दर्पण भले ही साफ-शुद्ध हो लेकिन यदि वह हिलता रहेगा तो उसमें अपना मुँह कैसे देख सकेंगे ? हमारा दर्पण है शुद्ध हृदय (अंतःकरण) परंतु यदि स्थिर मन न होगा तो अपने स्वरूप अर्थात् आत्मा को कैसे देख (अनुभव कर) सकेंगे ? अतः काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि विकारों तथा शब्द, स्पर्श, रूप, रस आदि विषयों के समूह से जब अपने को बचायेंगे, तब मोक्ष को प्राप्त करेंगे।
हृदयरूपी लकड़ी और भगवन्नामरूपी लकड़ी को आपस में रगड़ने से ज्ञानरूपी अग्नि निकलती है। भाग्यवान मनुष्य वह है जो ईश्वर में प्रेम रखता है।
साँईं श्री लीला शाह जी की अमृतवाणी।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2018, पृष्ठ संख्या 12 अंक 303
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