ईश्वरप्राप्ति के अनुभव का सबसे सुलभ साधन-पूज्य बापू जी

ईश्वरप्राप्ति के अनुभव का सबसे सुलभ साधन-पूज्य बापू जी


प्रेमास्पद के प्रति प्रेम का आरम्भ है – निष्काम सेवा, सत्कर्म । सेवा प्रेम का आरम्भ है  और प्रेम सेवा का फल है । फिर सेव्य और सेवक दो दिखते हैं लेकिन उनकी प्रीति एकाकारता को प्राप्त हो जाती है । जैसे, एक ही कमरे में दो दीये दिखते हैं लेकिन प्रकाश दोनों का एक ही होता है । हम का कौन-सा प्रकाश है ।

व्यवहार में अगर ईश्वरप्राप्ति के अनुभव करने हों तो सेवा ईश्वरप्राप्ति का आरम्भ है और हृदय की शीतलता, प्रसन्नता,  आनंद – ये ईश्वर के प्राकट्य के संकेत हैं । सेवा में इतनी शक्ति है कि वह हृदय को शुद्ध कर देती है, विकारी सुखों की वासना मिटा देती है, सुख-दुःख में निर्लेप कर देती है एवं स्वामी के सद्गुण सेवक में भर देती है और स्वामी का अनुभव सेवक का अनुभव हो जाता है ।

श्री रामचरितमानस में आता हैः सब तें सेवक धरम कठोरा । सेवा-धर्म सबसे कठोर तो है लेकिन उसका फल भी सबसे बढ़िया है । उत्तम सेवक सेवा का फल नहीं चाहता । उसको सद्गुरु की ओर से चाहे कितना भी कठोर दंड मिले, वह तो यही समझता है कि ‘यह कठिनाई मेरे विकास के लिए है, मेरी शुद्धि के लिए है ।’ वह ‘ज्ञानी निजजन कठोरा’ – इस सिद्धान्तानुसार शीघ्र आत्मोन्नति के पथ पर अग्रसर होता रहता है । सद्गुरु के प्रति अहोभाव का, धन्यता का अनुभव करता है ।

उड़िया बाबा से किसी ने पूछा कि “गुरु जी ने हमें स्वीकार कर लिया है यह कैसे पता चले ?”

उड़िया बाबा ने कहाः “तुम यदि गलती करते हो और गुरु तुम्हें निःसंकोच डाँट दे तो समझ लेना कि गुरु ने तुमको स्वीकार कर लिया है । किंतु गुरु को तुम्हें डाँटने में संकोच हो रहा हो, गुरु सोचते हों कि ‘क्या पता, यह समर्पित है कि नहीं….’ तो समझना कि अभी कमी है । जैसे हम निःसंकोच अपनी वस्तु का उपयोग करते हैं, ऐसे ही गुरु अपने शिष्य को निःसंकोच भाव से कहें कि ‘यह कर दे… वह कर दे….’ तो समझना कि गुरु शिष्य पर प्रसन्न हैं ।”

गुरु प्रसन्न कब होते हैं ।

जब हमारी उन्नति होती है ।

हमारी उन्नति कब होती है ?

जब हम अपना व्यक्तिगत स्वार्थ छोड़कर ईश्वर के लिए काम करते है ।

सेवा में बड़ी शक्ति होती है । सेवा सेव्य को भी सेवक के वश में कर देती है । श्री हनुमान जी ने सेवा ही श्रीरामजी को प्रसन्न कर लिया था…. और कलियुग में सेवाधर्म का बड़ा माहात्म्य है क्योंकि कलियुग में योग-समाधि सब लोग नहीं कर सकते लेकिन अपनी-अपनी योग्यता के अनुसार सेवा तो सभी कर सकते हैं । अतः सेवक को, साधक को, भक्त को चाहिए कि वह निःस्वार्थ होकर, निष्काम हो के तत्परता एवं ईमानदारीपूर्वक सेवा करे ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2019, पृष्ठ संख्या 27, अंक 313

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