राजा वसु पहुँचे आकाश से सीधे पाताल में !

राजा वसु पहुँचे आकाश से सीधे पाताल में !


धर्मराज युधिष्ठिर ने भीष्म जी से पूछा कि पितामह ! राजा वसु का पतन किस कारण हुआ था ? तब भीष्म जी ने कहाः भरतनंदन ! इस विषय में ज्ञानीजन ऋषियों और देवताओं के संवादरूप इस प्राचीन इतिहास को उद्धृत किया करते हैं-

किससे यज्ञ करें – बकरे या अन्न से ?

“अज के द्वारा यज्ञ करना चाहिए – ऐसा विधान है।” ऐसा कहकर देवताओं ने उनके पास आये हुए सभी श्रेष्ठ ब्रह्मर्षियों से कहाः “यहाँ ‘अज’ का अर्थ ‘बकरा’ समझना चाहिए।”

ऋषियों ने कहाः “देवताओ ! यज्ञों में बीजों द्वारा यजन करना चाहिए ऐसी वैदिकी श्रुति है। बीजों का ही नाम अज है अतः बकरे का वध करना हमारे लिए उचित नहीं है। जहाँ कहीं भी यज्ञ में पशु का वध हो वह सत्पुरुषों का धर्म नहीं है।”

इस प्रकार जब ऋषियों का देवताओं के साथ संवाद चल रहा था उसी समय  उपरिचर राजा वसु भी उस मार्ग से आ निकले और वहाँ पहुँच गये। राजा उपरिचर अपने सेना और वाहनों के साथ आकाशमार्ग से चलते थे। उन अंतरिक्षचारी वसु को सहसा आते देख ब्रह्मर्षियों ने देवताओं से कहाः “ये नरेश हम लोगों का संदेह दूर कर देंगे क्योंकि ये यज्ञ करने वाले, दानपति तथा श्रेष्ठ हैं।”

देवताओं और ऋषियों ने राजा वसु के पास आकर पूछाः “राजन् ! किसके द्वारा यज्ञ करना चाहिए ? बकरे द्वारा अथवा अन्न द्वारा ? हमारे इस संदेह का आप निवारण करें।”

राजा वसु ने दोनों का मत जाना। देवताओं का मत जानकर राजा ने उन्हीं का पक्ष लेकर कह दिया कि “अज का अर्थ है बकरा अतः उसी के द्वारा यज्ञ करना चाहिए।”

ऋषि बोलेः “राजन ! तुमने यह जान के भी कि ‘अज’ का अर्थ ‘अन्न’ है देवताओं का पक्ष लिया है इसलिए स्वर्ग से नीचे गिर जाओ। आज से तुम्हारी आकाश में विचरने की शक्ति नष्ट हो गयी। हमारे श्राप के आघात से तुम पृथ्वी को भेदकर पाताल में प्रवेश करोगे।

नरेश्वर ! तुमने यदि वेद और सूत्रों के विरुद्ध कहा हो तो हमारा यह श्राप अवश्य लागू हो और यदि हम शास्त्रविरुद्ध वचन कहते हों तो हमारा पतन हो जाये।

ऋषियों के ऐसा कहते ही उसी क्षण राजा उपरिचर आकाश से नीचे आ गये और तत्काल पृथ्वी के विवर में प्रवेश कर गये।

बाद में सभी देवता स्वर्ग से भ्रष्ट हुए उस राजा के पास गये और अपने से भी श्रेष्ठ उन ब्रह्मवेत्ता ऋषियों की महिमा का वर्णन करते हुए बोलेः “नृपश्रेष्ठ ! तुम्हें ब्रह्मवेत्ता महात्माओं का सदा ही समादर करना चाहिए। अवश्य ही यह उनकी तपस्या का फल है जिससे तुम आकाश से सहसा भ्रष्ट होकर पाताल में चले आये हो।”

पितामह भीष्म जी कहते हैं- कुंतीनंदन ! इस प्रकार उस महामनस्वी नरेश ने भी ब्रह्मवेत्ताओं के साथ वाचिक अपराध करने के कारण अधोगति प्राप्त की थी।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2018, पृष्ठ संख्या 7 अंक 301

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