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बेमन का भगवन्नाम भी करता है अपना काम


एक बार प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कुछ युवकों के साथ कारागृह की कालकोठरी में बैठे हुए थे। उनमें से जो विशेष तार्किक थे उन्होंने पूछाः “ब्रह्मचारी जी ! यह हमारी समझ में नहीं आता कि आप बेमन से भी जो ‘श्रीकृष्ण गोविन्द हरे मुरारी ! हे नाथ नारायण वासुदेव !’ कहते हैं, इससे क्या लाभ ? इससे भी कुछ हो सकता है ?” कैदियों को कारागृह में रस्सी बटने का काम दिया गया था।

ब्रह्मचारी ने पूछाः “तुम जब रस्सी बटते हो तो क्या तुम्हारा मन बिल्कुल रस्सी बटने में लगा रहता है या और भी कुछ सोचता रहता है ?”

“बहुत बातें सोचता रहता है। केवल हाथ से रस्सी बटते हैं, मन तो भटकता ही रहता है।”

“अच्छा तो क्या ऐसी हालत में काम पूरा हो जाता है ?”

“हाँ, काम तो हो ही जाता है।”

“तुम भोजन करते हो तब तुम्हारा मन बिल्कुल एकाग्र होकर भोजन में ही लगा रहता है ?”

“नहीं, मन तो इधर-उधर भटकता रहता है।”

“तो क्या ऐसी हालत में तुम्हारा पेट भर जाता है ?”

“हाँ, पेट भरने में क्या संदेह है ? रोटी मुँह की जगह नाक में कभी नहीं जाती।”

ब्रह्मचारी जी ने फिर पूछाः “जब तुम स्कूल कालेज में पढ़ते थे तो तुम्हारा चित्त एकदम अध्यापक के व्याख्यान में ही लग जाता था या व्याख्यान सुनते-सुनते मन कुछ और भी सोचने लगता था ?”

“बहुधा मन व्याख्यान सुनते-सुनते और भी अनेक बातें सोचता था। निर्विकल्प होकर व्याख्यान में ही चित्त तो कभी ही लगा होगा।”

“फिर ऐसे व्याख्यान सुनते-सुनते भी तुम पास हो जाते थे।” उन्होंने इसे स्वीकार किया।

असली बात यह है कि बिना मन के तो मुख से कभी शब्द निकल ही नहीं सकता। मन की कई शक्तियाँ हैं। एक मन तो संकल्प-विकल्प करता ही है, अपनी दूसरी शक्ति से वह इन्द्रियों से कार्य कराता रहता है। बिना मन की सहायता के आँखें देख नहीं सकतीं, कान सुन नहीं सकते, वाणी उच्चारित नहीं हो सकती। मन का सहारा तो इनको भी चाहिए।

मन न भी लगे तो भी अभ्यास करते रहने से धीरे-धीरे मन के संकल्प-विकल्प कम होने लगते हैं और एकाग्रता भी बढ़ती है। चित्त लगाकर  एकाग्रता के साथ जो भगवन्नाम जप और कीर्तन किया जाता है वह विशेष लाभप्रद है, आनंद देता है किन्तु बिना मन के भी भगवन्नाम जपना निरर्थक नहीं है। इससे भी बहुत लाभ होते हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2017, पृष्ठ संख्या 24 अंक 300

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बुद्धि, स्वास्थ्य व सत्संकल्प के पोषण का पर्व-पूज्य बापू जी


मकर सक्रान्ति के दिन से बुद्धि के अधिष्ठाता देव सूर्यनारायण मकर राशि में प्रवेश करते हैं। यह त्यौहार भी है, सत्संकल्प व सूर्योपासना करने की प्रेरणा देने वाला पर्व भी है। मनोकामनापूर्ति के लिए सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है, स्वास्थ्य के लिए सूर्यस्नान और ध्यान किया जाता है।

सत्संकल्प व प्रार्थना करें

इस दिन से सूर्य दक्षिण दिशा को छोड़कर उत्तर की तरफ बढ़ेगा। ऐसे ही हमारे चित्त की वृत्तियाँ, हमारा मन ऊपर की यात्राओं में बढ़े, दक्षिण अर्थात् नीचे का भाग, उत्तर माना ऊँचा भाग। इस हेतु सुबह-सुबह तुम यही माँगना कि ‘हे ज्ञानप्रकाश प्रभो ! ऐसी कृपा करो कि सब वासनाएँ खत्म होकर हम परमात्मा-साक्षात्कार करें। उसमें तुम सहयोग दो। जब हमें अहंकार सताये, वासनायें सतायें, सूक्ष्म जगत के असुर-राक्षस सतायें तो तुम उनको दूर करने में सहयोग देना।’

निरोगता भी देते हैं सूर्यनारायण

इस सूर्यनारायण की कोमल किरणों का फायदा उठायें। सूर्यस्नान से बहुत सारे रोग मिटते हैं। लेटे-लेटे किया गया सूर्यस्नान विशेष फायदा करता है। सिर को ढककर सूर्य की किरणें मिलें, जिससे अंगों में जिन  रंगों की कमी है, वात-पित्त-कफ का जो असंतुलन है वह ठीक होने लगे। मंदाग्नि दूर करने हेतु भी सूर्यस्नान किया जाता है और सूर्यनमस्कार करके बल, ओज और तेज बढ़ाया जाता है। इस दिन तिल और गुड़ देते-लेते हैं, जिससे हमारे जीवन में स्निग्धता व मधुरता आये।

