परमहंस योगानंद जी अपने जीवन का एक संस्मरण बताते हुए कहते हैं- “एक बार मैं अपने एक दलाल मित्र के साथ भारत के संतों की चर्चा कर रहा था। उसने मेरी बातों में कोई उत्साह नहीं दिखाया। उसने कहाः “ये सब तथाकथित संत झूठे हैं। वे ईश्वर को नहीं जानते हैं।”
मैंने बहस नहीं की और विषय बदल दिया। हम दलाली के धंधे की चर्चा करने लग गये। जब उसने धंधे के बारे में काफी कुछ बता दिया तो मैंने सहजता से कहाः “जानते हो, पूरे कोलकाता में एक भी विश्वसनीय दलाल नहीं है। सब के सब बेईमान हैं।”
उसने गुस्से से कहाः “दलालों के बारे में आप जानते ही क्या हैं ?”
मैंने भी उत्तर दियाः “बिल्कुल ठीक ! संतों के बारे में आप भी क्या जानते हैं ?”
वह कोई उत्तर नहीं दे सका। मैं आदर के साथ आगे कहता गयाः “जिसके बारे में आप कुछ नहीं जानते उस पर कभी विवाद न करें। मैं दलाली के धंधे के बारे में कुछ नहीं जानता और आप संतों के बारे में कुछ नहीं जानते।”
आजकल पाश्चात्य शिक्षा-पद्धति का ऐसा दुष्प्रभाव हमारे देश को भुगतना पड़ रहा है कि अपने को पढ़े-लिखे समझने वाले कई लोग हर उस बात पर अपना मत-प्रदर्शन, ज्ञान-प्रदर्शन करने लगते हैं, जिसका उन्हें अनुभव-ज्ञान तो छोड़ो, ठीक से बाह्य (बौद्धिक) ज्ञान भी नहीं होता। ‘ए’, ‘बी’, ‘सी’, ‘डी’ आदि वर्णमाला के अक्षर अपनी तोतली बोली में बोलना सीखा हुआ के.जी. का सिक्खड़ बच्चा कोयले से मूँछें बनाकर गर्व से छाती फुलाते हुए पी.एच.डी. के प्राध्यापकों के बारे में अपना मत-प्रदर्शन करने लगे तो कैसा लगेगा ? इससे उन प्राध्यापकों का कुछ नहीं बिगड़ता अपितु वह बच्चा ही अपनी मंद बुद्धि का प्रदर्शन कर हँसी एवं डाँट-फटकार का पात्र हो जाता है। यही हाल उन लोगों का होता है जो खुद को आध्यात्मिकता के क्षेत्र का ‘अ’ भी ठीक से पता न होते हुए, कहीं से देख-सुन के ब्रह्मनिष्ठ संतों-सद्गुरुओं के बारे में अपनी बेतुकी राय का प्रदर्शन करने लग जाते हैं। हकीकत में किन्हीं ‘ब्रह्मवेत्ता संत’ को समझना हो तो पहले खुद में भी कुछ ‘संतत्व’ लाना पड़ता है। जो अपनी आंतरिक ऊँचाई को जितनी बढ़ाता है, वेदांत शास्त्र-सम्मत विशुद्ध आत्मिक उन्नति करने वाला सत्संग साधन जितना बढ़ाता है, अपने मन को जितनी मात्रा में निर्मल बनाता है, वह उतना ही ब्रह्मवेत्ता संत के संतत्व को समझने का अधिकारी हो जाता है। बाकी मीडिया के माध्यम से देखी, सुनी या पढ़ी हुई बातों के पुलिंदे के आधार पर जो किन्हीं ब्रह्मवेत्ता संत पर कोई टिप्पणी करते हैं, वे उन महापुरुष की हानि तो क्या करेंगे, बेचारे उपरोक्त बालक की तरह अपनी ही इज्जत खोते हैं और फटकार के पात्र बनते है।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2018, पृष्ठ संख्या 7 अंक 311
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