किसी भी वस्तु का वर्णन करो, ऐसा कहने पड़ेगा कि ‘मुझे ऐसा प्रतीत होता है।’ इसके अतिरिक्त और कोई भाषा नहीं है। सृष्टि का कारण, प्रलय का स्वरूप, ईश्वर, प्रकृति – किसी का भी वर्णन करो, कहना यही पड़ेगा कि ‘मुझे ऐसा प्रतीत होता है।’ बंधन भी प्रतीत होता है और मोक्ष भी। सुख भी प्रतीत होता है और दुःख भी। इस प्रतीति को जब हम सच्ची मान लेते हैं, तब सुखी-दुःखी होते हैं। भेद-प्रतीति के ज्ञान को हम पहले सच्चा मान लेते हैं, फिर अच्छा बुरा मानते है, तत्पश्चात् प्रिय-अप्रिय मानते हैं और तब फिर प्राप्ति और त्याग का प्रयत्न करते हैं। इस प्रकार हम भेद-प्रतीति में इतने निमग्न हो जाते हैं कि वह सत्य बन जाती है और राग-द्वेष बद्धमूल (दृढ़) हो जाते हैं। आत्मदेव तो सर्वथा शुद्ध और आनंदस्वरूप ही है।
आनंद के बारे में 5 बातें मन में बैठा लो
1.आनंद का कोई कारण नहीं होता अर्थात् आनंद उत्पन्न नहीं होता। उत्पन्न हुआ आनंद नाशवान होगा। अतः आनंद नित्य है।
2.आनंद का कोई कार्य नहीं होता। अर्थात् आनंद सबका फल है, आनंद का कोई फल नहीं है। अतः आनंद अपरिणामी निर्विकार है।
3.आनंद का कोई प्रतिस्पर्धी नहीं होता जैसे कि सुख का प्रतिस्पर्धि दुःख होता है। इस अर्थ में आनंद सुख से विलक्षण है अतः आनंद अद्वितीय अथवा पूर्ण है। आनंद का कोई विजातीय (दो भिन्न जातियों के पदार्थों में विद्यमान भेद। जैसे पत्थर और पेड़ का भेद, गाय और मनुष्य का भेद। सच्चिदानंदस्वरूप ब्रह्म में उससे भिन्न कुछ भी नहीं है जो उसका विजातीय हो सके।) नहीं है।
4.क. आनंद में सजातीय भेद (एक ही जाति के दो पदार्थों में विद्यामान भेद। जैसे- मनुष्य-मनुष्य का भेद, वृक्ष-वृक्ष का भेद। जैसा यह ब्रह्म-परमात्मा है ऐसा दूसरा ब्रह्म-परमात्मा भी मौजूद है, ऐसा नहीं है। ब्रह्म एक और अद्वितीय है। अतः आनंदस्वरूप ब्रह्म में सजातीय भेद नहीं है।) नहीं है, अतः सर्वत्र आनंद एक ही है, भले वह किसी प्रकार भी (किसी भी उपाधि से) प्रकट हो। खट्टा खाने से आनंद एक और मीठा खाने से आनंद दो, ऐसा नहीं होता। विषय-भेद से आनंद में भेद का आरोप होता है पर आनंद एक ही है।
ख. आनंद में स्वगत भेद (एक ही वस्तु के विभिन्न अंगों में विद्यमान भेद। जैसे – एक ही शरीर में हाथ, पैर, नाक, कान आदि का भेद, एक ही वृक्ष में शाखा और फल का भेद। स्वगत भेद सावयव पदार्थों-प्राणियों में होता है। सच्चिदानंद ब्रह्म देश, काल, वस्तु के परिच्छेद से रहित है। वह निर्गुण-निराकार है, अंग-प्रत्यंगों से रहित है। अतः उसमें स्वगत भेद भी सम्भव नहीं है। इस प्रकार आनंदस्वरूप परमात्मा सजातीय, विजातीय में स्वगत – तीनों भेदों से रहित है।) भी नहीं होता। कम आनंद, अधिक आनंद, गाढ़ा आनंद, हलका आनंद आदि जो तारतम्य प्रतीत होता है, वह वृत्ति का है, आनंद का नहीं।
5.आनंद कभी परोक्ष नहीं होता। अज्ञात रूप से आनंद कभी नहीं होता।
अर्थात् आनंद कभी अज्ञान से ढकता नहीं है। आनंद सबका सबसे बड़ा प्रेमास्पद है। सब आनंद से ही प्यार करते हैं। तुम सबसे अधिक जिससे प्यार करते हो वही तुम्हारा आनंद है और सबसे अधिक प्यार अपने अतिरिक्त और किसी से नहीं होता। ‘नारद भक्ति-दर्शन’ में प्रेम के लक्षण में भी जहाँ ‘तत्सुखसुखित्वम्’ (उसके सुख से सुखी होना) कहा गया है वहाँ ‘सुखित्वम्’ (सुखी होना) आत्मगामी ही है। आनंद अन्य नहीं है। आप ही आनंद है।
अब सोचो पुरुषार्थ कहाँ है ? अपने पुरुषार्थ आप स्वयं हैं। अपने-आपको छोड़कर और कुछ पाना नहीं है और अपना-आपा नित्य प्राप्त है परंतु यह ज्ञात नहीं है, बस यही भूल है ! ज्ञात हो गया बस, दुःख निवृत्त हो गया, मोक्ष हो गया। ज्ञान से नित्य प्राप्त की ही प्राप्ति-सी होती है।
हाथ में कंगन हैं परंतु भूल गये। अब ढूँढते हैं इधर-उधर। किसी जानकार ने बता दिया, ‘वह हाथ में जो है वही तो कंगन है।’ बस, कंगन मिल गया। खोया नहीं था, खोया सा था, मिला नहीं, मिल सा गया। यही हाल अपने स्वरूप का है। उसकी ब्रह्मता खो-सी गयी है, जिसके फलस्वरूप अपने में मृत्यु, दुःख, अज्ञान, बंधन प्रतीत होता है। वेदांत-वाक्यों के द्वारा कोई सद्गुरु कृपा करके बता देते हैं, ‘वह ब्रह्म तो तुम आत्मा ही हो।’ बस, आत्मा की ब्रह्मता मिल-सी गयी और बंधनादि की निवृत्ति हो गयी। यही मोक्ष है।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2018, पृष्ठ संख्या 24,25 अंक 309
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