शरीर से वियोग हुआ है, मेरे आत्मा से नहीं
मनुष्य जन्म अपने आत्मा को, अपने सत्-चित्-आनंदस्वरूप को जानने के लिए ही मिला है, संसार के इन्द्रियों के सुख भोगने के लिए नहीं मिला है। संसार में कुछ भी पाया लेकिन अपने सत्-चित्-आनंदस्वरूप, आत्मस्वरूप को नहीं जाना तो व्यक्ति आखिर में खाली-का-खाली रह जायेगा।
मेरा और साधकों का शरीर से वियोग हुआ है लेकिन मेरे आत्मा से साधकों का वियोग नहीं हुआ है और न कभी हो सकता है। मैं जेल में हर तरह के कैदियों के बीच में रह रहा हूँ फिर भी उनका मेरे ऊपर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। मैं अपने सत्-चित्-आनंदस्वरूप में रहता हूँ। तुम साधक भी संसार में इस तरह से रहो कि किसी का भी तुम्हारे पर प्रभाव न पड़े। तुम भी अपने सत्-चित्-आनंदस्वरूप में रहो।
समुद्र में भी लहरें आती हैं, वे नहीं आयें ऐसा तो हो नहीं सकता है। ऐसे ही संसार में सब होता रहता है, अपनी पकड़ नहीं रखनी चाहिए। अपने आत्मा-परमात्मा को जानना चाहिए, बाकी जो मिला है वह छूट जायेगा और जो मिलेगा वह भी छूट जायेगा। जैसे – बचपन चला गया, यौवन चला गया, बुढ़ापा भी आकर चला जायेगा…. सब कुछ छूट रहा है लेकिन अपने मैं का मूल आत्मा-परमात्मा ज्यों-का-त्यों है। उसको जानो, वही सार है।
ईश्वर ही सार है
जो सब कुछ जानता है वही सत्यस्वरूप है, अपना-आपा है। क्रोध आया तो किसको आया ? इसके साक्षी बनो। कोई भी काम करते हो – जॉब आदि तो कौन करता है ? इसके साक्षी बनो । ईश्वर ही सार है, बाकी सब असार है, कुछ नहीं है ।
अपने आत्मा में सुख पाओ फिर कितनी भी समस्याएँ आयेंगी, सब पसार हो जायेंगी । एक अपने-आप में बैठो ।
गुरु जी से क्या माँगे ?
गुरु जी से क्या पूछना चाहिए व क्या माँगना चाहिए – इस बारे में बताते हुए पूज्यश्री ने सांदीपनि जी की गुरु भक्ति का प्रसंग सुनाया । पूज्य श्री ने बतायाः “सांदीपनि के गुरु जी ने अपने इस शिष्य को वरदान माँगने के लिए कहा लेकिन उसने अपने गुरु से संसार की कोई वस्तु नहीं माँगी। तब गुरु जी ने सांदीपनी को वरदान दिया कि “भगवान कृष्ण अवतार लेकर आयेंगे और तेरे शिष्य बनेंगे ।“
आजकल के शिष्य गुरु जी से संसारी वस्तुएँ माँगते हैं । अपनी संसार की परेशानियों के बारे में ही पूछते हैं । अपने गुरु जी से संसारी वस्तुएँ नहीं माँगनी चाहिए। अपने आत्मा के कल्याण के लिए ही प्रयत्न करना चाहिए । विनाशी जगत की आसक्ति, अहंकार में उलझे लोग मनुष्य जीवन की महत्ता नहीं जानते ।
हृदयपूर्वक प्रार्थना करें- ‘प्रभु ! हमें सदबुद्धि दो, सद्विवेक दो । अविनाशी, अमर आत्मा में हमारी प्रीति हो । मरने वाले शरीर व नाशवान संसार में हमारी आसक्ति व अहंकार हमें उलझा रहे हैं । इन आसक्ति व अहंकार से हम बचें । तुम अविनाशी आतम अमर के ज्ञान में, प्रीति में लगें । दुःखद विकारों में हम कई जन्मों तक भटके । ऐ सुखस्वरूप अविनाशी प्रभु ! तुम्हारी प्रीति और तुम्हारे ज्ञान में हमारी गति हो ऐसे दिन कब आयेंगे ? दुर्लभ मनुष्य-जीवन मिटने वाले शरीर और छूटने वाली वस्तुओं के पीछे खप रहा है । अछूट अपने आत्मदेव में यह अभागा मन कब लगेगा ? बुढ़ापा, बीमारी, मृत्यु की नज़दीक वाली लाचारी, मोहताजी आये उसके पहले जहाँ मृत्यु की दाल नहीं गलती उस असली आत्मस्वरूप की प्रीति पायें, विश्रांति पायें और सदा के लिए सब दुःख मिटायें हमें ऐसी मति-गति दे हे प्रभु ! हे गुरुदेव !…“
जिज्ञासु के प्रश्न
एक जिज्ञासु ने पूछाः “गुरुदेव ! मुझे ईश्वर को पाना है, जीवन में महान बनना है… कैसे बनूँ ?”
पूज्य बापू जीः “तुम (आत्मा) तो पहले से ही महान हो, तुम्हारी सत्ता से ही महानता प्रकट होती है । बनना कुछ भी नहीं है, बनना काहे को है !”
“बचपन में विकारी जीवन था…“
“विकारी जीवन बचपन में था न, जो बीत गयी सो बीत गयी, अभी तो मौज में रह न !”
साधकः “गुरुदेव आध्यात्मिक उन्नति चाहता हूँ, कभी-कभी उन्नति होती है तो कभी फिसलाहट भी होती है, नीचे गिरना होता है, क्या करूँ ?”
पूज्य बापू जीः “पंचामृत पुस्तक पढ़ो और शांत होने का अभ्यास करो ।“
(‘पंचामृत पुस्तक‘ सत्साहित्य केन्द्रों पर उपलब्ध है । – संकलक)
(संकलकः गलेश्वर यादव)
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2019, पृष्ठ संख्या 4,5 अंक 313
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