यावत् स्वस्थमिदं कलेवरगृहं यावच्च दूरे जरा
यावच्चेन्द्रियशक्तिरप्रतिहता यावत् क्षयो नायुषः।
आत्मश्रेयसि तावदेव विदुषा कार्यः प्रयत्नो महान्
प्रोद्दीप्ते भवने तु कूपखननं प्रत्युद्यमः कीदृशः।।
‘जब तक यह शरीर स्वस्थ है और वृद्धावस्था दूर है तथा जब तक इन्द्रियों की शक्ति नष्ट नहीं हुई है एवं आयु का क्षय नहीं हुआ है तभी तक समझदार मनुष्य को आत्मकल्याण के लिए महान प्रयत्न कर लेना चाहिए अन्यथा घर में आग लग जाने पर कुआँ खोदने के लिए परिश्रम करने से क्या लाभ ?’ (वैराग्य शतकः75)
भर्तृहरि जी महाराज समझा रहे हैं कि जब तक शरीर में सामर्थ्य है, तब तक हमें अपनी पूरी शक्ति लगाकर मानव जीवन के परम लक्ष्य परमात्मप्राप्ति को पा लेना चाहिए क्योंकि वृद्धावस्था आने पर न तो हमारा शरीर साधना के योग्य रह जाता है और न ही मन-बुद्धि एकाग्र हो पाते हैं।
श्री योगवासिष्ठ महारामायण में आता हैः ‘बुढ़ापा आने पर अपने अंग भी भारभूत हो जाते हैं यानी अपने अंग भी नहीं सँभाले जाते हैं। यदि मनुष्य विवेकसम्पन्न हो तो यौवन ही जीवन है और यदि यौवन अविवेकपूर्ण रहा तो वह पशुता से भी गया गुज़रा है। बिजली के कौंधने के समान चंचल इस संसार को पाकर सत्शास्त्रों के अभ्यास और सज्जन (संत) संगति द्वारा अज्ञानरूपी कीचड़ से आत्मा का उद्धार करना चाहिए।’
लभ्ध्वा सुदुर्लभमिदं बहुसम्भवान्ते….
…यावन्निःश्रेयसाय विषयः खलु सर्वतः स्यात्।। (श्रीमद् भागवतः 11.9.29)
यद्यपि यह मनुष्य शरीर है तो अनित्य ही, मृत्यु सदा इसके पीछे लगी रहती है परंतु इससे परम पुरुषार्थ की प्राप्ति हो सकती है इसलिए अनेक जन्मों के बाद यह अत्यंत दुर्लभ मनुष्य-शरीर पाकर बुद्धिमान पुरुष को चाहिए कि शीघ्र से शीघ्र, मृत्यु के पहले ही मोक्षप्राप्ति का प्रयत्न कर ले। इस जीवन का मुख्य उद्देश्य मोक्ष ही है। विषय भोग तो सभी योनियों में प्राप्त हो सकते हैं इसलिए उनके संग्रह में यह अमूल्य जीवन नहीं खोना चाहिए।
पूज्य बापू जी के सत्संग-ज्ञानामृत में आता हैः “हे साधक ! हे शिष्य !! तू अपने दिल को तुच्छ खिलौनों (संसारी भोगों) से बचाकर थामे रखना। वह तुच्छ खिलौनों के लिए नहीं है। तेरा दिल तो दिलबर का घर है। उस अंतर्यामी दिलबर को प्रकट होने देना। जीवन का सूर्य ढल जाये उसके पहले ही तू अपना रास्ता तय कर लेना। आँखों का ओज चला जाय उसके पहले ही तू भीतर के ओज को पा लेना। कान बहरे हो जायें, बुढ़ापा आ जाय उसके पहले ही तू तत्त्वज्ञान सुन लेना। कुटुम्बी मुँह मोड़ लें, दाँत गिर जायें उसके पहले ही तू अपना दिल स्वच्छ करके परमात्म तत्त्व का ज्ञान पा लेना। मौत आये उसके पहले तू जीते-जी ममता छोड़कर अपने आप में चले आना, अमिट आत्मा आकाशस्वरूप की प्रीति और स्मृति जगा लेना, अपने कार्यों में से थोड़ा-थोड़ा समय बचा के अपना महत्त्वपूर्ण कार्य करते रहना-अंतर्यामी परमात्मा के अनुभव में गोते लगाते रहना बेटे !”
स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2018, पृष्ठ संख्या 13, अंक 302
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