भगवान श्रीकृष्ण उद्धवजी के कहते हैं- “हे उद्धव ! इस जगत में केवल दो ही अवस्थाएँ हैं। पहली विरक्ति और दूसरी विषयासक्ति। तीसरी कोई अवस्था ही नहीं।
जहाँ विवेक से विषयों की आसक्ति क्षीण होती है वहाँ परिपूर्ण वैराग्य बढ़ता है और जहाँ विवेक क्षीण होने से वैराग्य भी क्षीण होने से वैराग्य भी क्षीण होने लगता है, वहाँ ज्ञानाभिमान से विषयाचरण होने लगता है। इसलिए ब्रह्मज्ञान होने तक जो पूर्णरूप से वैराग्य रखता है और वैराग्य से युक्त होकर जो अनन्य भाव से सदगुरु की शरण लेता है, वही आत्मज्ञान के उपदेश का सच्चा अधिकारी है ऐसा समझना चाहिए।
जो वैराग्य के साँचे में ढला हुआ है, विवेक से परिपूर्ण है, जो प्राणों की बाजी लगाकर सदगुरु सेवा में बिक चुका है और अनन्य भाव से उनके चरणों में तल्लीन है, अपनी महानता भुलाकर गुरुसेवा में रंक बनने को भी जो तैयार है, गुरुसेवा के प्रति जिसका पूर्ण सदभाव रहता है, जो इन्द्रादि बड़े-बड़े देवताओं को भी सदगुरु का दास मानता है और एक सद्गुरु को छोड़ के हरि-हर (भगवान विष्णु व शिव जी) को भी श्रेष्ठ नहीं मानता, जिसमें गर्व (अभिमान) और मद का नामोनिशान नहीं, जिसमें काम-क्रोध नहीं, जिसे विकल्प-भेद पसंद नहीं – ऐसे शिष्य को ही पूर्णरूप से शुद्ध परमार्थ का अधिकारी समझना चाहिए।
तन, मन, धन एवं वचन की आसक्ति तथा अपने बड़प्पन की अकड़ छोड़कर जो अनन्य भाव से सद्गुरु की शरण जाता है, उसे ही साधुता की दृष्टि से सत्शिष्य समझना चाहिए। अपनी प्रतिष्ठा एवं लज्जा छोड़कर जो ब्रह्मज्ञान का याचक बनता है और सद्गुरु का अमृतोपदेश ग्रहण करने के लिए चातक (स्वाति नक्षत्र में होने वाली वर्षा की एक बूँद के लिए तरसने वाला पक्षी, जो अन्य जल नहीं पीता) बनकर रहता है, उसे अवश्य ही उपदेश करना चाहिए।”
एकनाथी भागवत, अध्याय 19 से।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2017, पृष्ठ संख्या 21 अंक 299
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