अज्ञान क्या है, किसको है और कैसे मिटे ?

अज्ञान क्या है, किसको है और कैसे मिटे ?


स्वामी अखंडानंद सरस्वती जी बताते हैं कि “छोटेपन में हम महात्माओं से पूछतेः ‘अज्ञान कहाँ रहता है ? अज्ञान किसको है ?’ वैष्णवों ने इस अज्ञान पर बड़ा आक्षेप किया है कि अद्वैत मत में इस अज्ञान का कोई आश्रय ही सिद्ध नहीं होता । यदि जीव को अज्ञान का आश्रय कहें तो जीव स्वयं अज्ञान के बाद हुआ । ईश्वर अज्ञानी हो नहीं सकता  और ब्रह्म नित्य शुद्ध, बुद्ध, मुक्त अद्वितिय है अतः उसमें भी अज्ञान असिद्ध है । इन्हीं सब तर्कों को हम महात्माओं के सामने रखते ।

एक दिन एक महात्मा ने हमको विवेक का कोड़ा मारा । वे बोलेः “तुम आत्मा, परमात्मा, ईश्वर की बात क्यों करते हो, मनुष्य की बात क्यों नहीं करते ? तुम मनुष्य हो न ! मनुष्य होकर ही पूछते हो । हम कहते हैं मनुष्य की नासमझी का नाम अविद्या है । यह अविद्या, अविवेक मनुष्य की (उपजायी कल्पना) है, यह न जीव को है, न ईश्वर को है और न ब्रह्म को है ।”

सन् 1938 में हम रमण-आश्रम गये थे । मैंने महर्षि रमण से पूछाः “यह अज्ञान किसको है ?”

महर्षिः “यह प्रश्न किसका है ?”

“जिज्ञासु का ।”

“जिज्ञासु कौन है ?”

“जिसे जानने की इच्छा है ।”

“जानने की इच्छा किसको है ?”

“मुझको है ।”

“तुम ही अज्ञानी हो । तुमको ही जानने की इच्छा है । यह अज्ञान तुमको ही है । अनुसंधान करो कि मैं कौन हूँ ।”

श्री उड़िया बाबा जी से एक बार हमने पूछाः “यह अज्ञान किसको है ?”

बाबाः “जो यह विचार नहीं करता कि ‘यह अज्ञान क्या है, किसके बारे में है तथा किसको है ?’ उसी को यह अज्ञान है ।”

निष्कर्ष यह है कि अज्ञान न आत्मा में है न ब्रह्म में । हमारी बुद्धि में अविवेक है । हमारी बुद्धि पैसा कमाने का तो सोचती है, ब्रह्म के बारे में नहीं सोचती । हमने कभी विचार ही नहीं किया कि ‘आत्मा क्या है ?’ यही अज्ञान का हेतु है, और कोई हेतु नहीं है ।”

पूज्य बापू जी के सत्संग में आता हैः “अज्ञान-अवस्था में जो ज्ञान हो रहा है वह भी अज्ञान का ही रूप है । अज्ञान में चाहे कितनी भी चतुराई, सजावट की हो, सभी वस्तुओं की प्राप्ति की हो लेकिन यह सब अज्ञान से ही उत्पन्न है । कितने भी धार्मिक बन जाओ, कितने भी रोज़े रख लो, कितनी भी नमाज़ें अदा कर लो, चर्च में जाओ, मंदिर में जाओ किंतु अनित्य की गहराई में जो नित्य छिपा है, परिवर्तनशील में जो शाश्वत छिपा है उस परमेश्वर-तत्त्व की जब तक जिज्ञासा नहीं होती तब तक ठीक से उसका ज्ञान नहीं होता । जब तक ठीक से उसका ज्ञान नहीं होता तब तक अज्ञान मौजूद रहता है । जब तक अज्ञान मौजूद रहता है तब तक मोह बना रहता है और जब तक मोह बना रहता है तब तक दुःख बना रहता है ।

अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः ।।

‘अज्ञान के द्वारा ज्ञान ढका हुआ है, उसी से सब अज्ञानी मुनुष्य मोहित हो रहे हैं ।’ (गीताः 5.15)

….और इसमें एक-दो नहीं, सौ-दो सौ नहीं, पूरा ब्रह्मांड मोहित हो रहा है । आत्मज्ञान का प्रकाश होते ही अज्ञान और अज्ञानजनित सारे दुःख, शोक, चिंता, भय, संघर्ष आदि दोष पलायन हो जाते हैं । राग-द्वेष की अग्नि बुझ जाती है, चित्त में परमात्म-शाँति, परमात्म-शीतलता आ जाती है ।”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2019, पृष्ठ संख्या 22,23 अंक 317

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