Monthly Archives: August 2018

हे मनुष्यो ! एकजुट हो जाइये….


समानी व आकूतिः समाना हृदयानि चः।

समानमस्तु वो मनो यथा वः सुसहासति।।

‘हे मनुष्यो ! तुम लोगों के संकल्प और निश्चय एक समान हों, तुम सबके हृदय तक एक जैसे हो, तुम्हारे मन एक समान हों ताकि तुम्हें सब शुभ, मंगलदायक, सुहावना हो (एवं तुम संगठित हो के अपने सभी कार्य पूर्ण कर सको)।’

(ऋग्वेदः मंडल 10, सूक्त 191, मंत्र 4)

1.विचार संकल्पः जगत संकल्पमय है। जब अनेक व्यक्तियों के विचारों में एकजुटता होती है तब उससे सामूहिक संकल्प-शक्ति पैदा होती है, जिसके प्रभाव से दुनिया में क्रांतिकारी बदलाव होते देखे गये हैं। जब-जब आत्मवेत्ता सत्पुरुष धरती पर अवतरित होते हैं, तब-तब तत्कालीन जितने अधिक लोग उनके सिद्धान्त को समझ पाते हैं, उनके पदचिन्हों का अनुसरण कर पाते हैं उतना ज्यादा व्यक्ति, समाज, देश और पूरे विश्व का कल्याण होता है।

2.हृदय-साम्यः हृदय का एक अर्थ केन्द्र भी होता है। हृदय साम्य का अर्थ है कि हमारा जो केन्दीय सिद्धान्त है वह उस एक ईश्वरीय विधान के अनुकूल हो। ईश्वरीय विधान यह है कि सबकी भलाई में अपनी भलाई, सबके मंगल में अपना मंगल है क्योंकि सबकी गहराई में एक ही चैतन्य आत्मा विद्यमान है। अकः किसी का अहित न चाहना भगवान की सबसे बड़ी सेवा है। सबका हित चाहने से आपका स्वयं का हृदय मंगलमय हो जायेगा। ईश्वर में आप जितना खोओगे, उनके प्रति आप जितना समर्पित होंगे, ईश्वर आपके द्वारा उतने ही बढ़िया कार्य करवायेंगे। इससे ईश्वर भी मिलेंगे और समाज की सेवा भी हो जायेगी।

3.मनः साम्यः यदि मन-भेद है, मनःसाम्य नहीं है तो बाहर की सुख-सुविधाएँ होते हुए भी लोग भीतर से दुःखी, चिंतित, अशांत रहते हैं। सभी के मन भिन्न-भिन्न हैं, ऐसे में क्या मनःसाम्य सम्भव है ? हाँ, सम्भव है। सभी के मन एक चैतन्यस्वरूप आत्मा से स्फुरित हुए हैं। अतः यदि आत्मदृष्टि एवं आत्मानुकूल व्यवहार का अवलम्बन लिया जाय तो मनःसाम्य के लिए अलग किसी प्रयास की आवश्यकता नहीं रहेगी। इससे जीवन में परमत सहिष्णुता आयेगी अर्थात् अपने मत का आग्रह न रहकर दूसरे का जो भी कोई शास्त्रसम्मत मत सामने आयेगा, उसके अनुमोदन एवं पूर्ति में रस आयेगा। इससे अपने व्यक्तिगत अधिकारों की चिंता छूटने लगेगी और दूसरों के शास्त्रसम्मत अधिकारों की रक्षा होने लगेगी। दूसरों द्वारा अपना सही विचार भी अस्वीकृत होने पर व्यक्ति के हृदय में विक्षेप व खेद नहीं होगा बल्कि वह ईश्वर को, सदगुरु को प्रार्थना करेगा एवं शरणागत होकर हल खोजेगा।

तो उपरोक्त वैदिक त्रिसूत्री में अपना एवं सबका मंगल समाया हुआ है। अपना एवं समाज का जीवन सुशोभित करने के लिए मानो यह एक ईश्वरीय उपहार ही है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2018, पृष्ठ संख्या 2 अंक 308

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ईश्वर में मन लगायें या पढ़ाई में ?


ईश्वर में मन लगायें कि नहीं लगायें ? अगर ईश्वर में मन लगायें तो फिर पढ़ने में कैसे लगेगा ? बताओ, अब क्या करना चाहिए बच्चों को ? बोले, ‘मन लगा के पढ़ना चाहिए।’ यह बात भी सच्ची है। फिर बोलते हैं- ‘ईश्वर के सिवाय कहीं भी मन लगाया तो अंत में रोना ही पड़ेगा !’ तो अब क्या करें बच्चे ? बोलो ! जा के मंदिर में बैठोगे क्या ? नहीं। तो क्या यह बात झूठी है कि ‘ईश्वर के सिवाय कहीं भी मन लगाया तो अंत में रोना ही पड़ेगा’? झूठी नहीं है, सच्ची है, बिल्कुल सच्ची है। ईश्वर ही निर्दुःख तत्त्व है। ईश्वर ही एक अविनाशी तत्त्व है और ईश्वर में मन लगाया तो पढ़ने में मन लगना बड़ा आसान हो जायेगा। जिसने ईश्वर में मन लगाने की रीत जान ली, वह कहीं भी मन लगायेगा तो उस विषय में छक्के लग जायेंगे उसके। क्योंकि ‘रसो वै सः।’ ईश्वर रसस्वरूप हैं, ज्ञानस्वरूप हैं, करूणामय हैं, प्रेरणादाता है फिर वे अपने भक्त को विफल क्यों होने देंगे ?

