एक नाव में सवार होने वाले तो तरते हैं लेकिन…

एक नाव में सवार होने वाले तो तरते हैं लेकिन…


बाबा फरीद नाम के एक सूफी फकीर हो गये। वे अनन्य गुरुभक्त थे। गुरु जी की सेवा में ही उनका सारा समय व्यतीत होता था। एक बार उनके गुरु ख्वाजा कुतुबुद्दीन बख्तियार ने उनको किसी खास काम के लिए मुलतान भेजा। वहाँ उन दिनों में शाह शम्स तबरेज के शिष्यों ने अपने गुरु के नाम का एक दरवाजा बनाया था और घोषणा की थी कि ‘आज इस दरवाजे से जो गुजरेगा, वह जरूर जन्नत (स्वर्ग) में जायेगा।’ हजारों फकीर और गृहस्थ उस दिन उस दरवाजे से गुजर रहे थे। नश्वर शरीर का त्याग होने के बाद स्वर्ग में स्थान मिलेगा ऐसी सबको आशा थी। फरीद को भी उनके मित्र फकीरों ने दरवाजे से गुजरने के लिए खूब समझाया परंतु फरीद तो उनको जैसे तैसे समझा-पटाकर अपना काम पूरा करके बिना दरवाजे से गुजरे ही अपने गुरुदेव के चरणों में पहुँच गये।

सर्वान्तर्यामी गुरुदेव ने उनसे मुलतान के समाचार पूछे और कोई विशेष घटना हो तो बताने के लिए कहा। फरीद ने शम्स जी के दरवाजे का वर्णन करके सारा वृत्तान्त सुना दिया।

गुरुदेव बोलेः “मैं भी वहाँ होता तो उस पवित्र दरवाजे से गुजरता…. तुम कितने भाग्यशाली हो फरीद कि तुमको उस पवित्र दरवाजे से गुजरने का सुअवसर प्राप्त हुआ !”

सदगुरु की लीला बड़ी अजीबोगरीब होती है। शिष्य को पता भी नहीं चलता और वे उसकी कसौटी कर लेते हैं।

फरीद तो सत्शिष्य थे। उनकी अपने सद्गुरुदेव के प्रति अनन्य भक्ति थी। गुरुदेव के शब्द सुनकर वे बोलेः “कृपानाथ ! मैं तो उस दरवाजे से नहीं गुजरा। मैं तो केवल आपके दरवाजे से ही गुजरूँगा। एक बार मैंने आपकी शरण ली है तो अब और किसी की शरण मुझे नहीं जाना है।”

यह सुनकर ख्वाजा कुतुबुद्दीन की आँखों में प्रेम उमड़ आया। शिष्ट की दृढ़ श्रद्धा और अनन्य शरणागति देख के उसे उन्होंने छाती से लगा लिया। उनके हृदय की गहराई से आशीर्वादात्मक शब्द निकल पड़ेः “फरीद ! शम्स तबरेज के दरवाजे से गुजरने वालों को तो जन्नत मिलेगी परंतु तुम्हारा दरवाजा तो ऐसा खुलेगा कि उसमें से जो भी गुजरेगा उसे जन्नत से भी ऊँची गति मिलेगी।”

आज भी पाकिस्तान के एक पाक पट्टन में बने हुए बाबा फरीद के दरवाजे में से गुजरकर हजारों यात्री अपने को धनभागी मानते हैं। यह है अपने सदगुरुदेव के प्रति अनन्य निष्ठा की महिमा !

जो भी अपने सदगुरुदेव की पूर्ण शरणागति लेता है, वह हर तरह के के द्वन्द्व से निकल जाता है। वह जान चुका होता है कि दुनिया की हकीकत क्या है और किसलिए वह इस दुनिया में आया है। पूर्ण गुरु अपने पूर्ण शरणागत शिष्य को ऐसा अलौकिक खजाना देते हैं कि जिसके आगे स्वर्ग भी कोई मायने नहीं रखता।

धन्य हैं ऐसे बाबा फरीद जैसे सत्शिष्य जो अपने सदगुरु के हाथों में अपने जीवन की बागडोर हमेशा के लिए सौंपकर निश्चिंत हो जाते हैं !

आत्मसाक्षात्कार या तत्त्वबोध तब तक सम्भव नहीं जब तक ब्रह्मवेत्ता महापुरुष साधक के अंतःकरण का संचालन नहीं करते। आत्मवेत्ता महापुरुष जब हमारे अंतःकरण तत्त्व में स्थित हो सकता है, नहीं तो किसी अवस्था में, किसी मान्यता में, किसी वृत्ति में, किसी आदत में साधक रुक जाता है। रोज आसन किये, प्राणायाम किये, शरीर स्वस्थ रहा, सुख-दुःख के प्रसंग में चोटें कम लगीं, घर की आसक्ति कम हुई पर व्यक्तित्व बना रहेगा। उससे आगे जाना है तो अपने ब्रह्मनिष्ठ सदगुरु की बिल्कुल बिनशर्ती शरणागति स्वीकार करनी होगी। ब्रह्मवेत्ता सदगुरु के हाथों में जब हमारे ‘मैं’ की लगाम आती है, तब पूर्णता की यात्रा होती है।

कोई मोक्षप्राप्ति का पथिक सदगुरु के मोक्षप्रद महाद्वार पर पहुँचता है और फिर यदि दूसरे किसी दर के मोह में फँस जाता है तो उसका मन उसे बहुत बड़ी आत्मवंचना का शिकार बना देता है। सदगुरु की एकनिष्ठ भक्ति व अनन्य निष्ठा के द्वारा उनका विश्वास-सम्पादन कर पूर्ण गुरुकृपा अर्थात् कैवल्य मुक्ति पाने का परम सौभाग्य वह खो देता है।

एक निष्ठ गुरुभक्ति की एक ही नाव में सवार होने वाले तो तर जाते हैं लेकिन दो नावों में पैर रखकर यात्रा करने वालों का हाल क्या होगा इसकी कल्पना भी नहीं की जा  सकती। ‘गुरुभक्तियोग’ सत्शास्त्र में कहा गया है कि “ईश्वर का अनुभव करने के लिए गुरुभक्तियोग सबसे सरल, विशुद्ध, त्वरित और सलामत मार्ग है। आप सब गुरुभक्तियोग के अभ्यास से इसी जन्म में ईश्वर का अनुभव प्राप्त करो। गुरुभक्तियोग सब योगों का राजा है। लेकिन जो शिष्य कई गुरुओं के पीछे दौड़ता है वह अपने आध्यात्मिक मार्ग में सफलता नहीं प्राप्त कर सकता।”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2018, पृष्ठ संख्या 6,7 अंक 310

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