संत एकनाथ जी महाराज द्वारा विरचित सद्ग्रंथ ‘श्रीमद् एकनाथी भागवत’ (अध्याय 23) में एक महानतम रहस्य का उद्घाटन करने से पूर्व मन की चालबाजी का प्रतिपादन करते हुए भगवान श्रीकृष्ण उद्धवजी से कहते हैं- “मन ने सबको अपने वश में किया है किंतु मन किसी के वश में नहीं रहता।
इन्द्रियों का स्वामी है मन
आप कहेंगे कि ‘इन्द्रियाँ मन पर नियंत्रण करेंगी।’ लेकिन वे इन्द्रियाँ भी मन के अधीन होती हैं। जब इन्द्रियों को स्वाधीन करके मन ही किसी विषय में एकाग्र होता है तब इन्द्रयों का सामर्थ्य सचमुच निष्फल हो जाता है। इन्द्रियाँ एवं विषय यदि एक हो जायें परंतु उस वक्त मन की वृत्ति बदल जाय तो उन विषयों का उपभोग नहीं हो पाता क्योंकि इन्द्रियों को उपभोग की स्फूर्ति ही नहीं मिलती। जब मन के धर्म आसक्तिरहति हो जाते हैं तब इन्द्रियों की अपनी इच्छा बिल्कुल नहीं चलती। मन महाबलवान है, उसके आगे बेचारी इन्द्रियाँ क्या !
मन को नियंत्रित करने की युक्ति
हे उद्धव ! जिस मन को सुगमता से काबू नहीं कर सकते, उसे नियंत्रित करने की युक्ति और उसका मर्म तुम्हें बताता हूँ, ध्यान देकर सुनो। जिस प्रकार हीरे से हीरा काटते हैं, उसी प्रकार मन से ही मन को काबू में करना चाहिए। लेकिन जब स्वयं श्री सदगुरु भगवान की कृपा होती है तभी यह हो सकता है। मन गुरु कृपा की क्रीतदासी (खरीदी गयी दासी) है। मन सदगुरु से सदा भयभीत रहता है। उसे गुरुचरणों में लगाने से ही साधकों को संतोष मिलता है।
इस मन का एक उत्तम गुण यह है कि यदि यह स्वयं परमार्थ की ओर लग जाय तो (सालोक्य, सामीप्य, सारूप्य व सायुज्य-इन) चारों मुक्तियों को दासी बनाकर रखता है और परब्रह्म-परमात्मा का हस्तामलकवत् (हाथ पर रखे आँवले की तरह सुस्पष्ट एवं प्रत्यक्ष) अनुभव (साक्षात्कार) करा देता है।
मन ही मन का द्योतक (बोधक) है, मन ही मन का साधक है, मन ही मन का बाधक है और मन ही मन का घातक है। जिस प्रकार बाँस अपना जंगल बढाता है और एक बाँस दूसरे से रगड़ने पर जो चिन्गारी निकलती है उससे स्वयं ही अपने को जला डालता है, उसी प्रकार जब मन ही मन को मारने (नियंत्रित करने) की इच्छा करता है, तभी वह सदगुरु की शरण में ले जाता है और उनके वचनों में विश्वास रखकर अभिमानरहित हो के गुरु भजन करवाता है। सदगुरु की पूर्ण कृपा होने पर मन ही मन को (परमात्म-प्राप्ति का) लक्ष्य दिखाता है और अपने सुख से सुखी होकर खुद पर ही प्रसन्न होता है। जब मन ही मन पर प्रसन्न हो जाता है, तब वृत्ति अभिमानरहित हो जाती है, मानो मन स्वयं ही साधक को निज का समाधान (आत्मसंतोष) साध्य करा रहा हो। गुरुकृपा का प्रसाद मिलने पर स्वयं ही मनोजय की पताका (ध्वजा) फहराता है और साधक के हाथ में देता है।
इस प्रकार साधक का मन स्वयं ही अपनी विजय करा देता है और अंत में सदगुरु के आत्मज्ञान में स्वयं आत्मस्वरूप में पूर्णतः लीन हो जाता है। जिस प्रकार नमक का टुकड़ा समुद्र के जल में घुलकर स्वयं समुद्र हो जाता है, उसकी प्रकार साधक भी अभिमानरहित होते ही मैं-मेरा पन नष्ट कर स्वयं पूर्ण ब्रह्म हो जाता है, यह ध्यान में रखो। फिर उसकी आत्मदृष्टि की सारी सृष्टि में केवल एक मैं (परब्रह्म-परमात्मा) ही दिखाई देता हूँ। द्वन्द्व की त्रिपुटी नष्ट हो जाती है और सुख-दुःख का पीछा छूट जाता है। फिर कैसा सुख और कैसा दुःख ? कैसा बंधन और कैसा मोक्ष ? पंडित कौन और मूर्ख कौन ? सर्वत्र केवल एक ही ब्रह्म ही दिखाई देता है। फिर वहाँ कौन देवता और कौन भक्त ? कौन शांत और कौन अशांत ? द्वैत-अद्वैत विलीन हो जाता है और केवल एक परब्रह्म ही सदा आनंदस्वरूप से रहता है। वहाँ क्रिया और कर्म नष्ट हो जाते हैं, फिर वहाँ कनिष्ठ, उत्तम और मध्यम की क्या गति ? परिपूर्ण ब्रह्म ही सर्वत्र भर जाता है। फिर कैसे शास्त्र और कैसे वेद ? कैसी बुद्धि और कैसा बोध ? वहाँ तो भेद ही पूर्णतः नष्ट हो जाता है और परिपूर्ण परब्रह्म सर्वत्र समा जाता है।” देखो, इस प्रकार मनोजय से अपना इस स्थिति में पहुँचता है। यह स्वयं भगवान ने बताया है इसलिए इसमें कोई संदेह नहीं।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2017, पृष्ठ संख्या 24-45 अंक 297
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