ब्रह्मवेत्ता महापुरुष का आज्ञापालन, उनके प्रति एकनिष्ठा महान बना देती है और परम पद की प्राप्ति करा देती है । इस तथ्य का प्रतिपादन करने वाली एक कथा पद्म पुराण के भूमि खंड में आती है ।
द्वारका नगरी में योगवेत्ता, वेदवेत्ता शिवशर्मा ब्राह्मण रहते थे । उनके पाँच शास्त्रज्ञ, गुरुभक्त, पितृभक्त पुत्र थे, जिनकी भक्ति एवं आज्ञापालन की निष्ठा महात्मा शिवशर्मा ने परीक्षा की । उन्होंने अपने योग-सामर्थ्य से एक लीला रची । पुत्रों ने देखा कि माता की मृत्यु हो गयी है । तब पिता ने ज्येष्ठ पुत्र यज्ञशर्मा को माता के शरीर के खंड-खंड कर विसर्जित करने को कहा । उसने पिता की आज्ञानुसार ही कार्य किया ।
शिवशर्मा ने अपने संकल्प सामर्थ्य से एक स्त्री को उत्पन्न किया और दूसरे पुत्र वेदशर्मा से कहाः “बेटा ! मैं दूसरा विवाह करना चाहता हूँ । इन भद्र नारी से बात करो ।”
वेदशर्मा ने उन भद्र नारी के पास पहुँचकर प्रस्ताव रखा । उनकी माँग के अनुसार वेदशर्मा ने अपनी तपस्या के बल से उन्हें इन्द्र सहित सभी देवताओं के दर्शन कराये । तत्पश्चात उन नारी ने परीक्षा लेते हुए कहाः “यदि अपने पिता के लिए मुझे ले जाना चाहते हो तो अपना सिर काट के मुझे दे दो ।”
वेदशर्मा ने हँसते-हँसते अपना सिर काट दिया । उसे लेकर वह भद्र नारी शिवशर्मा के पास पहुँची और कहाः “विप्रवर ! आपका पुत्र परीक्षा में उत्तीर्ण हो गया है । यह आपके पुत्र का सिर है, लीजिये ।”
शिवशर्मा ने तृतीय पुत्र को अपने मृत पुत्र को जीवित करने को कहा । धर्मशर्मा ने धर्मराज का आवाहन किया और उनसे कहाः “धर्मराज ! यदि मैंने गुरु की सेवा की हो, यदि मुझमें ब्रह्मवेत्ता पिता के प्रति निष्ठा और अविचल तपस्या हो तो इस सत्य के प्रभाव से मेरे भाई जीवित हो जायें ।” वेदशर्मा जीवित हो गया ।
पिता ने चौथे पुत्र विष्णुशर्मा की परीक्षा हेतु उसे इन्द्रलोक से अमृत लाने को कहा । इन्द्र ने उसे पथभ्रष्ट करने हेतु मेनका को भेजा तथा कई विघ्न उपस्थित किये पर संयम, तप व गुरुस्वरूप अपने ब्रह्मनिष्ठ पिता की भक्ति के प्रभाव से विष्णुशर्मा ने इन्द्र के सब प्रयासों को विफल कर दिया । अंततः इन्द्र ने क्षमायाचना की और विष्णुशर्मा को अमृत का घड़ा दिया, जिसे लाकर उसने पिता को अर्पण किया ।
शिवशर्मा ने उन पुत्रों की भक्ति से संतुष्ट होकर उन्हें वरदान माँगने को कहा । पुत्रों ने कहाः “सुव्रत ! आपकी कृपा से हमारी माता जीवित हो जायें ।”
महात्मा शिवशर्मा ने अपना संकल्प बल हटाया और उन पुत्रों ने अपनी माता को सामने पाया । शिवशर्मा ने और भी कुछ वर माँगने को कहा तो पुत्रों ने भगवान के परम धाम भेजने का वर माँगा । ब्रह्मनिष्ठ पिता के ‘तथास्तु’ कहते ही उनके संकल्प के प्रभाव से भगवान विष्णु प्रकट हुए और चारों भाइयों को अपने साथ परम धाम ले गये ।
