Monthly Archives: February 2018

ऐसी हो हर युवा वीर की माँग-पूज्य बापू जी


राजा भोज को एक युवक ने अपनी असाधारण प्रतिभा से बड़ा प्रसन्न कर दिया। वह युवक प्रतिदिन प्रातःकाल जल्दी उठता था। सूर्योदय के पहले स्नानादि कर लेने से बुद्धि में सात्त्विकता आती है, स्वभाव में प्रसन्नता आती है और स्वास्थ्य भी अच्छा रहता है।

वह युवक सुबह जल्दी नींद में से उठते ही चिंतन करता था कि ‘जाग्रत-स्वप्न सुषुप्ति आती जाती रहती हैं, उनको जानने वाले सच्चिदानंदस्वरूप आत्मदेव में मैं शांत हो रहा हूँ…. ॐ आनंद….’ जो नित्य-शुद्ध-बुद्ध चैतन्य है – अपना शाश्वतस्वरूप ‘मैं’, उसकी स्मृति में, सुखस्वरूप में, गुरु के बताये मार्ग से ध्यानमग्न होता था। गुरु के बताये अनुसार जप करता था। उसका व्यवहार प्रसन्नता एवं आत्मीयता से इतना भरा होता था कि सारे मंत्री भी उसका गुणगान किये बिना नहीं रह सकते थे।

राजा ने वर्ष के अंत में उस युवक का सम्मान-समारोह आयोजित करवाया एवं उसकी प्रशंसा करते हुए कहाः “युवक ! भले तुम किसी और के  पुत्र हो लेकिन मेरे राजकुमारों से भी तुम हजार गुना अच्छे हो। तुम्हारी असाधारण सेवाओं के प्रति-उपकार के रूप में कुछ न कर पाने से मैं बोझ से दबा सा जा रहा हूँ। तुम स्वयं ही कुछ माँग लो ताकि मेरा भार कुछ हलका हो जाय। तुम जिससे कहो उससे तुम्हारा विवाह करवा दूँ, मनोरंजन के लिए नर्तकियाँ आदि दे दूँ। यदि मैं तुम्हें कुछ न दूँ तो मैं मानव कहलाने लायक ही  न रहूँगा। माँग लो युवक ! तुम्हें जो चाहिए माँग लो।”

यह सुनकर भारत के उस युवक ने गजब का उत्तर दिया ! उसने कहाः “राजन् ! मुझे जो चाहिए वह आपके पास है ही नहीं तो मैं क्या माँगूँ ? सामने वाले के पास जो हो, वही चीज माँगनी चाहिए। उसके सामर्थ्य से बाहर की चीज़ माँगना माँगने वाले की नासमझी है।”

राजा भोज हैरान रह गये युवक की बातें सुनकर ! फिर बोलेः “मेरे पास किस चीज की कमी है ? सुंदर स्त्री, धन, राज्य – सभी कुछ तो है। अगर तुम कहो तो तुम्हें बहुत सारी जमीन-जागीर दे सकता हूँ या पाँच-पच्चीस गाँव भी दे सकता हूँ। माँग लो, संकोच न करो।”

युवकः “राजन् ! सुंद स्त्री, मनोरंजन करने वाली नर्तकियाँ और महल आदि मनोरंजन भोग दे सकते हैं किंतु यह जीवन भोग में बरबाद होने के लिए नहीं है वरन् जीवनदाता का ज्ञान पाने के लिए हैं और इसके लिए मुझे किन्हीं ब्रह्मवेत्ता महापुरुष की कृपा की आवश्यकता है। मैं तो परम शांति, परम तत्त्व को पाना चाहता हूँ। वह आपके पास नहीं है राजन् ! फिर मैं आपसे क्या माँगूँ ?”

