स्वामी विवेकानंद जी कहते हैं- “अपने ‘मैं’ (अहं) को धन-सम्पत्ति, प्रभुत्व, नाम-यश द्वारा सर्वदा बढ़ाने का यत्न करना, जो कुछ मिले उसी को पकड़े रखना, सारे समय सभी वस्तुओं को इस ‘मैं’ रूपी केन्द्र में ही संग्रहित करना – इसी का नाम है ‘प्रवृत्ति’ ।”
यह बंधनकारक है किंतु इसके बदले अगर कोई अपनी धन-सम्पत्ति, सुविधाओं, साधनों और समय-शक्ति को सबकी हितभावना से सदुपयोग में, परहित में लगाये तो सत्प्रवृत्ति हो जायेगी ।
हर कर्म के मूल में विचार, संकल्प या भाव होता है । यदि हमारे भाव ‘सत्’ के रस में डूबे हुए हों तो उन सद्भावों से जो कर्म होंगे वे निश्चय ही सत्कर्म होंगे । अतः जीवन में सद्भाव की अत्यंत आवश्यकता है ।
‘सत्’ की स्वीकृति से सद्भाव का प्राकट्य अपने-आप, बड़ी सहजता से हो जाता है । ‘सत्’ की स्वीकृति के बारे में पूज्य बापू जी के सत्संग में आता हैः “ईश्वर की दृष्टि में अपनी दृष्टि मिला दें । ईश्वर को जैसा जगत दिखता है और ‘स्व’ दिखता है ऐसा तू अपने को, ‘स्व’ को देख और जगत को देख । स्वीकृति दे दे, हो गया काम ! तो साधना का मतलब है आपकी स्वीकृति देने की तैयारी । ईश्वर की ‘हाँ’ में ‘हाँ’, सदगुरु की ‘हाँ’ में ‘हाँ’ । साधन श्रमसाध्य नहीं है, स्वीकृति-साध्य है और ज्यों स्वीकृति दी त्यों ईश्वर और गुरु के अनुभव में एक होने में आसानी हो जायेगी ।”
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2019, पृष्ठ संख्या 17, अंक 319
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