अब महात्मा शिवशर्मा ने सबसे छोटे पुत्र सोमशर्मा की परीक्षार्थ उसे अमृत के घड़े की रक्षा का भार सौंपा और पत्नी के साथ तीर्थयात्रा को निकल पड़े । दस वर्षों बाद वे लौटे और संकल्पशक्ति का प्रयोग करके पत्नी सहित कोढ़ी बन गये ।
सोमशर्मा माता-पिता के मल-मूत्र तथा कफ आदि धोते, चरण दबाते – इस प्रकार भक्तिभाव से सेवा करके उन्हें प्रसन्न रखने की चेष्टा करते थे । पिता सोमशर्मा को कठोर व दुःखदायी वचन बोलते, डंडों से पीटते फिर भी वे सदा संतुष्ट रहकर उनकी सेवा-पूजा करते थे ।
एक दिन शिवशर्मा ने संकल्प-सामर्थ्य का प्रयोग कर घड़े से अमृत का अपहरण कर लिया और पुत्र को अमृत लाने को कहा । सोमशर्मा ने खाली घड़ा देख मन-ही-मन कहाः “यदि मुझमें सत्य और गुरु शुश्रूषा है, यदि मैंने इंद्रियसंयम, सत्य और शौच (आंतर-बाह्य पवित्रता) आदि धर्मों का ही सदा पालन किया है तो यह घड़ा निश्चय ही अमृत से भर जाय ।” घड़ा तुरंत अमृत से भर गया । सोमशर्मा ने पिता के चरणों में अमृत का घड़ा अर्पण किया ।
शिवशर्मा बोलेः “पुत्र ! आज मैं तुम्हारी गुरु-शुश्रूषा तथा भक्तिभाव से विशेष संतुष्ट हूँ । लो, अब मैं इस विकृत रूप का त्याग करता हूँ ।”
महात्मा शिवशर्मा ने पुत्र को अपने पहले रूप में दर्शन दिये । तदनंतर महात्मा शिवशर्मा अपनी ज्ञाननिष्ठा के प्रभाव से पतिव्रता पत्नीसहित परम दुर्लभ पद को प्राप्त हो गये ।
उसके बाद महाबुद्धिमान सोमशर्मा सभी विषयों का त्याग करके एकांत में तपस्या करने लगे । वहाँ स्थित दानवों की आवाज सोमशर्मा के कान में सुनाई देती थी, फिर भी वे भगवद्ज्ञान व ध्यान में ही अधिक रत रहते थे । लेकिन अंतिम समय में दानवों का चिंतन होने के कारण सोमशर्मा को दैत्य कुल में हिरण्यकशिपु के पुत्र ‘प्रह्लाद’ के रूप में जन्म लेना पड़ा । फिर भी पूर्वजन्म के भगवद्भक्ति, ज्ञान, ध्यान के संस्कारों को मृत्यु छीन न सकी और प्रह्लाद भी अंत में परम पद को प्राप्त हुए । (पद्म पुराण में भगवान वेदव्यास जी कहते हैं कि ‘कल्पभेद से प्रह्लादजी का जन्म भिन्न-भिन्न प्रकार से कहा गया है ।’ सनक ऋषि भी प्रह्लाद जी के रूप में अवतरित हुए थे ऐसा शिव पुराण में वर्णन आता है ।)
जिनके गुरु या पिता ब्रह्मनिष्ठ हों और यदि शिष्यों, संतानों में दृढ़ भक्तिनिष्ठा, आज्ञापालन में तत्परता हो तो उनकी मुक्ति में संशय ही क्या ! उनको निश्चय ही परम पद की प्राप्ति होती है ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2019, पृष्ठ संख्या 30, 31 अंक 313
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