राजा भोज धर्मात्मा थे। बोलेः “युवक ! तुम धन्य हो ! तुम्हारे माता-पिता भी धन्य हैं ! तुमने तो जीवन की जो वास्विक माँग है वही कह दी। परम शाँति तो मनुष्यमात्र की माँग है।”

बाहर की धन दौलत, सुख सुविधाएँ कितनी भी मिल जायें, उनसे कभी पूर्ण तृप्ति नहीं होती। बाहर की चाहे कितनी भी प्रतिष्ठा मिल जाय, सत्ता मिल जाय, अरे ! एक व्यक्ति को ही सारी धरती का राज्य मिल जाय, धन मिल जाय, सुंदरियाँ उसकी चाकरी में लग जायें फिर भी उसे परम शांति नहीं मिल सकती। परम शांति तो उसे मिलती है जिस पूर्ण गुरु का ज्ञान मिल जाता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2018, पृष्ठ संख्या 20, अंक 302

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

साधना का चरम लक्ष्य-पूज्य बापू जी


माला घुमाते-घुमाते एक दिन ऐसा आता है कि मान्यता घूम जाय। जो शरीर में, समाज में, पद-प्रतिष्ठा में अहं बैठा है वह विराट में खो जाय। माला घुमाने का परम लक्ष्य, चरम फल यही है। बस, अजपाजप होने लगे। मानसिक जप बिना माला के भी जप की आदत डालते जायें और फिर कभी जप छूटे ही नहीं….. अहं बाधित हो जाय। तुम साधन-भजन करते चलो तो ऐसा कोई मौका आता है जब घटना घट जाती है। ईश्वरप्राप्ति के लिए पुरुषार्थ करते-करते हृदय शुद्ध हो जाता है। बस, फिर तो पलभर की देरी होती है। निमित्त हो जाता है श्रवण। अर्जुन श्रवणमात्रेण तैयार हो गया, कृतकृत्य हो गया। राजा जनक अष्टावक्र जी को कहते हैं- “गुरु जी ! आपका उपदेश सुनने मात्र से मैं जग गया। जिसको आज तक जनक मान रहा था वह मैं हूँ ही नहीं, मैं विराट हूँ। मैं शुद्ध-बुद्ध हूँ, परिच्छिन्न देह मैं नहीं हूँ। मुझे न भूख लगती है न प्यास, मेरा न जन्म होता है न मृत्यु। जन्म-मृत्यु मेरे शरीर के होते हैं, मैं तो उनसे  न्यारा हूँ। मैं कभी मर नहीं सकता।”

तुम्हारी मृत्यु कभी होती ही नहीं….

सच पूछो तो तुम जब विराट में खो जाते हो तो तुम्हें अनुभव होगा कि तुम्हारी मृत्यु कभी होती ही नहीं है। मरने का कोई उपाय ही नहीं है। वैज्ञानिक बोलते हैं कि ‘व्यक्ति झूठ-मूठ में भी जैसा चिंतन या कल्पना करता है, वैसा हो जाता है।’ लेकिन मरने की तुम लाख बार कल्पना करो, वह सत्य नहीं होती क्योंकि तुम एक ऐसा सत्य हो कि जहाँ मृत्यु कभी पहुँच नहीं सकती, मृत्यु आये तो वह भी अमर हो जाती है।

बोले, ‘बापू जी ! सारी दुनिया मर रही है और आप कहते हैं हम नहीं मरते ! हम भी तो मरेंगे।’

नहीं, तुमने अपनी मृत्यु कभी देखी नहीं। और शरीर की मौत से तुम मरते तो हजारों बार शरीर मर गया, तुम नहीं मरे।

बोलेः ‘हमने मृत्यु देख ली है।’

नहीं, दूसरे को मरते हुए देखा तो तुमने मान्यता बना ली कि ‘हम भी मरेंगे या मर रहे हैं….।’

लेकिन जो मरने पड़ता है न, वह सचमुच मरता नहीं, बेहोश हो जाता है और सूक्ष्म शरीर निकल जाता है फिर दूसरी जगह व्यवस्था हो जाती है। जैसे शल्यक्रिया (ऑपरेशन) करनी होती है न, तो क्लोरोफॉर्म या और जो नये साधन निकले हैं उनसे बेहोश किया जाता है। प्रकृति तुम्हारा बड़ा-से-बड़ा रूपांतरण करती है, पूरा-का-पूरा शरीर बदल देती है। पूरी-की-पूरी व्यवस्था, समाज, जाति, पंथ बदल देती है। मनुष्य के जीवात्मा को घोड़े के शरीर में रखना है, घोड़े के जीवात्मा को गधे के शरीर में रखना है, गधे के जीवात्मा को चूहे के शरीर में रखना है तो बड़े-में-बड़ा रूपांतरण है…. इसलिए जीवात्मा थोड़ी देर के लिए बेहोश हो जाता है। तुम्हें मूर्च्छा आ जाती है, तुम्हारी मृत्यु नहीं होती।

