अंत न होय कोई आपणा….

अंत न होय कोई आपणा….


बड़वानी (म.प्र.) रियासत के खजूरी गाँव में संवत् 1576 में एक बालक का जन्म हुआ, जिसका नाम रखा गया सिंगा जी। पिता भीमा और माँ गौराबाई ने बचपन से ही अपने पुत्र को भगवद्भक्ति के संस्कार दिये। 21-22 साल की उम्र में सिंगा जी भामगढ़ (पूर्वी निमाड़) के राज के यहाँ वेतन पर चिट्ठी पत्री ले जाने का काम करने लगे। पूर्व जन्म के पुण्य कहो या माता-पिता के संस्कार कहो, बाल्यावस्था से ही सिंगाजी का मन संसार की ओर से विरक्त हो गया था।

एक बार सिंगाजी घोड़े पर सवार हो कर कहीं  जा रहे थे। रास्ते में संत मनरंगगीर जी के श्रीमुख से निकले वचन कानों में पड़ेः

समुझी लेओ ले मना भाई,

अंत न होये कोई आपणा।1

यही माया के फंदे में तर2 आन3 भुलाणा।।

1 अंत समय अपना कोई साथ नहीं निभाता 2 उलझ के 3 निज आत्मस्वरूप की महिमा

बचपन में फूटा वैराग्यरूपी अंकुर यौवन में पनप उठा। अंत न होय कोई आपणा…. संत वचन हृदय की गहराई में चोट कर गये।

हृदय में चोट का अनुभव हर व्यक्ति जीवन में करता है। किसी को किसी की गाली चोट कर जाती है, किसी को किसी की मृत्यु चोट कर जाती है तो किसी को दूसके के द्वारा किया गया अपमान चोट कर जाता है। चोटें तो सबके जीवन में आती हैं किंतु जो चोट खाकर द्वेष या वैर वृत्ति के बहाव में बहते जाते हैं वे दुःख, अशांति की खाई में गिर जाते हैं और जो ईश्वर या सदगुरु की शरण चले जाते हैं वे सुख-दुःख, मान-अपमान की बड़ी से बड़ी चोटों में भी अप्रभावित अपने अचल आत्मस्वरूप में जागने के रास्ते चल पड़ते हैं।

सिंगा जी संत चरणों में गिर पड़े…

“महाराज ! आपने कहा, अंत न होय कोई आपणा… दूसरा कोई अपना नहीं है तो आप तो हमारे हैं न ! आप ही मेरे हो जाइये न !”

नवयुवक की वाणी से प्रेम टपक रहा था और संत की दृष्टि से करूणा… मनरंगगीर जी ने सिंगा जी को दीक्षा दी।

सिंगाजी ने नौकरी छोड़ी, राजा के पास जाना भी छोड़ दिया। सोचने लगे, जगतपालक प्रभु की सृष्टि में दो वक्त की रोटी के लिए गुलामी क्यों करना ? विश्वनियंता को कब तक पीठ देना ? अब तो मैं गुरुकृपा से भीतर का रस और ज्ञान पाकर ही रहूँगा, जो होगा देखा जायेगा।’

राजा ने आकर वेतनवृद्धि का प्रलोभन दिया पर सिंगा जी ने आँख खोलकर भी न देखा। अब जगत की सुध-बुध ही न रहती। वे पीपल्या में आकर रहने लगे। परमात्मप्राप्ति की तीव्र उत्कंठा ने गुरुहृदय को छलका दिया। नाम-रूप का भ्रम टूट गया, शाश्वत चैतन्य स्वभाव रह गया।

सिंगाजी की कई रचनाएँ हैं। उनका कहना है कि हृदय में सच्चा प्रेम होना चाहिए, परमात्मा को बाहर खोजने की जरूरत नहीं है।

जल विच कमल, कमल विच कलियाँ,

जहँ बासुदेव अबिनासी।

घट में गंगा, घट में जमुना, वहीं द्वारका कासी।।

घर बस्तू बाहर क्यों ढूँढो, बन-बन फिरा उदासी।

कहै जन सिंगा, सुनो भाई साधो, अमरपुरा के बासी।।

पीपल्या गाँव में संवत् 1616 में सिंगा जी ने समाधि ली। वहाँ उनकी स्मृति में प्रतिवर्ष विशाल ‘सिंगा जी का मेला’ लगता है। आज भी लोग उनके भजनों को गाकर आनंदित होते हैं। कैसी महिमा है संतों, सदगुरुओं के वचनों व कृपा की ‘

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2018, पृष्ठ संख्या 17 अंक 304

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *