एक छोटा बच्चा था, जिसको कभी दर्पण नहीं दिखाया गया था। उसने आईने में अपने ही डील-डौल का एक बच्चा देखा। वह उसके पास गया और उसने शीशे से अपनी नाक लगायी तो दर्पण वाले बच्चे ने भी वैसा ही किया। बच्चे ने जैसे ही अपने हाथ शीशे पर रखे, शीशा गिरा और उसके दो टुकड़े हो गये। अब बच्चे ने देखा कि शीशे में एक के बदले दो बच्चे हैं !
माँ आयी, गुस्से से पूछाः “तूने यह क्या किया !”
बच्चा खुशी से उछलाः “अऐ ! मैंने दो बना दिये….।”
मूल में एक बच्चा था, जो दर्पण वाले एक बच्चे से बातचीत कर रहा था। अब इस बच्चे ने दो बच्चे बना दिये। इन खंडों को तोड़कर अब 4 खंड बनाइये तो आपको 4 बच्चे मिलेंगे। 8 खंड बनाने से छोटा बच्चा 8 बच्चों की सृष्टि कर सकता था। इस प्रकार से मनमानी संख्या में बच्चों की सृष्टि की जा सकती है। किंतु क्या वह असली चैतन्य आत्मदेव, क्या वह असली बच्चा शीशों के टूटने से बढ़ता या घटता है ? वह न बढ़ता है न घटता है। कमी और ज्यादती केवल शीशों में होती है। अनंत कैसे घट-बढ़ सकता है ? अनंतता यदि बढ़ती-घटती है तो वह अनंतता नहीं है। निर्विकार अनंत शक्ति का प्रतिबिम्ब अनंत रूपों में विवर्तित (वस्तु में अपने मूल् स्वभाव को छोड़े बिना ही अन्य वस्तु की प्रतीति होना यह ‘विवर्त’ है। सीपी में चाँदी दिखना, रस्सी में साँप दिखना विवर्त है।) होता रहता है, करोड़ों शरीरों में वह अनंतता प्रकट होती रहती है। वह वही रहती है। वह केवल एक है, दो नहीं, बहु नहीं।
‘ओ ! महाआश्चर्य ! कैसा आनंद है ! इस शरीर के दो भाग कर दो, काट डालो पर वास्तविक सच्चा ‘मैं’ नहीं मरता है। अनुभव करो कि तुम भीतरी अनंतता हो। जिस क्षण कोई मनुष्य अपनी वास्तविक अनंतता, व्यापकता जान लेता है, जिस क्षण मनुष्य को अपनी वास्तविकता का ज्ञान हो जाता है, उसी क्षण वह स्वाधीन हो जाता है, सम्पूर्ण भय, कठिनता, यातना, कष्ट और व्यथा से परे हो जाता है। यह जानो।
ओ ! यह कैसा आश्चर्यों का आश्चर्य है कि वह एक ही अनंत शक्ति है, जो अपने को सब्र शरीरों में, सब प्रकट रूपों में प्रदर्शित करती है। वह मैं हूँ। मैं अनंत, एक, जो अपने को बड़े-से-बड़े वक्ताओं, महापुरुषों और घोर अभागे प्राणियों के शरीरों में प्रकट कर रहा हूँ। ओ ! कैसा आनंद है ! मैं अनंत, एक हूँ…. न कि यह शरीर !’ इसका अनुभव करो और तुम स्वाधीन हो। ये केवल शब्द नहीं है। यह सच्ची से सच्ची वास्तविकता है, सत्यतम वास्तविकता है। प्रकृत शक्ति को, जो तुम हो, प्राप्त करो। तुम अनंत हुए कि सब आशंकाओं और कठिनताओं से तुरंत दूर हटे।
शरीर, मन विभिन्न शीशों के समान हैं। कोई सफेद, कोई अनुकूल और कोई प्रतिकूल शीशे के समान है। शरीर विभिन्न हैं, अज्ञानवश तुम अपने को शरीर कहते हो। तुम अनंतशक्ति, परमात्मा, निरंतर, निर्विकार, निर्विकल्प, एक हो। तुम ऐसे हो यह जानते ही तुम अपने को समस्त संसार, अखिल ब्रह्मांड में बसते पाते हो।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2018, पृष्ठ संख्या 7 अंक 304
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