जो लोग मूर्च्छा में मर रहे हैं उनका मरना चालू रहता है और वे अपने को मरणधर्मा मानते रहते हैं लेकिन जिनके पास किन्हीं ब्रह्मवेत्ता महापुरुष की कृपा पहुँच गयी है और वह ज्ञान जिन्होंने हजम किया है, जो उनके स्वरूप को ठीक से समझ चुके हैं, वे सजग हो जाते हैं। वे मृत्यु को भी देखते हैं। जैसे आदमी अपने शरीर को देख रहा है, शरीर के दर्द को देख रहा है, शरीर के अंग-प्रत्यंग को महसूस कर रहा है ऐसे ही जब मृत्यु आती है तो मृत्यु भी शरीर पर घटती है। मृत्यु को भी देखने वाला बचा रहता है। कोई होश में मरता है, कोई बेहोश हो के मरता है। जो होश में मर जाता है वह अमर हो जाता है और जो बेहोश मरता है वह मरता ही रहता है। आत्मसाक्षात्कार का अर्थ यह है कि अपने स्वरूप का होश आ जाय। जो होश से जी सकता है वह होश से मर सकता है। जो बेहोशी में जीता है वह बेहोश हो के मरता है।

बेहोशी क्या है ? जैसा अहं का आवेग आया, जैसी मन की धारणा बनी, जैसा बुद्धि ने निर्णय दिया ऐसा हम करने लग गये। उनके आवेग में हम बहे जा रहे हैं। यह बेहोशी है। होश यह है कि हमने धारणा, ध्यान, साधना करके अपने अस्तित्व को, अपनी असलियत को पहचाना। शरीर और मान्यता का ‘मैं’ कपोलकल्पित समझ लिया व अपने शुद्ध-बुद्ध ‘मैं’ में जग गये।

शाह लतीफ कहते हैं, जे भाई जोगी थियां, त तमा छदि तमाम। यदि तुम चाहते हो कि ‘मैं योगी होऊँ, ईश्वर के साथ एकता करूँ, जन्म-मरण की धारा से बच जाऊँ….’ तो तमन्नाओं का त्याग करो। शास्त्र, गुरु और साधना के बल से जो तुम्हारी वास्तविक जरूरत तुम्हें प्रतीत हो, वह जरूर अपने आप पूरी हो जायेगी।

अनन्याश्चिन्तयतो मां ये जनाः  पर्युपासते।

तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं व्हाम्यहम्।। (गीताः 9.22)

जो अनन्य भाव से मेरा चिन्तन करता है, मेरी उपासना करता है मैं उसकी आवश्यकताएँ तो पूरी करता हूँ, साथ ही आवश्यकताओं के साधनों की सुरक्षा भी करता हूँ – ऐसा भगवान का वचन है और इस वचन की महानता का मुझे भी व मेरे साधकों को भी अनुभव है। जो भगवान की तरफ चल पड़ता है, उसकी जो आवश्यकताएँ हैं वे अपने आप पूरी होने लग जाती हैं, उसका योग (प्राप्ति) और क्षेम (सुरक्षा) भगवान वहन करते हैं।

जे भाई जोगी थियां, त तमा छदि तमाम।

सबुर जे शमशेर सां, कर कीन्हे खे कतलाम।

‘यदि योगी बनना चाहते हो तो तमाम इच्छाएँ छोड़ दो। सब्र की तलवार से अभावों का कत्लेआम कर दो।’

‘नहीं होगा…. मेरा दम नहीं… हम इस मार्ग में नहीं चल सकते….’ यह जो नकारात्मक सोच है, निराशा है उसको छोड़ दो। जो तथाकथित गुरु या संत बोलते हैं कि ‘यह कठिन है, असम्भव है, तुम्हारा दम नहीं है’ वे तुम्हारी कायरता बढ़ा रहे हैं, उन बातों का, विचारों का त्याग कर देना। जिनको परमात्मा प्राप्त हो गया है वे तो ऐसी हिम्मत देते हैं कि ‘हो सकता है…. आत्मसाक्षात्कार कठिन नहीं है।’ जिनको आत्मसाक्षात्कार कठिन नहीं महसूस होता ऐसे गुरुओं की उपलब्धि होना बड़ा सौभाग्य है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2018, पृष्ठ संख्या 29, अंक 302

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

सेवा की सीख एवं बिनशर्ती शरणागति-पूज्य बापू जी


सेतुबंध रामेश्वर की स्थापना करने के लिए हनुमान जी को काशी से शिवलिंग लाने हेतु भेजा गया। हनुमान जी को लौटने में थोड़ी देर हो गयी।

इधर मुहूर्त बीता  जा रहा था अतः राम जी ने बालू का शिवलिंग बना के स्थापित कर दिया। थोड़ी ही देर में हनुमान जी शिवलिंग लेकर पहुँच गये किंयु देरी हो जाने की वजह से उनके द्वारा लाये गये शिवलिंग की स्थापना नहीं हो सकी, अतः उन्हें दुःख हुआ। दुःख क्यों हुआ ? क्योंकि कर्ता अभी मौजूद है… सेवा करने वाला मौजूद है।

दयालु राम जी को पता चला तो वे बोलेः “हनुमान ! सेवक का कर्तव्य है कि तत्परता और कुशलता से सेवा कर ले। फिर स्वामी ने सेवा को स्वीकार किया या नहीं किया, इस बात का सेवक को दुःख नहीं होना चाहिए।

हे अंजनिसुत ! तुम्हें संतों की शरण में जाना चाहिए और अपना आपा पहचानना चाहिए। जब तक तुम अपना शुद्ध-बुद्ध स्वरूप नहीं जानोगे, तब तक सुख-दुःख के थप्पड़ इस मायावी व्यवहार में लगते ही रहेंगे। तुम्हें सावधान होकर ब्रह्वेत्ता संतों का सत्संग सुनना चाहिए। कर्म का कर्ता कौन है ? कर्म किसमें हो रहे हैं ? सफलता-विफलता किसमें होती है ? सुख-दुःख का जिस पर प्रभाव होता है, उसका और तुम्हारा क्या संबंध है ? इस रहस्य को तुम्हें समझना चाहिए।

हे केसरीनंदन ! जीव का वास्तविक स्वरूप अचल, निरंजन, निर्विकार, सुखस्वरूप है लेकिन जब तक वह अपने अहं को, अपने क्षुद्र जीवत्व को नहीं छोड़ता और पूर्णरूप से ब्रह्मवेत्ताओं की बिनशर्ती शरणागति स्वीकार नहीं करता, तब तक वह कई ऊँचाइयों को छूकर पुनः उतार चढ़ाव के झोंकों में ही बहता रहता है। जहाँ से कोई ऊँचाई और अधिक ऊँचा न ले जा सके एवं कोई नीचाई नीचे न गिरा सके उस परम पद को पाने के लिए तुम्हें अवश्य यत्न करना चाहिए। तुम्हें संतों का संग करके अपना चित्त के साथ का जो संबंध है उसका विच्छेद करना चाहिए। जिस पर सुख-दुःख, लाभ-हानि, मान-अपमान आदि का असर होता है उस अपने चित्-संवित् से तदाकारता हटाकर जब तुम अपने स्वरूप को जानोगे तब प्रलयकाल का मेघ भी तुम्हें विचलित नहीं कर सकेगा।

राग और द्वेष मति में होते हैं, सुख-दुःख की वृत्ति मन में होती है, गर्मी-सर्दी तन को लगती है – इन सबको जो सत्ता देता है, जो रोम-रोम में रम रहा है उस राम का आश्रय लो और उसी चैतन्य राम में प्रीति करो तब तुम जीवन्मुक्त हो जाओगे।”

राम जी की ज्ञानसंयुक्त वाणी सुन के हनुमान जी राम जी के चरणों में नतमस्तक हो गये और क्षमा-प्रार्थना करने लगेः “हे कृपानिधान ! मेरा अपराध क्षमा करें।”

हनुमान जी ने राम जी के संकेतानुसार अंतर्यामी, सर्वव्यापी, चैतन्यस्वरूप राम-तत्त्व का ज्ञान हृदय में धारण किया और उसके अभ्यास की तरफ बढ़ने लगे।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2018, पृष्ठ संख्या 23, अंक 302

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