु दूसरी कोई भी दुनिया में नहीं है।
मन दौड़ता है रूप आदि विषयों और गंदे पदार्थों की ओर। किंतु यदि ‘यह जो कुछ दिख रहा है वास्तव में है ही नहीं’ – ऐसा विवेक जगाया तो फिर मन जायेगा कहाँ ? ‘वे विषय, पदार्थ हैं ही नहीं’ – ऐसा समझकर उनसे दूर रहना चाहिए। इसे ‘वैराग्य’ कहा जाता है। ‘अभ्यास’ का अर्थ है – बार आत्मा का चिंतन करना अर्थात् उसका स्मरण करना, ध्यान करना, उसका ज्ञान-कथन करना। आनंद में स्थिर होने से मन वश में हो जायेगा। बहुत अभ्यास करने से मन का बिल्कुल अभाव हो जायेगा।
शरीर का जैसा प्रारब्ध होगा, वैसे इधर-उधर आता-जाता रहेगा और काम आदि करता रहेगा। यह शरीर न पहले था न बाद में रहेगा और न बीच में ही है, केवल सच्चिदानंद ही है। आत्मज्ञानियों-सत्पुरुषों का यही निश्चय है। तुम भी सदैव यही निश्चय रखो कि ‘मैं सच्चिदानंद-ही-सच्चिदानंद हूँ। सब कुछ मैं हूँ और अन्य कुछ कुछ नहीं।’
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2017, पृष्ठ संख्या 7, अंक 295
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