अव्यक्त को व्यक्त के रूप में देखें

सर्वनियंता, सर्वव्यापी जगदीश्वर को सर्वत्र पूजने की क्षमता लोगों को नहीं है तो सनातन धर्म के मनीषियों ने ऐसी व्यवस्था की है कि उस अव्यक्त को व्यक्त के रूप में देखकर पूजा करते-करते साधारण से साधारण व्यक्ति भी परम पद को पा सकता है। है तो जल-थल में परमात्मा पर जल-थल को पूज नहीं सकते तो शालिग्राम की व्यवस्था कर दी। है तो वह सर्वेश्वर अणु-परमाणु में लेकिन जहाँ विशेष चमका है, उसे ॐ रवये नमः, ॐ सूर्याय नमः आदि कह के नमन करते हैं।

नमन तो सूर्यनारायण को करते हैं  लेकिन जीवनशक्ति अपनी जागृत होती है। नमन तो माता-पिता, गुरु को करते हैं लेकिन आयुष्ट, बुद्धि, योग्यता अपनी बढ़ती है।

महापुरुषों का उद्देश्य

जैसे सूर्य उत्तर को छोड़कर दक्षिण में आता है और दक्षिण में जी के फिर उत्तर की तरफ चलता है, ऐसे ही महापुरुष उत्तर (परमात्म-ऊँचाई) की यात्रा करते हुए भी फिर दक्षिण की तरफ आते हैं अर्थात् हम लोगों के बीच आते हैं ताकि हम उनके साथ चल पड़ें और उत्तर की यात्रा कर लें। उत्तरायण कितना मूल्यवान पर्व है !

यह मकर सक्रांति पर्व ऋतु बदलाव का, स्वभाव-बदलाव का संदेश लेकर आता है। जरा-जरा परिस्थिति को सत्य मानकर सिकुड़ो या फूलो मत। ये सब परिस्थितियाँ आती जाती रहेंगी लेकिन तुम्हारा आत्मसाक्षी ज्यों का त्यों रहेगा।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2017, पृष्ठ संख्या 13 अंक 300

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बालक श्रीनिवास से बने संत जगन्नाथदास


1649 ईस्वी में उत्तरी कर्नाटक के एक गाँव में एक बालक का जन्म हुआ, नाम रखा गया श्रीनिवास। बड़े होकर इन्होंने संस्कृत भाषा व शास्त्रों में विद्वता प्राप्त की परंतु विद्वता की प्रसिद्धि ने इन्हें अहंकारी बना दिया था। ये उच्च कोटि के संत विजयदास जी की निंदा और उपहास करने लगे।

सुखमनि साहिब में आया है

संत का निंदकु महा अतताई।

संत का निंदकु खिनु टिकनु न पाई।

संत का निंदकु महा हतिआरा।

संत का निंदकु परमेसुरि मारा।

‘संत का निंदक बड़ा अत्याचारी होता है। संत का निंदक एक क्षण भी आत्मविश्रांति नहीं पाता। संत का निंदक महा-हत्यारा होता है। संत के निंदक को ईश्वर की मार पड़ती है।’

श्रीनिवास को तपेदिक (टी.बी.) रोग हो गया और वे अत्यंत दुर्बल व अशांत हो गये। रोग को मिटाने के सभी उपाय असफल हो गये। अंत में उन्होंने 48 दिनों तक हनुमान जी की विशेष पूजा-प्रार्थना की। हनुमान जी ने उन्हें स्वप्न में दर्शन देकर कहाः “संत विजयदास जी की निंदा एवं अपमान करने के कारण ही यह भयानक रोग हुआ है। उनके पास विनयपूर्वक जाओ और क्षमायाचना करके आशीर्वाद प्राप्त करो तो रोग ठीक हो जायेगा।”

जो लोग संत की निंदा करते हैं उनके जीवन में असाध्य रोग, अशांति, पीड़ा, संताप आदि स्वतः आ जाते हैं। इसका प्रायश्चित्त है जिन संत की निंदा की है उनसे क्षमा माँगना।

श्रीनिवास उठे और पश्चाताप करने लगे। वे संत विजयदास जी की शरण गये और क्षमायाचना करते हुए फूट-फूट कर रो पड़े।

श्री रामचरितमानस (उ.कां. 124.4) में आता हैः

संत हृदय नवनीत समाना।

कहा कबिन्ह परि कहै न जाना।।

निज परिताप द्रवइ नवनीता।

पर दुःख द्रवहिं संत सुपुनीता।।

‘संतों का हृदय मक्खन के समान होता है, ऐसा कवियों ने कहा है परंतु उन्होंने असली बात कहना नहीं जाना क्योंकि मक्खन तो अपने को ताप मिलने से पिघलता है और परम पवित्र संत दूसरों के दुःख से पिघल जाते हैं।’

दयालु संत ने श्रीनिवास को क्षमा करके आध्यात्मिक मार्गदर्शन के लिए अपने शिष्य गोपालदास जी के पास भेज दिया। उन्होंने श्रीनिवास से सब बाते जानकर उन्हें मंत्रदीक्षा व प्रसाद दिया।

श्रद्धापूर्वक गुरुमंत्र का जप करने और गुरुदेव के शुभ संकल्प के प्रभाव से कुछ ही दिनों में श्रीनिवास स्वस्थ हो गये। फिर सदगुरु के मार्गदर्शन-अनुसार श्रीनिवास पंढरपुर आये और गुरु-उपदिष्ट साधन आदि करने लगे। ये ही श्रीनिवास आगे चलकर गुरुकृपा से संतत्व को उपलब्ध हो महान संत जगन्नाथदास जी के नाम से सुप्रसिद्ध हुए। उनके जीवन में भगवत्प्रसाद छलका, कई अदभुत अनुभव हुए, आध्यात्मिक शक्ति का विकास हुआ। लाखों लोग उनके सम्पर्क से धन्य हो गये।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2017, पृष्ठ संख्या 12 अंक 300

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