इन्द्रियाँ, मन और विषयों के संयोग से जो भी सुख मिलता है वह वास्तव में आपके दुःख को दूर नहीं कर सकता। भगवान कहते हैं, ‘जो सुख नित्य है, प्रकाशस्वरूप है, व्यापक है वह वास्तविक सुख है।’
जैसे स्वप्न बुद्धि द्वारा कल्पित होने से स्वप्न का सुख वास्तविक सुख नहीं है, मिथ्या है वैसे ही शोक, मोह, सुख, दुःख तथा संसार भी माया से बुद्धि द्वारा कल्पित होने के कारण वास्तविक नहीं है, मिथ्या है।
संसार मिथ्या है अतः देह भी मिथ्या है। बुद्धि भी माया स्फुरित है इसलिए बुद्धि में शोक, दुःख, चिंता आदि उपजते हैं वे सब भी मिथ्या हैं। इस प्रकार वेदांती विचार जब तक आपके जीवन में नहीं आयेंगे तब तक दुनिया के सब मित्र मिलकर भी सदा के लिए आपके दुःख दूर नहीं कर सकेंगे। यदि आपके जीवन में वेदांतनिष्ठा है तो दुनिया के सब लोग आपके शत्रु बनकर आपको दुःख देना चाहें तो भी वे आपके असली स्वरूप का, आत्मस्वरूप का कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते।
…तो दुःख वास्तविक नहीं है, संसारी सुख भी वास्तविक नहीं है, ये मायिक हैं। माया को माया समझा जाये तो फिर जगत का अस्तित्व नहीं रहता। जैसे रस्सी को रस्सी ही जान लिया तो साँप गायब हो जाता है। मरुभूमि को मरुभूमि जान लिया तो पानी गायब हो जाता है।
जैसे एक मिट्टी से अनेक प्रकार के बर्तन बनते हैं, एक ही स्वर्ण से अनेक प्रकार के आभूषण बनते हैं वैसे एक ही सच्चिदानंद परब्रह्म परमात्मा से बुद्धि में अनेक प्रकार की कल्पनाएँ होती हैं। मनुष्य को अपना पुत्र बहुत प्यारा लगता है। पुत्र से प्यारा अपना शरीर लगता है। शरीर से प्यारी इन्द्रियाँ लगती हैं। इस प्रकार जो वस्तु जितनी अधिक करीब होती है वह उतनी ही अधिक प्यारी लगती है। यही कारण है कि सिर पर चोट लगते वक्त हाथ तुरंत ही प्रतिकार करके सिर को बचाने की चेष्टा करने लगते हैं क्योंकि मनःवृत्ति एवं बुद्धिवृत्ति हाथ की अपेक्षा अधिक निकट होने के कारण अधिक प्रिय हैं। किंतु इनसे भी अधिक मनुष्य को प्राण प्यारे हैं और प्राणों से भी अधिक अपना आपा, सुखस्वरूप आत्मा प्रिय है। इसीलिये जब मनुष्य बेचैन होता है, अशांत होता है तो प्राणों का भी त्याग कर देता है, अपनी देह का भी घात कर देता है लेकिन अपने सुखस्वरूप का घात नहीं करता क्योंकि अपना आपा, अपना मूल स्वरूप, आत्मस्वरूप सभी को प्यारा है। बेवकूफी के कारण ही मनुष्य माया में फँसकर दुःख पाता है।
हम लोगों का चित्त विषयों में जाता है इसीलिए विषय हम पर प्रभाव डालते हैं। जन्म-जन्मांतरों से चित्त की विषयासक्ति की आदत बन गयी है इसलिए चित्त चैतन्यस्वरूप परब्रह्म परमात्मा में स्थिति नहीं पाता।
एक बार सनकादि ऋषियों ने ब्रह्माजी से यह बात पूछी थी कि “आँखें देखने के लिए खिंच जाती हैं, कान बाहर का सुनने के लिए खिंच जाते हैं, जीभ स्वाद लेने के लिए उत्सुक हो जाती है, नाक सूँघने के लिए बेचैन रहती है। इस प्रकार विषय जीवों को खींचते ही रहते हैं तो मुक्ति पानी हो तो कैसे पायें ? इस जन्म-मरण के चक्कर से कैसे छूटा जाये ? अपने चैतन्य स्वरूप परमात्मा में विश्रांति कैसे पायी जाय ?”
तब ब्रह्मा जी ने भगवान आदिनारायण का आवाहन किया। सनकादि ऋषियों ने पूछाः “हंसरूप में विराजमान आप कौन हैं ?”
हंसावतार भगवान ने कहाः “तुम्हारा प्रश्न ही निरर्थक है कि मैं कौन हूँ। शरीर की दृष्टि से देखा जाय तो जैसे पाँच भूत तुम हो वैसे ही मैं हूँ। तत्त्वदृष्टि से देखा जाय तो भी जैसे तुम हो वैसे मैं हूँ।”
यह सुनकर सनकादि ऋषियों ने हंसावतार भगवान से ब्रह्मविद्या संबंधी प्रश्न पूछा।
हंसावतार ने कहाः “यह जो दृश्यमान जगत है, आँखों से जो दिखता है वह सब मायामात्र है, दिखने भर है को है। इस माया को सत्य नहीं कहा जा सकता क्योंकि यह क्षण-क्षण में बदलती है और इसे असत्य भी नहीं कहा जा सकता है क्योंकि इसके द्वारा व्यवहार होता है। इसलिए यह माया मिथ्या है। यह जगत माया के द्वारा दिखता है। जो अपने सत्यस्वरूप का चिंतन नहीं करता और इसको सत्य मानता है, मिथ्या देह रो ‘मैं’ मानता है, इन्द्रियों के भोग में सहमत हो जाता है उसकी इन्द्रियाँ बलवान हो जाती है और उसके लिए बंधन का कारण हो जाती है। लेकिन जो बार-बार संसार के मिथ्यात्व का चिंतन करता है, अपने साक्षीस्वरूप चैतन्य में आनंद पाने की चेष्टा करता है, संयोगजन्य स्थिति में जिसकी ममता नहीं है, अहंता नहीं है वह परम पद को पाता है।
इस प्रकार हंसावतार में भगवान ने तत्त्वज्ञान का उपदेश दिया।
संत नरसिंह मेहता ने भी कहा हैः ज्यां लगी आत्मतत्त्व चीन्यो नहीं,
त्यां लगी साधना सर्व झूठी।
आप चाहे कितने भी व्रत-उपवास कर लो, तीर्थयात्राएँ कर लो पर जब तक आत्मज्ञान नहीं हुआ तब तक बाह्य साधना को व्यर्थ ही जानो।
श्री योगवासिष्ठ महारामायण में श्री वसिष्ठ जी महाराज कहते हैं, “हे राम जी ! मनुष्य जैसा भोजन मिले वैसा खा ले, जैसे कपड़े मिले वैसे पहन ले, जहाँ सोने की जगह मिल जाय वहाँ सो ले परंतु ब्रह्मज्ञान का सत्संग मिलता हो तो वह सर्वश्रेष्ठ है।”
भक्त हो के मंजीर बजा लिये, तपी हो के तप कर लिया, जपी हो के जप कर लिया, विद्यार्थी हो के विद्याध्ययन कर लिया, कुछ बन के कुछ पा लिया लेकिन जब तक ब्रह्म को नहीं जाना तब तक सब कुछ जाना हुआ भी अंत में व्यर्थ हो जाता है।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2018, पृष्ठ संख्या 4,5 अंक 302
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