-स्वामी श्री अखंडानंद जी सरस्वती
हाथ जोड़कर परमेश्वर को मानना ‘वह कहीं है’ और ‘कुछ है’ यह दूसरी चीज है। हमारे अपने भीतर परमेश्वर को मानना यह दूसरी चीज है। तो हम अपने भीतर परमेश्वर को क्यों नहीं देख पाते ? इसलिए कि दुकान से, व्यापार से, बाहर देखने से फुरसत ही नहीं है। रुचि होय, दिलचस्पी होय तो सब समय निकल आता है। तो बोले यदि परब्रह्म-परमात्मा को तुम्हें ढूँढना है तो आओ, ढूँढो ! हमारा परमेश्वर जो है, बड़ा ही विलक्षण है। देखो, कई लोग ऐसा मानते हैं कि ‘परमेश्वर तो केवल हाथ जोड़ने की ही वस्तु है। सात दिन में एक बार हाथ जोड़ लें, काम बन गया। वह कभी मिलने वाला नहीं है। व्यवहार में आने वाला नहीं है। बस काम करते जाओ। हम बताते जाते हैं जैसे-जैसे उसके कानून हैं-यह, वह… उसके कानून के अनुसार काम करते जाओ।’
यदि परमेश्वर हमारा निराकार है तो निर्विशेष साक्षात् अपरोक्ष अपना आत्मा है। साक्षात् अनुभव होता है अपने आत्मा के रूप में। और यदि वह साकार है तो वैकुंठ में, गोलोक में, अपने अवतार के समय भक्तों पर अनुग्रह करके प्रत्यक्ष प्रकट होता है। ये लोग विश्वास विश्वास (यकीन यकीन) बोलते हैं न, वे विदेशी और विधर्मी संस्कारों से संस्कृत होकर ऐसा मानने लगे हैं कि ‘ईश्वर तो केवल विश्वास (यकीन) की वस्तु है।’ यह हमारा वैदिक धर्म नहीं है। जिसके बारे में बार-बार यह कहा जाय ‘यत् साक्षात् अपरोक्षात् ब्रह्म।’ उस पर यह दोष न लगायें कि वह तो कभी किसी को देखता ही नहीं है, यह आक्षेप ठीक नहीं है। बात यह है कि व्यक्ति वेद, उपनिषद् का स्वाध्याय तो करता नहीं अपितु बाइबिल और कुरान की निराकारता को मानकर वैदिक धर्म पर आक्षेप करने लगता है।
यह वैदिक सनातन धर्म को छोड़कर कहीं किसी भी धर्म में नहीं है कि इस दिखने वाले जगत का अभिन्न निमित्तोपादान कारण ( उपादान कारण याने वह सामग्री जिससे कोई वस्तु तैयार हो तथा निमित्त कारण याने जिसने उस वस्तु को बनाया। घड़े का उपादान कारण मिट्टी है और निमित्त कारण कुम्हार है। समस्त जगत का उपादान कारण व निमित्त कारण ब्रह्म है और वह जगत से अभिन्न भी है। अतः ब्रह्म जगत का अभिन्न निमित्तोपादान कारण है।) परब्रह्म परमात्मा है। माटी भी वही, कुम्हार भी वही है। बना भी वही, बनाता भी वही है ! चलता भी वही ! चलाता भी वही ! यह समग्र साकार सृष्टि उसी का रूप है। शालिग्राम भी परमात्मा है, नर्मदेश्वर भी परमात्मा है और यह महात्मा भी परमात्मा है।
यह बात अन्य धर्मों में नहीं आ सकती क्योंकि उनका परमात्मा जो है वह जगत का अभिन्न निमित्तोपादान कारण नहीं है। जबकि हमारे यहाँ अनुभूति हो जाने पर परमात्मा के सिवाय और कुछ है ही नहीं। यह जो स्थिति है आप उसको काहे को दूसरे मजहबों से मिलाते हैं ? और कहते हैं हो, ‘सब एक है ! सब एक है !’ अरे बाबा, मेल मिलाप रखने के लिए सब एक है, दोस्ती करने के लिए सब एक है परंतु जहाँ तत्त्व का निर्णय होगा वहाँ ? कहाँ वह सातवें आसमान में छिपा हुआ ! कहाँ वह केवल निराकार रहने वाला ! कहाँ वह कभी भी किसी के अनुभव में न आने वाला और हमेशा हाथ जोड़ने का विषय ! परंतु हमारे वैदिक धर्म में तो चलने में, फिरने में, बोलने में – सारी क्रियाओं में वही-वही भरा हुआ है। अनुभवरूप से भी वही अद्वितीय है और व्यावहारिक रूप से भी वही सर्वात्मा है, वही सर्व है। यह बात हमारे औपनिषद् सिद्धांत की ऐसी विलक्षण है कि यह देखकर आश्चर्यचकित हो जाना पड़ता है।
स्रोतः ऋषि प्रसाद दिसम्बर 2017, पृष्ठ संख्या 27 अंक 300
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