जिसका जितने अंश में ईश्वर में मन टिका उतना वह माँ-बाप के लिए, देश के लिए, समाज के लिए, और भी सबके लिए हितकारी होगा। आइंस्टीन ध्यान करते थे, पत्नी सुंदर, आज्ञाकारिणी थी फिर भी वर्षों तक विकारों में मन नहीं लगाया, ईश्वर में मन लगाया तो आइंस्टीन कितने बड़े वैज्ञानिक हो गये। नहीं हुए क्या ? जिन महापुरुषों को इतने लोग स्नेह करते हैं, इतने लोग उनका प्रवचन सुनते हैं, वे ज्यादा पढ़े नहीं हैं लेकिन फिर भी उनके पास कैसा-कैसा है कि उनका अनुसरण करते हैं लाखों लोग ! ईश्वर में मन लगाकर ही संसार की इन सारी समस्याओं का समाधान हो सकता है, नहीं तो नहीं हो सकता। जितने अंश में आप ईश्वर के करीब होते हो, उतने अंश में आप व्यवहार में भी बराबर सज्जन होते हो। ईश्वर में मन लगेगा तो ईश्वर है सत्-चित्-आनंदस्वरूप, ईश्वर के 26 दैवी गुण हैं, वह दैवी सम्पदा आपमें आऩे लगेगी।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2018, पृष्ठ संख्या 19 अंक 308

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राधा जी को भगवान श्रीकृष्ण का तत्त्वोपदेश


जन्माष्टमी पर स्वयं भगवान के श्रीमुख से उनके स्वरूप-अमृत का पान

एक बार भगवान श्रीकृष्ण द्वारका से वृंदावन पधारे। उस समय उनकी वियोग-व्यथा से संतप्त गोपियों की विचित्र दशा हो गयी। प्रिय-संयोगजन्य स्नेहसागर की उन्मुक्त तरंगों में उनके मन और प्राण डूब गये। गोपीश्वरी राधिका जी मूर्च्छित हो गयीं और साँस लेना भी बंद हो गया।

गोपियाँ चिल्ला-चिल्ला कर कहने लगीं- “श्री कृष्ण ! तुमने यह क्या किया ? हमारी राधिका को मार डाला ! तुम्हारा मंगल हो, तुम शीघ्र ही हमारी राधिका को जीवित भी कर दो।”

उनकी ऐसी आतुरता देखकर भगवान ने अपनी अमृतमयी दृष्टि से राधा जी में जीवन का संचार कर दिया। राधादेवी रोती-रोती उठ बैठीं। गोपियों ने उन्हें गोद में लेकर बहुत कुछ समझाया-बुझाया परंतु उनका कलेजा न थमा।

अंत में श्रीकृष्ण जी ने ढाढ़स बँधाते हुए कहाः “राधे ! मैं तुमसे परम श्रेष्ठ आध्यात्मिक ज्ञान का वर्णन करता हूँ, जिसके श्रवण मात्र से मूर्ख मनुष्य भी पंडित हो जाता है।

राधे ! कार्य और कारण के रूप में मैं ही अलग-अलग प्रकाशित हो रहा हूँ। मैं सभी का एकमात्र आत्मा हूँ और अपने स्वरूप में प्रकाशमय हूँ। ब्रह्म से लेकर तृणपर्यंत समस्त प्राणियों में मैं ही व्यक्त हो रहा हूँ। मैं ही धर्मस्वरूप, धर्ममार्ग-प्रवर्तक ऋषिवर नर और नारायण हूँ। मैं ही सिद्धिदायक सिद्धेश्वर मुनिवर कपिल हूँ। सुंदरी ! इस प्रकार मैं नाना रूपों से विविध व्यक्तियों के रूप में विराजमान हूँ। द्वारका में चतुर्भुजरूप से रुक्मिणी का पति हूँ और क्षीरसागर में शयन करने वाला मैं ही सत्यभामा के शुभ गृह में वास करता हूँ। अन्यान्य रानियों के महलों में भी मैं अलग-अलग शरीर धारण कर रहता हूँ। मैं ही अर्जुन के सारथीरूप से ऋषिवर नारायण हूँ।

जैसे तुम गोलोक में राधिका देवी हो, उसी तरह गोकुल में भी हो। तुम ही वैकुंठ में महालक्ष्मी और सरस्वती होकर विराजमान हो। तुम ही द्वारका में महालक्ष्मी के अंश से प्रकट हुई सती रुक्मिणी हो और अपने कलारूप से पाँचों पांडवों की प्रिया द्रौपदी हुई हो तथा तुम ही मिथिला में सीता के रूप में प्रकट हुई थीं और तुम्हें रावण हर ले गया था। अधिक क्या कहूँ !

जिस प्रकार अपनी छाया और कलाओं के द्वारा तुम नाना रूपों से प्रकट हुई हो, उसी प्रकार अपने अंश और कलाओं से मैं भी विविध रूपों से प्रकट हुआ हूँ। वास्तव में तो मैं प्रकृति से परे सर्वत्र परिपूर्ण साक्षात् परमात्मा हूँ। सती ! मैंने तुमको यह सम्पूर्ण आध्यात्मिक रहस्य सुना दिया।”

भगवान के ये गूढ़ रहस्य-वचन सुनकर राधा जी और गोपियों का क्षोभ दूर हो गया। उन्हें अपने वास्तविक स्वरूप का भान हो गया और उन्होंने चित्त में प्रसन्न होकर भगवान के चरणकमलों में प्रणाम किया।

पूज्य बापू जी कहते हैं- “अनेक रूपों में बसे हुए वे एक-के-एक सच्चिदानंद परमात्मा ही मेरे आत्मा हैं – ऐसा ज्ञान जिसे हो जाता है उसका जीवन सफल हो जाता है।”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2018, पृष्ठ संख्या 12 अंक 308

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